हिंदी सिनेमा के इतिहास में महिला संगीतकारों का अभाव बहुत बड़ा है। आप अगर खुद से भी यह सवाल करेंगे तो बमुश्किल ऊषा खन्ना का नाम आपके जेहन में आएगा। हममें से कम ही दर्शक जानते होंगे कि अभिनेत्री नर्गिस की माता जद्दनबाई हिंदी फिल्मों की पहली महिला संगीतकार हैं। उन्होंने ग़ज़ल रिकॉर्डिंग से अपना काम शुरू किया 1935 में उन्होंने पहली मर्तबा चिमनलाल लुहार की फिल्म ‘तलाश-ए-हक’ के लिए संगीत दिया। इसी फिल्म से जद्दनबाई ने नर्गिस को बातौर बाल कलाकार परदे पर उतारा। उन्होंने बाकायदा संगीत की शिक्षा ली और ठुमरी गायन में बेहद प्रसिध्दि पाई, वे बेहतरीन नृत्य भी करती थीं. जद्दन जी का गाया हुआ ‘लागत करेजवा में चोट’ आज भी लोग बड़े चाव से सुनते हैं। उन्होंने फिल्मों में संगीत दिया, अभिनय किया और ‘संगीत मूवीटोन’ के नाम से अपनी प्रोडक्शन कम्पनी भी स्थापित की। जद्दनबाई एक तवायफ़*( उस वक्त तवायफें शास्त्रीय संगीत और नृत्य में पारंगत होती थीं।जद्दनबाई का संघर्ष कितना बड़ा रहा होगा यह सोचकर उनके लिए मन सम्मान से भर जाता है। कितनी विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने यह मकाम हासिल किया होगा।
‘मैं बन की चिड़िया’ अछूत कन्या फ़िल्म के इस मधुर गीत के लिए संगीत सरस्वती देवी ने दिया। वह बॉलीवुड की दूसरी महिला संगीतकार थीं ( कुछ लोग उन्हें पहली महिला भी मानते हैं ) उन्होंने 1930 और 1940 के दशक की फिल्मों में संगीत दिया। उनके पिता खुद भी शास्त्रीय संगीत गायक थे। बॉम्बे टॉकीज के संस्थापक हिमांशु राय ने उन्हें फिल्मों में मौका दिया। बॉम्बे टॉकीज के साथ काम करने वाली वे पहली महिला संगीतकार थीं। अपने शुरुआती दिनों में उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो के साथ भी काम किया। पड़ोसन फ़िल्म का ‘एक चतुर नार’ गीत मूल रूप से उन्होंने ही संगीतबद्ध किया था। उन्होंने जवानी की हवा, अछूत कन्या और जन्मभूमि सरीखी फिल्मों के लिए संगीत दिया। सरस्वती देवी पारसी समुदाय से थीं। अपने करियर की शुरुआत में उन्हें पारसी समुदाय का काफी विरोध झेलना पड़ा। उनका विरोध करने वाली हस्तियों में सिनेमा से जुड़े लोग भी शामिल थे।
इस क्रम में तीसरा नाम ऊषा खन्ना जी का है। उनके पिता मनोहर खन्ना हिंदी फिल्मों के गीतकार और गायक थे। पुरुषों के प्रभुत्व वाले इस क्षेत्र में उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई। उषा जी लगभग तीन दशकों तलक सक्रिय रहीं। हिंदी फिल्मों में उन्हें पहला अवसर शशधर मुखर्जी ने अपनी फिल्म ‘दिल देके देखो’ में दिया। मोहम्मद रफ़ी और आशा भोसले के साथ मिलकर उषा खन्ना ने बहुत ही यादगार गीत दिए। दिल देके देखो, साजन की सहेली, हवस, शबनम हम हिन्दुस्तानी एक सपेरा एक लुटेरा साजन बिना सुहागन आप तो ऐसे न थे उनमें सराहनीय हैं।
महिला संगीतकारों में ऊषा खन्ना व्यावसायिक लिहाज से सबसे अधिक सफल रहीं। हम तुमसे जुदा हो के, जिन्दगी प्यार का गीत है, बरखा रानी जरा जैम के बरसो तू इस तरह से मेरी जिन्दगी में शामिल है हम तुमसे जुदा होक छोड़ो कल की बातें , शायद मेरी शादी का ख़याल और अगर तुम न होते मधुबन खुशबू देता है जैसे मधुर गीत दिए। आपको जानकार हैरानी होगी उस समय केवल 17 या 18 साल की उम्र से ही उषा जी ने अपनी संगीत यात्रा की शुरुआत की। ऊषा जी को पहला फिल्म फेयर नॉमिनेशन सावन कुमार की ‘सौतन’ फ़िल्म के लिए मिला। उन्होंने कुछ मलयालम फिल्मों के लिए भी संगीत दिया।
संगीत किसी फिल्म को एक मधुर लय में बांधता है जद्दनबाई सरस्वती देवी और ऊषा खन्ना के बाद केवल दो ही नाम हैं जो महिला संगीतकार के तौर पर सामने आते हैं। पहला शिवी आर कश्यप का जिन्होंने केतन मेहता और दीपा साही की फिल्म ‘तेरे मेरे फेरे’ ( 2011 ) के लिए संगीत दिया। उन्होंने हिमाचली लोक धुनों का इस्तेमाल किया है उन्होंने इस फिल्म का टाइटल ट्रैक भी गाया जो काफी खुबसुरत बन पड़ा है .और दूसरा स्नेहा खानवलकर का जिन्होंने दिबाकर बनर्जी की ‘ओये लक्की लक्की ओये’ (2008) और ‘लव, सेक्स और धोखा’ (2010) में संगीत दिया। बाद में स्नेहा ने अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ ( भाग 1 और 2 ) के लिए भी संगीत दिया। वासेपुर के लिए दोनों बार उन्हें फिल्मफेयर नामिनेशन भी मिला। इसके अलावा उन्होंने भेजा फ्राई 2 , यंगिस्तान , सिंह इज ब्लिंग और नंदिता दास की फिल्म मंटो के कुछ गीतों के लिए भी संगीत दिया है .संगीत
फिलहाल इतना की हिंदी सिनेमा के संगीत में जो जेंडर-गैप है वह बहोत बड़ा है. महिलाएं इस व्यवसाय में आगे नहीं आ रहीं या उन्हें आगे आने नहीं दिया जा रहा इसके लिए तो बारीकी से सब पहलुओं की पड़ताल करनी होगी . हिंदी सिनेमा के सौ सालों में हमने शैली से लेकर धुनों के प्रयोग तक में संगीत में कई बदलाव देखें है लेकिन महिला संगीतकारों की और अधिक उपस्थिति एक सुनहरा परिवर्तन होगी .
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