साहित्य आलेख

‘Janana’ जनाना लेखिका चंद्रकांता

‘Janana’ जनाना – ईंट के भट्टे में सुलगती औरत के विद्रोह की अनूठी दास्तां

उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में ईंट के भट्ठों से निकलती हुई जहरीली हवा के बीच एक क़स्बा रुक रुक कर साँस ले रहा था. कस्बे का नाम था ‘जनाना’. अब इस नाम के पीछे का मजमून क्या था यह तो नहीं मालूम, लेकिन इस जगह की रवायतों में जनाना जैसा कुछ नहीं था. यहाँ की आब-ओ-हवा मर्दाना थी. जनाना में ही कोई तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर, मुख्य कस्बे से कटा हुआ, ईंट का एक भट्ठा था. जिसके अलग अलग कोनों में टीन की चादर ओढ़े अलसाई हुई झुग्गी-झोपड़ियां पड़ी हुई थीं. इनमें जलाई, भराई, पथाई करने वाले मज़दूर और बेलदार रहा करते थे. दिन भर चौदह से सोलह घंटे काम में खटने वाले ये कामगार जानते ही नहीं थे कि फुर्सत किस बला का नाम है.

ऊपर से देखने पर जनाना का यह हिस्सा ठहरे हुए पानी की तरह दिखता था; जहाँ धूल, धुएँ और मिट्टी के टीलों के अतिरिक्त कोई हलचल नहीं थी. बस्ती में चिकित्सा के नाम पर एक कंपाउंडर तक नहीं था. सुविधाओं के अभाव में कभी माँ की जान पर बन आती तो कभी बच्चा खत्म हो जाता. हफ्ते भर पहले ही टीटू की लुगाई ने बच्चा जनते हुये दम तोड़ दिया. बेचारी को अस्पताल भी नसीब न हुआ. इधर घरवाली की चिता की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि, बच्चे की देखभाल का वास्ता देकर टीटू अपनी पंद्रह बरस की साली को ब्याह लाया. मजदूर भी गज़ब थे, झोला छाप डॉक्टरों के चक्कर में जो कभी किसी का बच्चा मर जाता, तो उधर महीने भर में ही दूसरे बच्चे की तैयारी शुरू हो जाती. औरत को बच्चे का शोक मनाने का अवकाश भी न मिलता. कुछ ही दिनों में फिर से आठ नौ महीने का पेट लिये बेचारी ईंट पाथती मिलती. लेकिन फरक किसे पड़ता था!

भट्ठे के पास सड़क के नाम पर मात्र एक पगडण्डी सी थी जो चार किलोमीटर दूर हाट बाजार से जाकर मिलती थी. जब सड़क ही नहीं थी तो सरकारी सुविधाएं और श्रम कानून भला किस राह पहुँचते! सरकार नाम की चिड़िया केवल चुनाव के वक्त ही दिखाई पड़ती थी. लेकिन चुनाव पहचान पत्र सभी के पास था. इस भट्ठे का मालिक पंचम था जिसके पास भट्ठे से होने वाली आमदनी के अतिरिक्त पुरखों की जायदाद भी थी. पंचम चाहता तो अपने खर्चे पर बस्ती में एक डॉक्टर तैनात कर सकता था. लेकिन, वह जानता था कि खून पसीने से कमाई गयी धन दौलत का सही स्थान तिजोरी में होता है, उसे फटी हुई बिवाइयों में नहीं भरा जाता. 

मध्यम कद काठी का पंचम स्वभाव से कड़क था और कम बोलता था. उसकी उम्र कोई बयालीस के आस पास रही होगी. इस उम्र में ही उसके अठन्नी भर बाल पक चुके थे. उसके आगे के दो दांत छटांक भर बाहर की ओर निकले हुए थ. उन्हें देखकर ऐसा लगता था जैसे खिड़की से दो चूहे बाहर की तरफ झाँक रहे हों. अमूमन वह  सफ़ेद कुर्ता पायजामा और गले में एक लाल रंग का मफलर पहने हुए रहता लेकिन कभी किसी ख़ास मौके पर जब काले रंग की नेहरु जैकेट पहनता तो उसकी खिलंदड सी आभा में चार चाँद लग जाया करते.   

सामने तो हिम्मत न थी, लेकिन पीठ पीछे सभी मजदूर रंडवा कहकर उसका मजाक बनाते थे. पंचम की बेटी दस साल की थी जब उसकी घरवाली छोटी माता के प्रकोप से चल बसी. ऐसा नहीं था की ठेकेदार ने दवा दारु नहीं की, लेकिन अंध-विश्वास बड़ी बात है. बड़े शहरों में लोग आज भी चिकनपॉक्स निकल आने पर डॉक्टर के पास नहीं जाते. फिर ‘जनाना’ तो एक ऊँघता हुआ क़स्बा मात्र था, जिसकी कोख़ में शहर अभी पल ही रहा था. अंधविश्वास की माता ने भी बगैर कोई कोताही किये उसकी जोरू के प्राण ले लिये. पत्नी के देहावसान के बाद दो साल तक तो उनका बड़ा बेटा महेंद्र साथ ही रहा, फिर शहर के किसी अच्छे कॉलेज में उसका दाखिला हो गया. आज तीन बरस होने को आये लेकिन महेंद्र वापस घर नहीं आया. महीने के महीने साहबजादे के पास रुपया पहुँच जाता था, फिर बाप को मुँह दिखाने की जरुरत भी क्या थी. पिछले पांच सालों से पंचम बाबू अधेड़ हो चुके खम्बों पर टिके अपने हवेलीनुमा घर में अकेले ही रह रहे थे.

पंचम की बेटी ने इस बरस मैट्रिक की परीक्षा दी है. माँ के गुजर जाने के बाद आनंदी को रखने को लेकर उसकी बड़ी बुआ और इकलौती मौसी में खूब गुत्थम गुत्था हुई. आखिरकार आनंदी की हठ पर उसे उसकी मौसी के यहाँ भेज दिया गया. मौसी कोई बीस मील दूर फुलेरी में रहती थी. पंचम डेढ़ दो महीने में आनंदी से मिलने चला जाया करता और तभी उसके खर्चे पानी की व्यवस्था भी कर आता. उसकी बड़ी बहन फूलकुमारी ने कई बार कोशिश की, उसका लगन फिर से करवाने की, लेकिन बात न बन सकी. ऐसा नहीं है की पंचम को यह खालीपन अखरता नहीं था, किंतु किसी भी तरह के संपत्ति विवाद से बचने के लिये वह दूसरे ब्याह के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता था. 

लेकिन औरत की जरुरत भला कौन मरद को नहीं रहती! पंचम जब भी भट्टे पर होता उसकी नजरें सुकमा पर गड़ी रहतीं. भट्ठे  पर सैकड़ों औरतें काम किया करती थीं जिनकी तरफ कभी उसका ध्यान भी नहीं गया होगा लेकिन सुकमा को देखकर वह पसीज जाया करता था – ‘Janana’ जनाना

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पंचम सेठ के भट्ठे पर जलाई और भराई का काम करने वाला लाखी सुकमा को बारह साल पहले बार्डर के किसी गाँव से ब्याह कर लाया था. लाखी के बापू ने अपने एकमात्र बेटे का ब्याह केवल तीन सौ रुपये में निपटा लिया था. न हींग लगी थी न फिटकरी और रंग भी खूब चोखा हुआ. ब्याह के छः बरस बाद सुकमा के पेट से होने की खबर सुनकर बापू से रहा न गया और मारे ख़ुशी के वह सच में मर गया. घड़ा भर कच्ची शराब गटक ली थी उसने, अगले दिन खेतों में बेजान पड़ा मिला. जान से तो गया ही, बारह हजार का कर्ज भी छोड़ गया लाखी की छाती पर. जिस पोते की आस में फूल कर कुप्पा हुआ था, कमबख्त वह भी नसीब न हुआ. छठे हफ्ते में ही गर्भपात हो गया. एक रात नशे में धुत्त होकर सुकमा को दबोच लिया लाखी ने. कितना इंतज़ार करता! मरद का कोई बखत थोड़ा होता है, जब भूख लगी झपट्टा मारा और जरुरत पड़ी तो छीनकर भी खा लिया. गर्भ उतर जाने के बाद से सुकमा कुछ बुझी हुई सी रहने लगी थी लाखी से. 

ब्याह के बाद कई बरस दोनों ने गन्ने के खेतों में काम किया. लेकिन पानी की कमी के चलते फसल खराब हो रही थी, सो मालिक ने खेत बेच दिए और शहर में जाकर बस गया. जब रोजगार न रहा, तो बिरादरी के बाकी लोगों की देखा देखी लाखी ने भी ईंट के भट्ठे से अपना भाग जोड़ लिया. दिन भर के कोई सौ-एक सौ बीस रूपए ही बन पाते थे, लेकिन जो भी था, भूखो मरने से तो बेहतर था. कुछ दिन सुकमा ने भी पथाई का काम किया. लेकिन दो महीने पहले न मालूम क्या हुआ, उसने काम पर न जाने की हठ पकड़ ली. लाखी ने खूब जोर लगा लिया लेकिन सुकमा टस से मस न हुई. सुकमा ने उसकी बात को यह कहकर टाल दिया की उसका जी नहीं करता, जेठ-आषाढ़ निकल जाये फिर लौटेगी भट्ठे पर. 

‘अरी! खाली दिमाग शैतान का घर होता है! दो पैसे आयेंगे घर में ..यहाँ खाली बैठकर रोटी पकाने और बर्तन भांजने के सिवा क्या करेगी!’ लाखी ने झल्लाते हुए कहा. 

सच भी था, कच्ची उम्र से ही तो चूल्हा-चौका संभाल लिया था उसने. माहवारी हुए साल भर भी न हुआ था कि उसके सौतेले बाप ने मात्र तीन सौ रूपये के एवज में उसे बेच दिया. यह माहवारी भी एक बड़ा खाज है औरतों के जीवन का, किसी महामारी की तरह भयानक. सुकमा की माँ की मौत सालों पहले माहवारी से ही हुई थी. कैसे? उसकी माँ को महीने चल रहे थे जिस देहात से वह थी वहां माहवारी के समय ‘चौपड़ी प्रथा’ के नाम पर लुगाइयों को एक अलग झोपड़ी में डाल दिया जाता था. उस दिन सुकमा की माँ मारे दर्द के बेहाल थी, फूटे भाग उसके जो उसी वक़्त उसकी चचिया सास भी वहां आई हुई थी. खूब मिन्नत की अभागी ने की उसे झोपड़े में न भेजे. लेकिन सास ठहरी शुभ-अशुभ और विचार की एकदम पक्की.

            जाड़ों के दिन थे माँ ने ताप सेकने के लिये नैक जलावन किया और सो गयी. झोपड़े में कोई खिड़की तो थी नहीं, जो धुआँ बाहर फेंक पाती सो नींद में ही घुटन के चलते मौत हो गयी बेचारी की. जब तक ज़िंदा थी उसका बाप उसकी माँ को खूब मारता पीटता था. उसे याद है कैसे केवल दस- बीस रूपए की एवज में वह उसे दूसरे मर्दों के साथ सोने को मजबूर किया करता था. किसी पुरुष के हाथों की नरमी, कोमलता और प्रेम की मृदु गर्माहट से वह अनभिज्ञ थी. ससुर उसे भले आदमी लगते थे, सुकमा भी बेटी की तरह उनका ख्याल रखती. लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था उसके ससुर भी जल्दी ही चल बसे.

           सुकमा मिट्टी में धंसे हुए फूल की तरह दिखती. चौड़ा माथा, छोटी सी सुडौल नाक और बड़े अधरों वाली सुकमा गहनों के नाम पर गले में एक मोटा काला धागा बांधे रखती . भट्ठे पर काम करते हुए जब कभी हाट बाजार जाया करती, तो टप्पे मारकर पगडण्डी को ऐसे लांघती, जैसे कोई हिरनी फुदक रही हो उस बियाबान में. बाजार जाती तो तेल नून में ही पैसे खर्च हो जाते. वह अपनी सपनीली आँखों से बिंदी चूड़ी बेचने वाले की और ताकती रहती. उसने कभी भूले से भी, लाखी से इस अभाव का तकादा नहीं किया. वैसे भी एक सुघड़ स्त्री प्रेम पर कभी भौतिक लालसाओं को महत्त्व नहीं देती! सुकमा इस मामले में और भी अनूठी थी. वह ढिबरी के कांच से कालिख लेकर उसमें तेल का हाथ छुआकर अपनी आँखों में भर लेती, पल भर के लिये उसकी आँखें छलछला जातीं. उसी ऊँगली से एक छोटी सी टिकली वह अपने माथे पर भी लगा लेती. उसके गेहुए रंग पर अंजन की वह गहरी कालिख और भी निखर कर आती. 

लाखी और सुकमा का अभाव भरा जीवन ठीक-ठाक ही बसर हो रहा था. कभी कभार जब मार कुटाई की नौबत आ जाती तो सुकमा भी खूब डटकर मोर्चा संभालती. लाखी गाँव देहात के हिसाब से एक अच्छा मरद था, अमूमन वह सुकमा को किसी बात के लिये न टोकता. एक ही खराबी थी उसमें, रोजाना शराब पीकर आता और सोते समय सुकमा पर किसी बिगडैल भूत की तरह चढ़ जाया करता. धूल से सनी हुई जिन्दगी में शरीर की भूख के अलावा जैसे कोई और उत्तेजना मालूम ही न होती थी. सुकमा अक्सर उसे अपने ऊपर से नीचे झटक देती. उसे लाखी का जो कोमल स्पर्श चाहिए था वह तो ईंट के भट्टे में कहीं झुलस गया था.

        वक़्त अपने अर्धविरामों के साथ बहता रहा. सुकमा का हृदय अब कुछ धीमा धड़कता था. मन बुझा बुझा सा रहता.

उसे अपना मस्तिष्क ईंट के गारे में धँसा हुआ सा महसूस होता. वह कभी दायाँ तो कभी बायाँ पैर उठाकर उस गारे से बाहर निकलने की कोशिश करती. पंचांग बदलने को था. आषाढ़ के पहले की घमस, दबे पाँव आती और वक़्त-बेवक्त सुकमा के मन को किसी अकथ बेचैनी से भर देती. जाने कौन सी अल्पता कुतर रही थी उसके जी को! गृहस्थी को लेकर कोई वितृष्णा घर कर गयी थी शायद!       

3

पटवारी रामभरोसे का लाखी से खूब याराना था फिलहाल इसका व्याकरण समझ सकना टेढ़ी खीर था. रामभरोसे अक्सर लाखी को साथ लेकर ठेके पर जाता और छककर महुआ पीता. लाखी के भीतर जब महुआ घुस जाती थी, तो फाग के गीत बाहर आने लगते, दाम भी नहीं लगते और मनोरंजन भी हो जाता. यूँ तो पटवारी कोई भला आदमी नहीं था, मजदूरों को पैसों की देनदारी के वक़्त वह खूब आनाकानी करता लेकिन लाखी और सुकमा के पैसे उसने कभी न रोके थे.

रामभरोसे की गृहस्थी क्लेश में चल रही थी. उसकी घरवाली चमेली की ज़िद थी की वह उसके बापू की खेतीबाड़ी में हाथ बंटाये. किसी और की चाकरी से तो लाख गुना बेहतर हैं अपने खलिहान! उधर चमेली की माँ अपनी बेटी को भड़काने का कोई अवसर न छोड़ती और इसी बात को लेकर वक्त-बेवक्त दोनों में तनातनी हो जाया करती. चमेली सबसे छोटी बेटी के जन्म से ही अपने मायके में थी. तीन लड़कियाँ पहले ही थीं तो चौथी को देखने में रामभरोसे की कोई रूचि नहीं थी. पिता बनना वैसे ही कौन सा बड़ी बात थी! साल भर हो चला था, न चमेली आई और न रामभरोसे उसे लेने गया. आखिर वह मरद था! और बड़े बुजुर्ग सिखा गये हैं की मरदों को औरतों की दुम बनकर हिलना शोभा नहीं देता! 

एक रात शराब में जी भर लोट लेने के बाद पटवारी ने उसे अपने मोबाइल पर कुछ ऐसा दिखा दिया की लाखी का शरीर तेज गर्म हो गया. उसकी नसें तन गयीं और उसकी नाभि के चारों तरफ एक ज़हरीली सी गुदगुदी उठने लगी. पटवारी की निगाह लाखी पर ही धरी थी. वह आँखें टेढ़ी करते हुए बोला-

‘भाई तेरे पास तो जोरू है.. हमें तो सूखे ही काम चलाना पड़ता है. किस्मत का बड़ा धनी है तू लाखी, कसम से तेरी लुगाई एक तरफ और सारी बस्ती की औरतें एक तरफ….’ रामभरोसे ने मुठ्ठी में भींची हुई बीड़ी में एक लंबा सुट्टा भरते हुए कहा. 

यह सुनकर लाखी का दिमाग सटक गया उसने पटवारी की तरफ घनघोर गुस्से से देखा. नशे में धुत्त लाखी ने उसका गमछा पकड़ा ही था की रामभरोसे ने स्थिति को भांप लिया. उसने बगैर एक भी क्षण गंवाए अपनी बात का रुख दूसरी तरफ मोड़ दिया.

‘परे हट! यह जोर आजमाईश उस रंडवे पर करना जिसकी नजर तेरी लुगाई पर है! कल ही लाख के कंगन मंगवायें हैं उसने ..तेरी सुकमा के लिये’

पटवारी ने बीड़ी बुझाकर खांसते हुए कहा.

‘बकवास मत कर भरोसे! यहीं ज़िंदा गाड दूंगा जमीन में .. …’

लाखी ने अपनी मुठ्ठी भींचते हुये राम भरोसे को धमकी दी. अब पटवारी की बारी थी, वह उल्टा लाखी पर ही चढ़ गया. 

‘अरे भाई! ऐसे कैसे ज़िंदा गाड़ देगा! .. ठेकेदार ने मुझसे ही मंगवाए थे वो कंगन. यकीन नहीं होता तो जा जाकर देख अपने झोपड़े में, तेरे पीछे क्या गुल खिलाये जा रहे हैं.’

‘देख भाई लाखी, बहू बेटियाँ किसी की भी हों बेचारियों की खूब फजीहत होती है. फिर गरीब की मेहरारू पर तो कोई भी आकर हाथ फेर जाता है.’

रामभरोसे ने लाखी का कंधा सहलाते हुए एक तिरछी मुस्कान भरी और बड़ी बेशर्मी से कहा.  

‘सुन भाई! इन मालिकान का तो कोई कुछ नहीं उखाड़ पाएगा .. लेकिन .. तू अपनी मेहरारू को काबू में रख. घर पर औरत अकेली हो तो सब मरदों की लार टपकने लगती है …. समझा! … सुन! तू उसे अपने साथ क्यूँ नहीं ले आता भट्ठे पर, अरे! पथाई में लगेगी तो दो पैसे आयेंगे घर में और घरवाली पर नजर भी रहेगी. वो क्या कहते हैं .. हाँ! एक तीर से दो निशाने सध जायेंगे.’

पटवारी की बातें सुनकर लाखी की कनपटी फटी जा रही थी. उसने पानी से भरा हुआ जग अपने ऊपर पलट लिया. गुस्से से फुफकारता हुआ लाखी खाट की बल्ली को अपने दोनों हाथों में मसोसकर वहीँ बैठा रहा. उसने यह जानकार खून का कड़वा घूँट पी लिया की पटवारी महुआ के जोश में बहक गया होगा और अपनी कपोल कल्पना से कुछ भी बक रहा है.

लेकिन क्या सचमुच लाखी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा था! 

रात इतनी गहरा गयी थी की ठेके की रौनक ठंडी पड़ चुकी थी और झींगुरों की टोली घास के झुरमुटों में दावत की तैयारी कर रही थी. वे दोनों अब भी ठेके के बाहर पड़ी हुई खाट पर बैठे थे. लाखी को जाने क्या सूझी वह खड़ा हुआ उसने खाली हो चुका पव्वा हाथ में लिया और खाट से कोई आठ दस फ़ीट की दूरी पर खड़ा होकर मूतने लगा. जिस सार्वजनिक जगह को उसने अभी साधिकार गीला किया था, वहीँ उसने पव्वे को पटककर दे मारा. काँच के मोटे और बारीक टुकड़े वहां छितर गये. रामभरोसे ने अपनी लड़खड़ाती हुई आवाज़ को तनिक ऊंचा करते हुए लाखी से कहा –   

‘देख तू लाखन है न. और मैं राम … श्री राम? तो नाम के नाते ही सही .. छोटा भाई लगता है तू मेरा. अब बता बड़े भाई की बात तेरी समझ में आई के नहीं!’

‘देख! अपने भाई की एक बात गाँठ बाँध ले तू, ये औरतें जितना जमीन के बाहर दिखती हैं उसका कई गुना जमीन के भीतर धंसी होती है.. साsली.. कमिनीं..’ 

रामभरोसे जो कालकूट लाखी के दिमाग में बो रहा था उसके पीछे का सच यह था की उसकी नीयत सुकमा पर बिगड़ी हुई थी. एक बार रुपयों की इमरजेंसी हो गयी, तो पंचम सेठ ने रामभरोसे को तुरंत आनंदी के पास जाने को कहा. लेकिन उसने पेट दर्द का बहाना लगाते हुए लाखी का नाम सुझा दिया. पंचम ने रुपये सौंपते हुए लाखी को तुरंत आनंदी के यहाँ रवाना किया. उधर लाखी निकला इधर पटवारी ने अकेले पाकर सुकमा का दरवाजा पीट दिया. उसने मीठी मीठी बातों से सुकमा पर डोरे डालने शुरू किये और उसके कंधे दबोचते हुए कहा –

‘मेरी बात मान ले सुक्कू रानी, तुझे सच में रानी बनाकर रखूँगा. देख! उस दिलद्दर लाखी ने तेरा क्या हाल बना दिया है ..बस मुझे खुश कर दे ..जो मांगेगी दूंगा.. मैं तुझे..’

लेकिन इससे पहले की पटवारी अपने मंसूबे पूरे करता या और कुछ कह पाता सुकमा ने एक जोर की लात उसके पेट पर दे डाली.

‘आज तो छोड़ दिया .. पर काली की कसम उठाकर कह रहे हैं जो फिर कभी इस तरफ मुँह  मारा तो सीधे तुम्हारे खेत पे लात पड़ेगी..  कुछ उगाने के काबिल नहीं रह जाओगे…समझे लाला’     

पटवारी अपमान का घूँट पीकर रह गया लेकिन उसने सुकमा के चक्कर लगाना नहीं छोड़ा. जब कई बार फेरे लेने के बाद भी उसकी दाल नहीं गली तो आज ठेके पर बैठकर लाखन के कान भर रहा था.

ये शौहर भी कान के बड़े कच्चे होते हैं बात जब औरत के चरित्र की हो तो बेफिजूल की बात को भी मुद्दा बना देते हैं. एक जरा सी चिंगारी को, पुरुषों के भीतर कुंडली मारकर बैठा हुआ मर्द इतना तापता हैं की वह जंगल की भीषण आग बन जाती है और उसमें सब कुछ जलकर राख हो जाता है.

4

मिट्टी में पसरी उदासीनता को कोई अदृश्य कोयल अपने राग से भर रही थी. अरसे बाद सुकमा की चाल में आज वही मृगछौना सी लोच थी. उसने मानो पराग धारण कर लिया था.

वह कुछ गुनगुनाते हुए चली आ रही थी, जानो उसका कंठ काकपाली का ही अनुकरण कर रहा हो. सुबह अबेर बस्ती की औरतें ट्यूबवेल से पानी भर रही थीं वहाँ पहुंचकर जब उसने बाकी औरतों को देखा, तो वह झेंप गयी. उसके मन का मौसम वहीँ ठहर गया. सुकमा जब पानी भर चुकी थी तो बिरवा ने नल के नीचे अपनी टोकनी सरका दी. आज बिरवा ने उसे टोक ही दिया.

‘कई दिनों से देख रही हूँ! तेरे मुँह में ये ताला क्यूँ लगा हुआ है .. लाखी से झगड़ा हुआ का?’

‘उसे अपना ही होश नहीं रहता..’ सुकमा ने रूखेपन से जवाब दिया. उसकी आँखों में उतरा हुआ वसंत फिर कहीं खो गया.

‘फिर का हुआ? लेकिन सुकमा चुप रही.

‘अरी अब बता भी दे.. ज्यादा नखरा न कर..’ 

बहोत न-नुकुर के बाद सुकमा ने पटवारी के बार-बार घर आ धमकने वाली बात बता ही दी.

‘राम राखी.. अब समझी.. तू इतने दिनों से काम पर क्यों न आ रही.’

‘सुन! उस दिन संझा गये पंचम रंडवा भी आया था, देखा था मैंने..सब ठीक है न?’

‘हाँ’ सुकमा ने बस इतना ही कहा.

‘तूने लाखी को बताई जे बात की उसकी गैर हाज़िरी में वो नासपीटा पटवारी आया था!’

‘नहीं’ सुकमा ने जैसे हाँ और न में जवाब देने की कसम खा रखी थी.   

‘अपने भाग्य से क्यों लड़ रही सुकमा! काम पर आ जा। ऐसे घर में पड़े पड़े तो गल जायेगी। पेट से थी तब पटवारी का बिस्तर गर्म करना पड़ा। हरामखोर ने खूब रगड़ा..बास मार रही थी कुत्ते के शरीर से। जो न करती तो बिरजू के बापू ने अपनी बहन के ब्याह में जो कर्ज लिया था, उसे न चुका पाने के एवज में जेल चला जाता मेरा मरद। यहाँ तो हर औरत की एक सी कहानी है बहन, तू कब तक बचेगी!’

सुकमा चुपचाप ऐसे सुन रही थी जैसे उसे कोई फ़र्क ही न पड़ा हो, मानो वह कोई पुरानी कहानी फिर से सुन रही थी.   

‘हम जैसी औरतों के यही भाग हैं की हम चुपचाप मरती जाती हैं, उनकी सोच जिन्हें मारकर खेतों में फेंक दिया जाता है। कौन हरामजादा किया ..  कभी पता भी नहीं पड़ता।..रोमी याद है तुझे! वही बिलिया काकी की सबसे छोटी मोड़ी..’

सुकमा ने आवाज़ को गले में ही दबाकर बहोत धीमे से कहा – ‘हाँ’.

दरअसल सुकमा के दिमाग में कुछ और ही नृत्य कर रहा था। अतीत के सन्दर्भ खंगालने की अभी उसकी कोई कामना नहीं थी. उसकी चेतना की परिधि पर कोई और ठहरा हुआ था. 

सुकमा की अनमनाहट देखकर बिरवा ने और कुछ नहीं कहा. दोनों पानी का बर्तन कमर पर  उठाये वहाँ से चल पड़ीं.   

5

सप्ताह भर बीत चुका था लाखी ने सुकमा से कुछ न पूछा. पटवारी महुआ की तलब उठाकर लाखी को ठेके तक खींच कर ले गया. रात अँधेर फाग गुनगुनाते हुए आज फिर, वह घर की देहरी पर खड़ा था. उसने छप्पर का मुंह उठाकर देखा तो भीतर तिकोने जंगले में छोटी सी डिबिया जल रही थी. रोशनदान का अहसास देती यह जगह पूरी तरह कालिख से भरी हुई थी. ऐसे लगता था जैसे किसी ने ईंटों की रुखी दीवार को सपाट सिल्क काले रंग से पोत दिया हो. गरीबों के घर में रंगाई-पुताई नहीं होती उनका अभागा घर तो चूल्हे की आग या डिबिया की रोशनाई से ही पुत जाता है. फिर यह घर नहीं बस ईंटों का झोपड़ा था.  

                 सुकमा बेसुध सोयी हुई थी उसे अपने मर्द के आने का कोई इल्म नहीं था. जिस खाट पर वह सोयी थी उसके बान उधड़े हुए थे, लकड़ी का उसका एक पाया भी अंगुल भर चिरा हुआ था. दोपहर बाद से सुकमा की देह में एक मीठी सी थकावट दौड़ रही थी. उसका शरीर पसीने में तरबतर था. लेकिन रोज बेचैनी पैदा करने वाली पसीने की बूंदों ने आज उसकी उदासी को धुल दिया था. उसका शरीर टूट रहा था लेकिन उसकी ठहरी हुई धड़कनों में गति थी. मौसम और साँसों का मरासिम बहुत पुराना है. फिर मन की गति तो पतझड़ से भी वसंत को निथार लेती है.

लाखन ने सुकमा की नींद में खलल नहीं किया. चुपचाप ही उसने अपने लिये भात साना, सिलबट्टे से छटांक भर चटनी ली और दोनों पैर मोड़कर चूल्हे के पास बैठ गया .  . वह किसी उधेड़बुन में था .. अभी दो चार कौर ही खाए थे उसने फिर मालूम नहीं क्या हुआ वह उठ गया.

          उसने सुकमा की तरफ देखा और बगैर आवाज़ किये उस खाली पड़े झोपड़े में कुछ ढूँढने लगा. जो भी बर्तन-भांडे थे उसने सब उठाकर देख लिये. फ़िलहाल उसके हाथ में प्लास्टिक का मैला कुचला डब्बा था जिसमें कोई आध पाव शक्कर और एक बीस का नोट भी था. उसने नोट को अलट पलट कर देखा और बुझे हुए चूल्हे के पास ही फेंक दिया. फिर उसकी नजर ऊपर की तरफ गयी. उस झोपड़े में एक नाम भर की टाट थी जहाँ कपड़ो की एक छोटी सी गठरी बंदी हुई पड़ी थी. उसने पास ही पड़े एक पुराने तसले पर पैर रखा खुद को थोड़ा उचकाया और कपड़ों की वह गठरी उतार ली . उसने गठरी को टटोला लेकिन उसमें उसे कपड़ों के अलावा कुछ न मिला. गठरी में ही लाल हरे रंग की एक साड़ी थी जिसे सुकमा ब्याह के वक़्त पहनकर आई थी. लाखी ने थोड़ी देर उस साड़ी को अपनी दोनों मुठ्ठियों में भींचे रखा और फिर विरक्ति से धकेलते हुए ठंडे चूल्हे में झोंक दिया.   

           लाखी खाट पर औंधे मुँह पड़ी सुकमा की तरफ बढ़ा. जब उसने सुकमा के शरीर को पूरी एहतियात के साथ अपनी तरफ किया, तो उसका बायाँ हाथ खाट से नीचे झूल गया. लाखी हतप्रभ सा उसके हाथ देखने लगा जिनमें लाख के जड़े हुए कंगन इतरा रहे थे. जब और न देखा गया तो वह वहीं, जमीन पर अपना सिर पकड़ कर बैठ गया. उसे लगा, जैसे उसकी सारी पूँजी किसी ने लूट ली हो.

दिमाग में मच्छर की तरह भिनभिना रहे हजारों प्रश्नों के बीच उसे याद आया की वह नीच तो अपनी मेहरारू को कभी कोई उपहार भी न दे सका. लगन के वक्त बापू के आसरे जुगाड़ कर बस एक जोड़ा चाँदी की बिछिया ही दे सका था. इस दौरान न तो वह सुकमा की गोद भर सका और न ही उसे कपड़े-लत्ते का सुख दे सका. एकबारगी उसे लगा जैसे सुकमा का यौवन ईंट के भट्टों में सुलगकर रह गया था. लेकिन अगले ही क्षण उसके भीतर से एक आवाज़ आई ‘तो क्या हुआ! औरत को हर हाल में, अपने मरद के साथ दो फांके खाकर भी खुश रहना चाहिए. .. घरवाली के शरीर पर केवल उसके मरद का अधिकार है..!’

‘ ..छिनाल कहीं की.. ’ लाखी ने सुकमा के हाथों में लटके हुए कंगन को देखते हुए बदहवासी में कहा.     

क्षण भर बाद लाखी उठ खड़ा हुआ, पसीने में डूबा उसका शरीर निदाघ हो गया था. जैसे किसी ने उसे भट्ठे में झोंक दिया हो. उसने सुकमा के दोनों हाथ अपने हाथों में भींचे और किसी बला की तरह उसके शरीर को जकड़ लिया. सुकमा की आँख खुली उसने देखा लाखी उसके ऊपर चढ़ा हुआ था .. उसकी आँखें सुर्ख लाल थीं. सुकमा बस इतना ही समझ सकी की आज लाखी ने ज्यादा गटक ली है. उसने लाखी को एक झटका देकर अपने ऊपर से हटाया –

‘कभी तो बगैर पव्वा चढ़ाए पाँव धर लिया कर चौखट पर! परे हट! और कुछ खा ले नहीं तो रात भर पेट में गोटे देकर ऊंघता रहेगा ..मेरा शरीर दुःख रहा है ..सोने दे.’

इतना कहकर सुकमा ने दूसरी तरफ मुंह फेर लिया और फिर से आँख मूँद ली.  

6

भोर हो चुकी थी किसी के चूल्हे से धुँआ उठ रहा था तो कोई काम पर जाने की तैयारी कर रहा था. पड़ोस का छः साल का बिरजू साइकिल के टायर पर अपना डंडा घुमा रहा था. खेलते हुए उसके टायर की लय बिगड़ी और वह धड़धड़ाकर घूमता हुआ थोड़ी दूर जाकर गिर गया. बिरजू ने टायर को उठाने के लिये जल्दी जल्दी तीन चार टप्पे मारे. टायर उठाने के लिये वह जैसे ही आगे बढ़ा उसने देखा लाखी अपने झोपड़े की देहरी पर गिरा हुआ पड़ा था. उसके के मुंह से सफ़ेद झाग निकल रहे थे. बिरजू ने का s s का कहकर उसे हिलाया, लेकिन लाखी में कोई हरकत नहीं हुई. उसने झटपट अपना टायर उठाया और घर की तरफ दौड़ लगा दी. झोपड़ेनुमा घर में जब वह भीतर पहुंचा तो उसकी माई ने स्टील के गिलास में चाय छानकर रखी हुई थी.

‘बापू अभी तम्बाकू फाँक रहा है तब तक जल्दी से खा ले.’ यह कहते हुए बिरवा ने उसके हाथ में रात की नमक लगी बासी रोटी और चाय का गिलास थमा दिया.

‘कहाँ आवारागर्दी कर रहा था सुबह सुबह..!’

‘सुन मोड़ा! बापू के साथ जाना है समझा! मास्साब कहलवा भेजे हैं दाखिला के लिये, आज ही से कॉपी किताब चालू हो जायेगी. और सुन मास्साब जो कहें ध्यान लगाकर सुनना ..खबरदार! जो सबक सीखने में जरा भी आनाकानी की. इत्ता पईसा तो नइ है हमारे पास की चढ़ावा देकर पास करवा लें. . . पाई पाई जोड़कर इकठ्ठा किये हैं, दो हरफ पढ़-लिख ले नहीं तो ईंट के भट्टे में झुलसना पड़ेगा हमाई तरह.’

साड़ी का पल्लू अपने कानों के पीछे खोंसते हुए बिरवा ने गज भर का ज्ञान बघारा. उसने पीले रंग की सूती साड़ी पहनी हुई थी जिसका बार्डर किनारों पर कई जगह से चिरा हुआ था. चूल्हे पर रखी हंडिया में आलू की तरकारी पक रही थी जिसे वह बीच बीच में चलाती जा रही थी. 

‘हांफ क्यूँ रहा है!’ बिरवा ने चूल्हे में फूंकनी मारते हुए कहा.    

अब कहीं जाकर बालक को बोलने का मौका मिला था. उसने चाय का गिलास जमीन पर रखा और बिरवा के कान से अपना मुंह सटाकर बोला – ‘अम्मा सुकमा का आदमी बाहर सो रहा है उसके मुंह से.. सफ़ेद पानी छूट रहा है.. जैसा कपड़ों से छूटता है जब तुम धोती हो.’

‘तुझे कितनी बार कहा है रे काका काकी कहा कर लाखी और सुकमा को .. तुझे बुझाता क्यूँ नहीं! सुकमा नहीं है क्या वहां … बोल ना!’ बिरवा ने उसे झंझोड़ कर पूछा.

‘तू भी किसकी बातों में आ रही है.’ बापू ने हँसते हुए कहा.

बिरवा ने अपने पल्लू के सहारे गर्म हांडी पकड़ी और झट से उसे चूल्हे से उतार नीचे धर दिया. हांडी रखते ही वह तेजी से बाहर निकली और लाखी के झोपड़े की तरफ बढ़ी. अभी बीस कदम ही चली होगी की उसका गला आँतों तक सूख गया. वह पूरी ताकत से चिल्ला उठी – 

‘हाय रे! बिरजू के बापू! जल्दी आओ देखो तो लाखी के मुंह से झाग निकल रहा है. कोई साँप-वाँप तो नहीं काट लिया! बिरजू के बा s पू ….’ इतना कहकर बिरवा वहीं जमीन पर बैठ गयी. उसने अपने दोनों हाथ घुटनों पर टिकाये और अपना माथा पीट लिया. 

पत्नी की चीख सुनकर हथेली पर तम्बाकू मलता हुआ टीकम जल्दी से बाहर आया और जहाँ बिरवा बैठी थी उस तरफ दौड़ा. पहले उसने बिरवा की तरफ देखा और फिर लाखी की तरफ.  

‘अरे! लाखी.. ओ लाखी क्या हुआ रे! सुन रहा है भाई! लाखी …’

‘अरी! करमजली जा भीतर जाकर सुकमा को बुला.’ टीकम ने अपनी जोरू की तरफ देखते हुए कहा. 

बिरवा झटके से उठी और झोपड़ी के भीतर घुस गयी. भीतर आते ही वह सुन्न पड़ गयी. इस बार उसकी चीख भी न निकल सकी. बाहर टीकम उसके इंतज़ार में आधा हुआ जा रहा था.

‘अरी बिरवा तुझे सुकमा को बुलाने भेजा था. तुझे भी साँप सूंघ गया क्या? बिरवा .. बिरवा .. कहाँ मर गयी कमबख्त ..’

शोर सुनकर बस्ती के बाकी लोग भी वहाँ इकठ्ठा हो चुके थे. भिनभिनाती हुई मक्खियों की तरह उनकी आवाजें आ रही थीं. आठ दस लोगों का हुजूम देखकर टीकम ने लाखी को वहीँ छोड़ा और बिरवा को आवाज़ लगाते हुए वह झोपड़ी के भीतर घुसा. 

‘अरी बिरवा तुम सब लुगाइयां एक ही थाली की …चट्टी …ब ..’ इतना कहकर टीकम की आवाज़ उसके गले में ही अटक गयी और उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं. खाट के ऊपर नीचे सब तरफ खून बिखरा पड़ा था. सुकमा की देह में कोई हरकत नहीं थी. उसकी आँखें आडू की गुठली की तरह बाहर निकली हुई थीं और उसका सिर फटे हुए अमरुद की तरह पिचका  पड़ा था. उसकी खोपड़ी का कचूमर निकल गया था और उसके बाल खून में भीगे हुए थे. दोनों में से किसी की हिम्मत नहीं हुई की उसे छूकर देख ले कि वह ज़िंदा भी है या की मर चुकी .

थोड़ी ही देर में यह खबर जंगल की आग की तरह फ़ैल गयी. किसी ने पुलिस को खबर कर दी. जब पुलिस घटनास्थल पर पहुंची तो वहां बहोत से लोग जमा थे. बाहर देहरी पर लाखी की लाश पड़ी थी और भीतर खाट पर खून से लथपथ सुकमा. अन्दर चूल्हे के भीतर राख से सनी हुई एक साड़ी पड़ी हुई थी और चौक पर सब तरफ शक्कर के दाने बिखरे पड़े थे. चूल्हे के पास ही बीस का फटा हुआ नोट भी था. सिलबट्टे पर सूखी हुई चटनी पड़ी थी और एक थाली में बचा खुचा भात था जिस पर मक्खियाँ भिनक रही थीं. पुलिस ने खाने में जहर मिला होने की आशंका जताई लेकिन ऐसा किसने किया यह बात अब तक एक उलझी हुई गुत्थी ही थी. पुलिस बहादुर ने मौके पर से खून से सना हुआ हथौड़ा बरामद किया जिसकी लोहे की फाँक पर गणेश बने हुए थे और रामभरोसे का नाम लिखा हुआ था. दरोगा ने रामभरोसे को भी बुलवा भेजा.

7

रामभरोसे पंचम के साथ बैठा चाय पी रहा था. आज कोई विशेष अवसर तो नहीं था फिर भी पंचम ने काले रंग की नेहरु जैकेट पहनी हुई थी, उसके बाल रंगे हुए थे जिसमें वह खूब फब रहा था.

‘सोच रहा हूँ बस्ती में एक डॉक्टर बिठा दिया जाये. धनपत से पूछ ले अब तो तीन चार बरस हो गये उसके लौंडे को डॉक्टरी करते हुये. जो आया तो ठीक नहीं तो अखबार में इश्तिहार दे देना.’ पंचम ने चाय की चुस्की लेते हुये पटवारी से कहा.  

‘फ़ालतू का खर्चा क्यूँ मोल ले रहे हो सेठ .. इन सालों के जीने मरने से किसे फ़र्क पड़ता है! मैं क्या कह रहा था ..’ रामभरोसे अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया कि तभी एक मोटरबाइक वहाँ आकर रुकी.

‘चलिये! हुजुर ने बुलवाया है’ हवलदार ने रामभरोसे की तरफ देखते हुये कहा.

‘क्या हुआ ?’ रामभरोसे ने त्योरियां चढ़ाते हुए पलटवार किया.

‘बस्ती में दो लाशें मिली हैं. मौका-ए-वारदात से तुम्हारा नाम लिखा हथौड़ा भी बरामद हुआ है’

‘हथौड़ा!’

यह सुनकर पटवारी भौचक्का रह गया. हड़बड़ी में उसके हाथ से चाय का कप छूट गया.  

‘किनकी लाश है?’ पटवारी ने हवलदार के दोनों बाजू सख्ती से पकड़ते हुए पूछा.

‘लाखी और सुकमा की’

‘लाs खी.. सुक…मा ..अबे तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या! हथौड़ा तो सप्ताह भर पहले लाखी ले गया था यह कहकर की उसे खाट में कुछ ठोक-पीट करनी है… मैंने कुछ नहीं किया.’

                 यह ख़बर सुनकर पंचम सेठ को काटो तो खून नहीं. वह स्तब्ध था. कल संझा ही, जिस सुकमा के लाज भरे हाथों में उसने कंगन पहनाये थे, आज वह नहीं रही. उफ्फ! कोई उसे कह दे की यह सब झूठ है या वह कोई बुरा सपना देख रहा है. पिछले दो महीने में यह पांचवी बार था जब वह सुकमा से मिला, इन मुलाकातों से पंचम ने सुकमा के मन में एक मुलायम कोना बना लिया था. सुकमा ने उसे बताया था की भट्ठे पर काम करते वक़्त पंचम की निगाहें उस पर रहती थीं, यह बात वह पहले ही दिन से जानती थी. पंचम भी सालों बाद खुद को हरा-भरा महसूस कर रहा था. इस बार जब वह आनंदी से मिलने गया तो उसने अपने बाल भी रंगे थे, बेचारी हर बार कहा करती ‘पापा आपके सिर पर ये सफ़ेद बाल बिलकुल भी अच्छे नहीं लगते मुझे. आपके जाने के बाद ये सतुआ आपका मजाक उड़ाता है.’ सतुआ उसकी मौसी का बेटा सतबीर था. आनंदी अपने पिता में आये हुए इस बदलाव को देखकर बेहद खुश थी.  . 

पंचम की आँखों से आंसू फूट पड़ें इससे पहले ही उसने उन्हें रोक लिया.

जब हवलदार ने रामभरोसे को अपने साथ चलने के लिये कहा तो वह जरुरी काम निपटाकर आने की बात कहने लगा. जब पंचम ने उसे साथ चलने का इशारा किया.

लाखी और सुकमा दोनों की लाशें एक फटी हुई चादर से ढकी हुई झोपड़ी की देहरी पर पड़ी थी. चिथड़े का एक हिस्सा मृत लाखी ने ओढ़ा हुआ था और दूसरा सुकमा ने. वहां पहुंचकर पंचम की मनःस्थिति अजीब सी हो गयी उसे लगा जैसे उसकी चेतना का बड़ा हिस्सा उसका साथ छोड़ रहा हो. इस तरह तो वह अपनी पत्नी का मृत शरीर देखकर भी नहीं जुड़ाया था. कल रात यह झोपड़ी किस भयावह मंजर की गवाह बनी होगी पंचम इसकी कल्पना कर पाने में भी असमर्थ था. वह चुप खड़ा रहा. कहीं किसी सत्संग में सुने हुए शब्द इस वक्त बेफिक्र होकर उसके दिमाग में चहलकदमी कर रहे थे.  

रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पडे गलि जाना है।
यह संसार काँटे की बाड़ी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥

पंचम सेठ को वहां देखकर दारोगा जी उसके पास आये और कुछ कहने लगे. लेकिन पंचम को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. वह वहीँ जमीन पर बैठ गया. दारोगा और भट्टे के बाकी लोग यह सब देख रहे थे लेकिन किसी की हिम्मत नहीं थी की वह पंचम को टोक भी सके. थोड़ी देर बाद पंचम ने अपनी गर्दन उठाकर आस पास नजर घुमाई, उसने टीकम को इशारे से अपने पास बुलाया और उसे पांच सौ के दो नोट देते हुए कहा-

‘इनके अंतिम संस्कार की तैयारी करो. सुकमा की चिता को आग मैं दूंगा’.

टीकम के तो जैसे पैरों तले से जमीन ही खिसक गयी. वहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति हतप्रभ था. एक भी व्यक्ति यह नहीं समझ पा रहा था की वह क्या प्रतिक्रिया दे. रामभरोसे तक को इस बात की भनक नहीं थी की सेठ ऐसा कुछ भी कर सकते हैं. एक तो यह वीभत्स घटना फिर पंचम सेठ का अप्रत्याशित व्यवहार, माहौल कुछ ऐसा था की देखने वालों की जबान हलक में ही अटक गयी, तमाशा देख रहे लोग फुसफुसा भी नहीं पा रहे थे. 

पंचम सेठ देर तक जमीन पर ही बैठा रहा. सुकमा की लाश जमीन पर चित्त पड़ी हुई थी. लाख का कंगन पहने हुए उसके दोनों हाथ चादर से बाहर निकले हुए थे. पंचम जमीन से घिसटकर ही सुकमा के नजदीक गया. पंचम ने उसके दायें हाथ से कंगन निकाला और निढाल होकर वहीँ जमीन पर अपना माथा टेक दिया. धूप अब सिर पर चढ़ आयी थी और सुकमा के बाएं हाथ में पड़े हुए कंगन के नग धूप में छनकर धवल सफ़ेद रोशनी को छिटका रहे थे.    

दारोगा लाश का पंचनामा करने में जुट गया. उसने दबी जबान में पास खड़े हुए हवलदार से कहा- ‘एक औरत के मन की थाह भगवान भी नहीं ले सकता .. लगता है अपने आदमी से खुश नहीं थी ससुरी …’ 


Xx 

Chandrakanta

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  • यह कहानी पढ़कर चकित हूँ। शिवमूर्ति की तिरिया चरित्तर याद आ रही है। कथानक के कारण । लेकिन यह एक रचना पढ़कर एक अच्छी रचना का याद आने भर है। जानना पढ़कर लगा कि वह लोकेल भर नहीं, लोकेल की स्त्रियों का दर्द भी है। इस दर्द के पीछे छिपे हैं पुरुषसत्ताक समाज और पूंजीवादी तथा सामंतवादी शक्ति के दरिंदे चेहरे। कथ्य के स्तर पर यह कहानी औपन्यासिकता लिए है। कभी वह समय पाठक देखेंगे जब चंद्रकांता उपन्यास लिखेंगी। बधाई।

    • आदरणीय महेश जी आपकी प्रतिक्रिया बेहद उत्साहवर्धक है. कहानी को आपका समय देने के लिये आपका आभार.
      जी, उपन्यास पर कार्य जारी है.

  • बहुत दिनोके बाद एक आच्छी कथा पढनेमें आयी।
    सोशल मीडिया में दिनका सारा समय लगा रहता है आजकल। और ऐसेमे ,साहित्यिक रुजान के होते --अच्छी रुची वाली कथा मुश्किलसेही हाथ लगता है।
    ग्रामीण परिवेश और स्त्री का दर्द इन दोनो मुद्देकी बात होती तो शिवमूर्ती जी की याद आ ही जाती है।
    प्रस्तुत कथाका घाट वैसा ही होकर भी , अलग ही लगती है।
    कथा का माहौल, चरित्र पक्ष, घटना क्रम और संपूर्णतया कथा का प्रवाह-सीधा-साधा, वास्तविक मालूम होता है।
    और तो और, बारिकी से देखा जाए तो, लेखिका के पास कहनेको इतनी सारी सामग्री है कि विस्तार के उनके काबिलियत के आसार नजर आते है।
    उम्मीद है कि अपनी लेखनी के बलबूते लेखिका साहित्य की उंचाइया आसानी से छू ले।

    • आपकी बेबाक प्रतिक्रिया के लिए बहुत आभार सर. आपके शब्दों से बहुत ऊर्जावान महसूस कर रही हूँ ..

  • कहानी का शिल्प अद्भुत है।पाठक को अंत तक बांधकर रखता है।कहानी पढकर प्रेमचंद की बरबस ही याद आ जाती है।मानों कहानी को आज के प्रेमचंद ने लिखी हो।पंचम,लाखी और रामभरोसे एक ही सुकमा सरिता के तीन किनारे है,जिसके आसपास अनेक सामाजिक परिस्थितियों की भँवरे उठ रही है।संवाद और कथ्य दोनों ही बहुत अच्छे है।

    • आपने पूरे मनोयोग से यह कथा पढ़ी आभार आपका

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