‘ प्लीज़! तुम जल्दी से यहाँ आ जाओ.. .
देखो सब ठीक हो जाएगा। हम दोनों साथ मिलकर समझायेंगे सबको … किसी भी चुनौती बड़े काम के लिये जरुरी वक्त तो लगता ही है न! जानते हो अगर तुम साथ हो तो दुनिया की कोई भी चुनौती हमें पीछे नहीं धकेल सकती । प्रेम जीवन की सारी शुष्कता को सोख लेता है..
बेहद उत्साहित वैदेही ने कान से फोन हटाया और उसे स्पीकर पर डाल दिया – मनु तुम सुन रहे हो ना ! मनु … कुछ तो कहो ! मनु …. म ..नु ..’
प्रतिउत्तर में किसी पुरुष की आवाज़ सुनाई दी जिसकी चिल्लाहट ने वैदेही के शब्दों की लय को बिखेर दिया ।
‘सिरफिरी लड़की! तुम लखनऊ पहुँच गयीं ? क्या तमाशा लगा रखा है ? अगर तुम्हें लखनऊ पहुँचना था तो पहले इत्तेला कर दी होती! मैं गोरखपुर में अपने सारे काम छोड़कर तुमसे मिलने दिल्ली आया हूँ और तुम बगैर बताए वहाँ मेरे घर पहुँच गयी हो! तुम्हें मेरे ओहदे का और मेरे परिवार की इज्ज़त का जरा भी ख़याल नहीं रहा! ये तुमने अच्छा नहीं किया …’
‘व्हाट अ नॉनसेंस! ऊपर से पूरे दस हजार लगे हैं फ्लाइट से आने में। तुम्हे न तो पैसों की कद्र है न किसी की इज्ज़त की।‘
मनु के इस रवैये पर वैदेही स्तब्ध थी। मनु की तल्ख़ी देखकर उसके चौड़े माथे पर शिकन की लकीरें फैल गयीं उसके होठों पर घबराहट दौड़ रही थी आवाज़ में उदासी भरकर वह बोली –
‘सवाल हम दोनों की जिंदगी का है । पैसा तो फिर आ जायेगा मनु लेकिन एक बार मुँह मोड़ लेने के बाद जिंदगी वापस नहीं आती.. सवाल उन सभी ख्वाहिशों का भी है जो हमने साथ मिलकर की थीं और रही बात इज्ज़त की तो प्रेम की आबरू उसका निबाह करने में हैं’
‘यार अब तुम भाषण भी देने लगी हो ! आखिर तुम्हारी दिक्कत क्या है वैदेही ?’ मनु की झल्लाहट पाँचवे आसमान पर थी।
‘वैदेही!
‘वेद से वैदेही तक की यह यात्रा तुमने अकेले ही तय कर ली मनु!’
‘अब मैं तुम्हारी वेद नहीं रही.. वैदेही हो गयी हूँ! जिस दूरी का अहसास मेरी शिराओं में विष घोल दिया करता था वह अहसास सच बनकर मेरे सामने खड़ा हैं । गोरखपुर से दिल्ली आना तुम्हारे लिए कठिन रहा होगा … जानती हूँ । काम का बोझ प्राथमिकताओं को बदल देता होगा! और बाबूगिरी के रेतीले धोरे प्रेम की तरावट को सोख लेते होंगे, यह भी स्वीकार्य है। लेकिन, प्रेम बदल जाया करता है.. यह सब स्वीकार कर पाना बहुत मुश्किल है मेरे लिए।
हमारे रिश्ते में इन दूरियों ने कब और कैसे जगह बना ली मनु ?
शट अप वैदेही ! आई डांट हैव मच टाईम।’ मनु ने तपाक से कहा। लेकिन वैदेही उसकी आवाज़ को अनसुना कर बोलती रही..
‘जब सब तरह से निराश हो गई, मन को कोई ठौर न मिली तो तुम्हारे घर चली आई। तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की इज्ज़त सलामत रहे लेकिन, मन में डर बैठ गया था कि कहीं कोई अनहोनी न हो गई हो। तुमने भी कहाँ कंफर्म किया था मुझे कि तुम दिल्ली आ रहे हो मुझसे मिलने ! और तुम्हारे परिवार पर मेरा कोई अधिकार नहीं! मैं समझती रही हम दोनों एक हैं और हमारे परिवार भी ..
इतना कहकर वैदेही चुप हो गई। उधर कुछ सेकंड के पॉज के बाद मनु की आवाज़ आई – ‘तुम समझती क्यूं नहीं..काम में इतना बिजी था..की तुमसे बात ही नहीं कर पाया। चोपड़ा साहब की बेटी की साली की शादी है उसकी तैयारियाँ भी मुझे ही देखनी पड़ रही हैं ..साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है इन दिनों और तुम ..’
यह सुनते ही वैदेही फट पड़ी – ‘काम में बीजी थे या अपनी हल्दी की तैयारियों में बीजी थे ? किसी और लड़की से शादी तय करने का वक़्त था तुम्हारे पास ? तुम्हारे घर आई तो अर्चना से मालूम हुआ की तुम्हारी शादी की तैयारियाँ चल रही हैं। ये सब क्या है मनु ? मान-मर्यादा पर क्या सिर्फ तुम्हारा अधिकार है, एक लड़की जिसे तुमने प्रेम किया जीवन पथ पर साथ चलने का का आश्वासन दिया उसका कोई मान नहीं! एक बार बताना भी जरुरी नहीं समझा?’
‘लिसन वैदेही ! आई कांट ओवररूल माई पेरेंट्स। उन्होंने मेरी शादी तय कर दी है वे अपने दोस्त से वादा कर चुके हैं, अब कुछ नहीं किया जा सकता। थिंग्स आर आउट ऑफ माई कंट्रोल। इट्स टू लेट नाउ। वैदेही यार तुम बहुत जज़्बाती हो रही हो। तुम …’
‘मैंने कभी भी तुम्हें बाँधने की कोशिश नहीं की ! फिर तुमने यह सब क्यूँ किया ? और क्या प्रेम का कोई इकरारनामा नहीं होता! जीवनसाथी चुनना तुम्हारा निर्णय है लेकिन कुछ अधिकार प्रेम का भी है! तुमने इस अधिकार को मुझसे छीन लिया .. तुम्हारे परिवार की बलिहारी जाऊं! लेकिन एक परिवार का ख्वाब हमने भी बुना था.. उसके बिखर जाने की टीस नहीं तुम्हें! काश! तुम्हें बाँध लिया होता ..सुनो! क्या प्रेम में किये गये वादों का कोई मोल नहीं ? यह कहते हुए वैदेही का गला ऐसे खुश्क गया जैसे फूल में से किसी ने मकरंद निचोड़ लिया हो।
‘बताने ही वाला था लेकिन तुमने मेरे बताने का इन्तजार ही नहीं किया’ .
तुमने तो कहा था की ट्रेनिंग खत्म होते ही मम्मी पापा से हमारी शादी के लिए बात करोगे ! फिर अचानक तुमने मुझसे बात करना बंद कर दिया …कितने मेल लिखे तुम्हें … कितने मैसेज छोड़े… और तुमने एक का भी जवाब देना जरूरी नहीं समझा। दो दिन पहले मेरा इन्टरव्यू था, इतने ख़ास दिन भी तुम्हारा फोन नहीं आया।’ वैदेही ने अपने नाखून की खाल दाँतों से नोचते हुए कहा। उसकी अनामिका से रक्त का एक लघु फव्वारा फूट पड़ा।
‘तुम ओवररिएक्ट कर रही हो … एक वक़्त के बाद चीजें बदल जाया ..क ..र..
वैदेही मनु की बात काटते हुए बोली – थिंग्स कैन वेट मनु बट नॉट लव । यू डांट हैव राइट टू डिसाइड दी थिंग्स अलोन। मैं कुछ नहीं जानती तुम्हें मुझसे मिलना होगा मेरे सवालों के जवाब देने होंगे उसके बाद कभी तुम्हारी तरफ पलटकर भी नहीं देखूंगी …
यह कहकर वैदेही ने फोन काट दिया और अनामिका को हाथ में लेकर अपना रक्त चूसने लगी ।
“मानव का परिवार राजाजीपुरम में अधेड़ उम्र की एक अकेली महिला के यहाँ किराए पर रहता था। उसके पिता पूरी दोपहरी नुक्कड़ पर गुमटी-दुकान वालों के साथ पत्ते खेलते हुए अपना वक़्त बिताते थे । शादी के लायक एक बहन थी अर्चना जो पत्राचार से बी. एड की पढ़ाई कर रही थी। उसकी शादी की बात कई बार चली लेकिन उसका छोटा कद बार बार उसकी शादी के आड़े आ जाता था। एक छोटा भाई था जो बारहवीं की पढ़ाई कर रहा था और माँ थी जो दिन भर घर गृहस्थी के काम निपटाकर रात को छोटे मोटे कपड़े सिलती थी। सिलाई के काम से वह महीने में पांच-छः हजार तक बना लेती थी। कम से कम रसोई का खर्चा तो निकल ही जाता था । मानव एक बड़े कोचिंग इंस्टिट्यूट में इंग्लिश की ट्यूशन पढ़ाता था। बचत कुछ खास नहीं थी बस चल रहा था घर जुगाड़ से किसी तरह। लेकिन मानव के राजस्व अधिकारी बन जाने से अब घर की स्थितियाँ और रसूख बदलने लगा था“
मानव की बहन अर्चना रसोई में खाना बनाते वक्त इस पूरे वार्तालाप को सुन रही थी। बातचीत के ठहर जाने का आभास होते ही वह बाहर आई और स्टील का पानी भरा ग्लास वैदेही के हाथ में थमा दिया। इसके बाद वह छत पर बने कमरे की तरफ लपकी कोई दो मिनट बाद वह वापस नीचे आकर वैदेही से बोली- ‘भैया का स्टडी रूम ऊपर है, लाईट जला दी है, आप वहाँ जाकर आराम कीजिये मैं मम्मी पापा को खाना खिलाकर आती हूँ ‘ यह कहकर वह वापस रसोई में चली गयी। वैदेही भी बगैर कोई सवाल जवाब किए ऊपर कमरे में चली गयी। भीतर आते ही उसने लाइट बुझा दी और गली की तरफ खुले वाली खिड़की पर जाकर खड़ी हो गयी। इस वक़्त उसकी साँसें ट्रेन की रफ़्तार से भी तेज चल रही थीं।
खिड़की से हवा के तेज़ झोंके अँधेरे कमरे में पसरे हुए मौन को चीssरते हुए अंदर आ रहे थे। अचानक तेज़ बारिश होने लगी खम्बे पर झूलती हुई स्ट्रीट लाइट की मध्दम रोशनी एक नियमित अंतराल पर वैदेही के चेहरे पर पड़ रही थी। उसका गेहुआँ रंग शिथिल हो चुका था, उसके काले घने बाल उसके चौड़े माथे और छोटी सी नाक के इर्द गिर्द बेतरतीबी से फैले हुए थे। हाथों से प्रेम के फिसल जाने की आहट से उसका पूरा शरीर सिहर रहा था। उसके कानों में पड़ी हुई मेटल की वो एक जोड़ा बालियाँ, जो हमेशा किसी प्रेम गीत पर झूमती हुई सी प्रतीत होती थीं, आज एकदम शांत थी। शायद उन्हें भी बिछोह की भनक लग गयी थी। उसकी बड़ी बड़ी कत्थई आँखों की नमी से पिघलकर लैक्मे का गहरा काजल ऐसे छूट रहा था जैसे कटने के बाद हाथों से सरसराते हुए कोई पतंग छूट जाती है। वैदेही को मनु के इस तरह कठोर हो जाने की उम्मीद बिल्कुल भी नहीं थी। बहुत कुछ टूटने लगा था । टूटने की यह आवाज़ कुछ महीनों से उसके कानों तक आती जरुर थी लेकिन वह इस आवाज़ को हवाओं की शरारत समझकर उससे हर बार जोर से झटक देती ।
बरसात वैदेही को उतनी ही प्रिय थीं जितना प्रेमियों को पूनम का चाँद। लेकिन बारिश की यही खूबसुरत बूँदें आज उसके मन में टीस रही थीं। खिड़की पर टंगी हुई वैदेही सामने दिख रही चपटी सी गली को ताक रही थी गली से कुकुर के भौंकने की आवाजें आ रही थीं । पार्श्व में कहीं धीमे-धीमे रेडियो पर ‘लव गुरु’ की आवाज़ भी सुनाई दे रही थी । वैदेही ने इधर उधर आँखें घुमा कर देखा एक लड़की ने हाथ में ट्रांजिस्टर पकड़ा हुआ था और वह लहकते हुए बालकनी में चहलकदमी कर रही थी। सामने लड़कियों का हॉस्टल था शायद! थोड़ी देर में सोनू निगम की आवाज़ बारिश की बूंदों के साथ घुलने लगी ‘दो पल रुका यादों का कारवाँ और फिर चल दिए तुम कहाँ हम कहाँ… ‘
वैदेही खिड़की की दीवाल से सटकर वहीँ बैठ गयी । कब यह गीत थमा और कब वैदेही की आँख लग गई पता ही नहीं चला।
“वैदेही आई. ए. एस. परीक्षा की तैयारी कर रही थी। मानव से उसकी मुलाक़ात फेसबुक पर हुई । इंटरनेट पर होने वाली मुलाकातें धीरे धीरे कनॉट प्लेस की गलियों में होने लगीं । मुलाकातें कब प्यार में बदल गईं खुद उन्हें भी मालूम नहीं चला। साल भर पहले ही मनु का चयन रेवेन्यू सर्विस के लिए हुआ था, फिलहाल वह दिल्ली-फरीदाबाद में ट्रेनिंग पर था। मनु की तुनकमिजाजी पर वैदेही उसे खडूस कहकर चिढ़ाया करती, जिस पर वे दोनों खूब हँसते । वैदेही लाड से मानव को मनु बोलने लगी थी और प्यार के खूबसूरत अंतरंग लम्हों में मानव वैदेही को वेद कहकर बुलाता था। दरअसल, प्रेम की मिठास शब्दों को संक्षिप्त कर देती है और प्रेम का आश्रय संज्ञा को विशेषण बना देता है।
मानव और वैदेही का दिल एक दूसरे में धडकने लगा था । रीगल और रिवोली के फिल्मी कॉरिडोर में न मालूम प्यार के कितने ही गीत साथ मिलकर गए थे उन दोनों ने। कॉफी हाऊस, सेंट्रल पार्क, अग्रसेन की बावड़ी, बंगला साहिब गुरुद्वारा, जंतर-मंतर … ऐसी कोई भी जगह तो नहीं थी जहां उनके प्यार की गंध न छूटी हो । लोगों के मन में इन्हें देखकर एकदम ‘रब ने बना दी जोड़ी टाईप’ फीलिंग आती थी। लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था।“
3
‘दरवाज़ा खोलो वैदेही ! वैदेही ! सुनती हो की नहीं ! आर यू देयर ? हलो !! ओपन दी डोर वैदेही …’
रात के कोई आठ बजे होंगे मानव घर आ चुका था । घर आते ही वह सीधा छत पर गया और उसने बेसब्रों की तरह अपने स्टडी रूम का दरवाज़ा पीटना शुरू कर दिया। बेसुध सा शरीर लिए हुए वैदेही दरवाजा खोलने के लिये उठी। उसमें अब भी कहीं एक उम्मीद बाकी थी कि मानव उसे देखते ही सब कुछ भूलकर गले से लगा लेगा और कहेगा ‘मुझे माफ़ कर दो वेद, मैं भटक गया था ‘ । लेकिन जब उसने दरवाजा खोला ऐसा कुछ भी नहीं हुआ …
‘तुमनें यहाँ आकर बिल्कुल अच्छा नहीं किया वैदेही । ऐसे भी कोई मुँह उठाकर किसी के घर चला आता है क्या! मुझे इत्तेला तो की होती मैं खुद बुलाता तुम्हें यहाँ ।
तुम ही कहो मनु, जब तुमने उम्मीद के सब रास्ते बंद कर दिए … तो कहाँ जाती तुम्हारी वेद !!
देखो वैदेही मेरी बात ध्यान से सुनो। अब हमारा संजोग नहीं हो सकता .. प्लीज़ ट्राई टू अंडरस्टैंड .. मैं अपने माता पिता के विरुद्ध नहीं जा सकता। पहले भी कह चुका हूँ अब फिर कह रहा हूँ इस बात को यहीं खत्म करो। हमारी दिशाएं अब अलग हैं। बी प्रैक्टिकल ..’
मनु के इस रवैये से तिलमिलाकर वैदेही बोली –
‘बी प्रैक्टिकल! तुम्हारा मुझे छूना प्रैक्टिकल हुआ करता था या नहीं! मुझे प्रेम करते वक्त तो माता-पिता की सहमति नहीं ली थी तुमने ! अब उनकी आड़ लेकर किस अधिकार से अपना पक्ष रख रहे हो! ‘
‘माता पिता को बीच में मत लाओ.. सुना है एक करोड़ मिल रहे हैं पटवारी के परिवार से गठबंधन के !’ वैदेही ने उस पर तिरछी नजर करते हुए कहा ।
‘अपनी बकवास बंद करो और जाओ यहाँ से …
मेरे पास तुम्हारे किसी पागलपन का जवाब नहीं है। वैदेही यू हैव लॉस्ट युअर सेंसेस ।‘ मानव ने यह बात कहते हुए उसे लगभग धक्का सा दिया .
वैदेही हतप्रभ थी ।मानव की यह प्रतिक्रिया देखकर वह वहीं जमीन में धंस गई और फूट फूट कर रोने लगी।.वह रोती ही जा रही थी । वैदेही को इस तरह बिलखता हुआ देखकर मानव भी उसके पास वहीं किवाड़ से सटकर बैठ गया और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोला –
‘सब ठीक हो जाएगा वेद। तुम्हें मुझसे भी अच्छा लड़का मिलेगा। यू डिज़र्व अ बेटर पर्सन देन मी । समझती क्यूँ नहीं.. मेरी बहन की शादी की उम्र निकलती जा रही है.. आखिर मेरी भी कोई जिम्मेदारी है या नहीं!
वैदेही नें मानव की तरफ देखा और अपनी गर्दन झुकाते हुए प्रश्न की मुद्रा में कहा – सच ! तुमसे भी अच्छा ? …
इसके बाद थोड़ी देर तलक कमरे में ख़ामोशी छाई रही। वैदेही अपने दोनों पैर मोड़कर बैठी हुई थी उसने अपना सिर अपने घुटनों मे छुपा रखा था । वह सुबुक रही थी और मानव एकटक उसे देखे जा रहा था। अचानक वैदेही ने अपना सिर उठाया उसने मानव की आँखों में कुछ तक सेकंड देखा और बोली –
‘कितनी सस्ती थी तुम्हारी मोहब्बत। एक बार कहा होता कि पैसा तुम्हारी जरुरत है; यकीन जानो मैं तुम्हें खुद ही सौंप देती उन हाथों में जिनमें चूड़ियों की धानी खनक नहीं लाखों-करोड़ों रुपयों से भरा हुआ संदूक था । जानते हो ! सबने कहा कि तुम बदल गए हो .. फिर भी मैं तुम्हारा इंतजार करती रही और खुद को विश्वास दिलाती रही कि मेरा मनु ऐसा कर ही नहीं सकता । तुम नहीं जानते मनु तुमने प्रेम की एक खूबसूरत इमारत को कब्रगाह कर दिया । उफ्फ्फ्फ़ ! ‘ मेरी हसरतों का ताजमहल एक करोड़ में बिक गया ।
अपनी जिम्मेदारियों की आड़ में तुमने मेरे हिस्से के प्रेम की आहुति दे दी ।’
इतना कहकर वैदेही की भर्रा s ई हुई आवाज़ ठहर गई। मानव चुप्पा बनकर बैठा रहा मानो उसे कोई साँप सूंघ गया हो ।
प्यार की बारिश में सिर से पाँव तलक भीगे हुए दो लोग बूंदों के रेशमी धागों से कुछ खूबसूरत ख्वाबों को बुनते हैं। लेकिन इस बारिश में कभी कभी इतनी अधिक तरलता होती है कि उनके कच्चे ख़्वाब धड़ाम से फिसल जाते हैं। मानव और वैदेही के साथ भी यही हुआ।
4
वैदेही को लखनऊ से दिल्ली वापस आये हुए तीन साल बीत चुके थे । मानव की बेवफाई के बाद खुद को संभालने में उसे काफी वक़्त लगा। उस साल वह आई. ए. एस. का इंटरव्यू क्लीयर नहीं कर सकी। फ़िलहाल वह एक अच्छी फर्म में असिस्टेंट इंटीरियर डेकोरेटर की जॉब कर रही है, राजेंद्र नगर में किराए का कमरा ही अब उसका आशियाना है ।
फ़रवरी के रविवार की एक सर्द सुबह थी। वैदेही कुछ लिख रही थी साथ में फोन पर 92.7 बिग एफ. एम. बज रहा था। आज वेलेंटाइन डे था यानी प्यार का दिन तो रेडियो पर सब अपने प्यार और ब्रेकअप के किस्से सुना रहे थे। आर.जे. शेखर बता रहा था कि आजकल की युवा पीढ़ी बहुत प्रेक्टिकल है । आज जब ब्रेकअप होता है तो लोगों के दिल नहीं टूटते डांस फ्लोर टूटता है। इतना कहकर उसने एक गाना प्ले कर दिया। आर.जे. शेखर की यह बात सुनकर वैदेही धीमे से मुस्कुरा दी । ‘दिल पे पत्थर रख के मैंने मेकअप कर लिया, मेरे सइयाँ जी से आज मैंने ब्रेक-अप कर लिया…. गीत चालू था और प्रोग्राम अपने पूरे शबाब पर था । तभी अचानक डोर बेल बजी ।
वैदेही ने गाने की आवाज़ धीमी की और जाकर दरवाज़ा खोला तो देखा एक बीस-इक्कीस साल की लड़की जिसका पहनावा कुछ बोहेमियन किस्म का था, हाथों में फूलों का बड़ा सा गुलदस्ता लिए उसके सामने खड़ी थी । वैदेही को देखते ही वह जोर से चिल्लाई – ‘ हैप्पी बर्थडे दी .. लव यू बहुत सारा’.. इतना कहकर उसने लिली के फूलों से महकता हुआ सफेद रंग का गुलदस्ता वैदेही को थमा दिया और कसकर उससे लिपट गयी। स्वभाव से बेहद चंचल वेरोनिका वैदेही की छोटी बहन थी ।
तुम्हारी सरप्राइज देने की आदत नहीं गई वरोनिका ! तुम भी न एकदम क्रेजी हो ।
इतना कहकर वैदेही ने गुलदस्ता एक तरफ रख दिया । उसने वरोनिका के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर चूमे उसे भीतर आने को कहा और अपने वर्किंग टेबल के पास पड़े हुए काले बीन बैग पर बैठने का इशारा किया ।
माँ पापा कैसे हैं ? वैदेही ने पूछा ।
एकदम बिंदास । बाकी अगले वीकेंड तुम घर आओगी तो खुद ही देख लेना कैसे हैं । माँ को तो अपने सोशल वर्क से ही फुर्सत नहीं और पापा हर वक़्त एक ही माला जपते रहते हैं वैदेही से कुछ सीखो ! उसके जैसा बनने की कोशिश करो …. बलां बलां …।
वैदेही हंसी और बोली – माई लवली बबली डॉल तू टेंशन मत ले । तू जैसी भी है बहुत प्यारी है । बस अपनी पढ़ाई पर फोकस रख । कुछ देर बातचीत के बाद वरोनिका बोली ‘-
‘दीदी बहुत भूख लगी है अपने हाथ के गर्मागर्म आलू के पराठे नहीं खिलाओगी आज !
अरे तुम फ्रेश हो जाओ मैं बस अभी 15 मिनट में परांठे तैयार करती हूँ।
अपुन को चॉकलेट ऑरियो शेक भी मांगता है सिस । वरोनिका हंसकर बोली। वैदेही ने हाँ में सिर हिला दिया और वह किचन की तरफ बढ़ गयी।
उधर वैदेही किचन में चली गयी इधर वरोनिका उसके टेबल पर पड़े हुए कागज़ टटोलने लगी। उसने ऐसे ही एक कागज़ को हाथ में लिया और पढ़ने लगी ।
‘कितने ही बसंत आये, कितने ही पतझड़ ठहरे और चले भी गए .. लेकिन फूलों से नाजुक उन ख्वाबों का चुराया जाना अब भी टीसता है जिन्हें तुम्हारे साथ हुई छोटी-छोटी मुलाकातों में बुना था। याद है कॉफ़ी हाऊस में 14 फरवरी की वह शाम जब मैंने गुलाब का फूल नहीं लाने पर तुम्हें खूब गुस्सा किया था ! वापसी में तुमने मुझे सीढ़ियों पर रोका और अपनी बाहों के घेरे में ले लिया। तुमने अपने होंठ मेरे होठों पर रखकर धीमे से भींच लिए .. तुम आहिस्ता से मेरे कानों तक आए .. तुमने मेरी बालियों को चूमा और मैं लाज से लाल पड़ गई ।
तुमने कहा ‘लो मैंने प्यार के फूलों से तुम्हारा सिंगार कर दिया । दुनिया के सब गुलाब अब तुम्हारे सामने फीके हैं । कहो अब भी गुलाब चाहिए !! यह पहली बार था जब मैंने खुद को तुममें गुंथा हुआ सा महसूस किया । तुम्हारा यह ‘एक चुटकी इश्क’ मुझ पर उधार रहा ।’
यह पढ़कर वरोनिका जोर से चिल्लाई और बोली – सिस ये क्या है ? कोई लव स्टोरी लिख रही हो क्या ??
किचन से आवाज़ आई – ‘हाँ’ ..
वरोनिका वैदेही के पास आई और उससे लिपटकर बोली – ‘तुम कितना सुंदर लिखती हो दी। ऐसा प्यार तो बस ख्वाबों ख्यालों में ही होता होगा । इतना कहकर उसने वैदेही का माथा चूम लिया और बोली – ‘एक चुटकी इश्क तुम्हारे लिए ‘ ।
– chandrakanta
श्री शिवताण्डवस्तोत्रम् Shri Shivatandava Strotam श्री रावण रचित by shri Ravana श्री शिवताण्डवस्तोत्रम् Shri Shivatandava…
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आपकी कहानी ," एक चुटकी इश्क" , पढ़ी बहुत अच्छी लगी ,बहुत अरसे के बाद एक संतुलित कहानी पढ़ने को मिली .शुभकामनायें .