.जीवन के सबसे विकट मोड़ पर खड़ा हुआ आनंद कभी अपने दोस्त डाक्टर भास्कर के लिए आशाओं से भीगे हुए ‘सात रंग के सपने बुनता है’( मुकेश ) ; तो कभी दूर क्षितिज पर ढलती हुई सांझ में खुद को ढूंढते हुए गाता है ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए सांझ की दुल्हन बदन चुराए, चुपके से आये’. कहा जाता है की ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ गीत को योगेश जी नें पहले एल.वी.लक्ष्मण की फिल्म ‘अन्नदाता’ के लिए लिखा था लेकिन बाद में ऋषिकेश दा के अनुग्रह करने पर इसे ‘आनंद’ फिल्म में शमिल कर लिया गया. इस गीत को मुकेश साहब ने अपनी दर्द भरी आवाज़ से संवारा है.
राजेश खन्ना ने आनंद की भूमिका को डूबकर जिया है; आनंद एक ऐसा किरदार है जो हाथों से छूटती हुई जिन्दगी को बोझिल नहीं होने देता वह उसके एक एक पल का आस्वाद लेता है.आनंद जीवन को पूरे उत्साह से जीता है इसलिए चुनौती से भरी हुई जिन्दगी उसके लिए एक उत्सव बन जाती है. आनंद के संवाद, इसका गीत-संगीत और धुनें सब कुछ एक शानदार लय में है . आनंद सहगल कहानी का नायक है जिसकी मुलाकात अपनी जिंदगी के बचे हुए आखिरी पलों में डॉक्टर भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) से मुंबई के एक क्लिनिक में होती है। हमेशा गंभीर रहने वाला भास्कर आनंद से मिलकर जिंदगी के नए मायने सीखता है. जिंदादिल नायक आनंद की कभी भी आ सकने वाली मृत्यु के सामने फिल्म का हर एक किरदार विवश नजर आता है.
समंदर के किनारे ‘जिंदगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हँसाए कभी ये रुलाए’ गीत गाते हुए रंग-बिरंगे गुब्बारों को आसमान में खुला छोड़ देने के वक्त आनंद के चेहरे पर ख़ुशी और संशय के जो भाव एक साथ उभरते हैं यहाँ शब्दों में उन्हें लिख पाना मुमकिन नहीं लेकिन आप आँख बंद कर इस गीत को सुनेंगे तो पाएंगे कि इस गीत में ‘आनंद’ फिल्म की पूरी कहानी और जिन्दगी के पीछे का दर्शन लिखा हुआ है .
Anand 1971 Music
जीवन के हर एक लम्हे को अपनी पूरी ऊर्जा और खिली हुई मुस्कान के साथ जीने वाला आनंद अपनें भीतर जिस पीड़ा को जी रहा है यह गीत सुनकर आप उसे अपने भीतर उतरता हुआ सा महसूस करेंगे.
गीतकार योगेश के लिखे हुए इस गीत को सलिल की धुनों पर मन्ना डे नें बेहद खूबसूरत आवाज़ से संवारा है. लता जी और सलील दा का एक शानदार कम्पोजीशन ‘तेरे बिना मेरा कहीं जिया लागे ना; जीना भूले थे कहाँ याद नहीं , तुझको पाया है जहां सांस फिर आई वहीं’ ‘ एक खूबसूरत मधुर रचना है. आनंद फिल्म का हर एक गीत दिल को छू जाता है. आनद हिंदी सिनेमा की उन खूबसूरत उपलब्धियों में से है जहाँ नायक होने का अर्थ ‘सिक्स पैक’ की मार्केटिंग होना नहीं है. जीवन को एक चुनौती के रूप में देखने वाली और एक सकारात्मक नजरिये को लेकर चलने वाली फिल्मों में आनंद निश्चय ही उम्दा है. आनंद जैसी उम्दा फिल्म बनाने के लिए ऋषिकेश मुकर्जी बधाई के पात्र हैं.
आनंद हमें सिखाता है की मौत जीवन की एक अभिन्न सच है; मौत के डर से हम जिन्दगी को जीना नहीं छोड़ सकते इसलिए ‘जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए। जीवन के सलीके को नए मायने देने वाली फिल्म आनंद अविस्मरणीय है .जीवन को हम जितना पकड़ते हैं वह हाथ से उतना ही फिसलता जाता है इसलिए जितने भी पल हमें मयस्सर हुए हैं उन्हें बांधना नहीं जीना सीखिए .इसी बात को ‘आनंद’ बहोत ख़ूबसूरती से बयां करती है. जिन्दगी एक ख्वाब का नाम है जरुरी नहीं की हमारे सब ख्वाब पूरे हों लेकिन हमारे भीतर उन ख़्वाबों को जीने की ललक होनी चाहिए – chandrakanta .
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