स्वर: चंद्रकांता
बच्चों से बतियाते हुए
अन्दर बची रह जाती है
थोड़ी-सी भाषा
बची रह जाती है
थोड़ी-सी भाषा
प्रार्थना के बाद भी ।
थोड़ी-सी भाषा
बच ही जाती है
अपने अन्तरंग मित्र को
दुखड़ा सुनाने के बाद भी ।
किसी को विदा करते वक़्त
जब अचानक आ जाती है
प्लेटफॉर्म पर धड़धड़ाती हुई ट्रेन
तो शोर में बिखर जाती है
थोड़ी-सी भाषा …
चली जाती है थोड़ी-सी भाषा
किसी के साथ
फिर भी बची रह जाती है
थोड़ी-सी भाषा
घर के लिए ।
जब भी कुछ कहने की कोशिश करता हूँ
वह रख देती है
अपने थरथराते होंठ
मेरे होंठो पर
थोड़ी-सी भाषा
फिर बची रह जाती है ।
दिन भर बोलता रहता हूँ
कुछ न कुछ
फिर भी बचा रहता है
बहुत कुछ अनकहा
बची रहती है
थोड़ी-सी भाषा
इस तरह ।
अब देखो न !
कहाँ-कहाँ से
कैसे-कैसे बचाकर लाया हूँ
थोड़ी-सी भाषा
कविता के लिए । मणिमोहन
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सुप्रभात मैडम।
नई कोपलें काव्य संग्रह से कुछ कविताओं का भी वाचन कर जनता तक पहुँचाने का अनुरोध है।
आप अनुमति दें तो कुछ कविताएं पोस्ट करुँ!
मोतीलाल आलमचंद्र
नमस्कार मोतीलाल जी
आप chandrakanta.80@gmail.com पर आपकी रचनाएं भेज सकते हैं. कृप्या पाँच चुनिंदा रचनाएं ही भेजें जो यूनिकोड फांट में ही हों.
साथ में आपकी एक स्पष्ट तस्वीर भी संलग्न करें. सादर .
सुन्दर कविताओं की जीवंत वाचन और शैली
आभार आपका.