भाषा हमारी विरासत है लेकिन, क्या आज हमारी भाषा बाज़ार नहीं हो चली हे ! ना तो शब्द सुन्दर रह गए हैं ना ही उनके अर्थ.दोनों नें ही अपना सत्व खो दिया है। देखिये किस तरह भाषा और भावों का का सम्बन्ध उसके अर्थ ही बदल देता हे..
हमारे “सभ्य समाज” में जितनी भी गालियाँ दी जाती हैं उन सबका सम्बन्ध स्त्रियों से ही जाकर जुड़ता है .स्त्रियोंका ‘सम्मान’ भले ही ना कर पाए हमारा समाज लेकिन ‘सम्मान’ (मान/प्रतिष्ठा ) को स्त्रियों की गरिमा से जोड़ जरुर दिया गया है .क्यूंकि स्त्री होना घर परिवार की मान-मर्यादा का प्रश्न है और उनकी गरिमा कम करने से प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से परिवार या बिरादरी की गरिमा खंडित होती है.
बाज़ार नें तो हमें शब्दों का भी व्यापार करना सिखा दिया है .कट ! कॉपी ! ! पेस्ट ! ! !हमारे शब्दों में तो आकर्षण पैदा कर रहे हैं लेकिन भावों की मधुर भूमि को बंजर बना रहे हैं ।सरलता, सहजता और स्वभाविकता कहीं विस्मृत होती जा रही है।
इसलिए किसी का अपमान करने के लिए क्रोध में ,आवेश में, लड़ाई-भिड़ाई-भदाई (भद पीटना) में महिलाओं को संदर्भित ऐसी ‘सम्मानसूचक’ दुराभि-संधियों का बेलाग और सार्वजनिक इस्तेमाल होता है.जब तक ये गालियाँ हमारी भाषा का एक हिस्सा हैं तब तक हम कितनी ही कवायदें क्योँ ना कर लें अपनी पीढ़ियों को महिलायों का सम्मान करना नहीं सिखा सकते .क्यूंकि हमारी भाषा हमारे आचार-व्यवहार को परिलक्षित करती है और अंततः हमारे जेंडर बोध को निर्धारित करती है . और बाज़ार ! वह छिछोरा भी हमारे समाज के अखंडित पथ पर है.
बाज़ार नें तो हमें शब्दों का भी व्यापार करना सिखा दिया है .कट ! कॉपी ! ! पेस्ट ! ! !हमारे शब्दों में तो आकर्षण पैदा कर रहे हैं लेकिन भावों की मधुर भूमि को बंजर बना रहे हैं .सरलता, सहजता और स्वभाविकता कहीं विस्मृत होती जा रही है।बाज़ार जो सम्बन्ध दो व्यक्तियों के मध्य बना रहा है वही संबंध शब्द और अर्थ के बीच पैदा हो रहा है.यह स्थिति भाषिक-बोध में व्यवधान उत्पन्न कर रही है . बाज़ार की सहज ग्राह्यता और व्यवसायिकता की घुसपैठ नें साहित्य में सार्थकता और लेखन में सृजनात्मकता के लिए स्पेस को कम किया है .
सामाजिक मंचों के अति-आग्रही उपयोग, वैचारिक रुग्णता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अटपटी व्याख्याओं और चलताऊ किस्म के भाषिक नवाचारों (शार्ट कट) से भाषा पर अपनी सकारात्मकता खोने का भी संकट पैदा हो रहा है। और इसकी जिम्मेदारी इतिहास पर नहीं हम पर है . हम क्योँ भूल जाते हैं कि भाषा ‘शब्दों के अंकगणित’ से नहीं संवेदनाओं के मुक्त प्रवाह से सुन्दर बनती है .इसलिए शब्दों में सृजन की कला होनी चाहिए तोड़-मरोड़ की कलाकारी नहीं.
आइये अपनी अपनी संस्कृति को बचाएं अपनी भाषा को भावपूर्ण बनाये, अपनी भाषा अपने लोगों से प्रेम करें .भाषा को भारी- भरकम स्थूलकाय किन्तु निर्जीव शब्दों के बोझ तले मत दबाइए.भाषा को उसके दोहरेपन से रिक्त कीजिये.प्यार की भाषा बोलिए और संस्कार की भाषा सीखिए . ये समाज हमारा अपना है इसे प्रकृति की तरह समरस और सुन्दर बनाइये. . . . चंद्रकांता
श्री शिवताण्डवस्तोत्रम् Shri Shivatandava Strotam श्री रावण रचित by shri Ravana श्री शिवताण्डवस्तोत्रम् Shri Shivatandava…
बोल गोरी बोल तेरा कौन पिया / Bol gori bol tera kaun piya, मिलन/ Milan,…
तोहे संवरिया नाहि खबरिया / Tohe sanwariya nahi khabariya, मिलन/ Milan, 1967 Movies गीत/ Title:…
आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहीं / Aaj dil pe koi zor chalta nahin,…
हम तुम युग युग से ये गीत मिलन के / hum tum yug yug se…
मुबारक हो सब को समा ये सुहाना / Mubarak ho sabko sama ye suhana, मिलन/…
This website uses cookies.
View Comments
संसदीय भाषा उत्कृष्ट भाषा माना जाता है ,इसलिए लोग कहते है कि संसदीय भाषा का इस्तेमाल करो परन्तु आजकल संसद में जो भाषा सुनने को मिलता उससे निराशा ही होती है.
latestpost पिंजड़े की पंछी