बहुचर्चित फ़िल्म ‘कांतारा’ में जिस ‘भूत कोला’ संस्कृति को दर्शाया गया है वह दक्षिणी कर्नाटक, उडुपी (दक्षिण-पश्चिम कर्नाटक), और केरल के कुछ क्षेत्रों में पसरी तुलु(नाडु) संस्कृति की अनुष्ठानिक यात्रा है। ‘भूत मंदिर’ यहाँ की संस्कृति का हिस्सा हैं ‘भूत’ अर्थात स्थानीय दैव या पूर्वजों की आत्मा और ‘कोला’ अर्थात प्रदर्शन या नृत्य। भूत कोला आत्माओं का प्रदर्शन(नृत्य) आधारित अनुष्ठान है जहाँ आत्माएं अनुष्ठान के समय ‘बाटा’ में निरूपित होती हैं और गाँव के लोगों को उनकी समस्याओं का समाधान देती हैं। ‘बाटा’ देवता और समाज के मध्य संवाद का वाहक व्यक्ति है जिसकी सामाजिक पृष्ठभूमि तथाकथित निम्न जाति की होती है। पवित्र वस्त्र-आभूषण पहने हुए बाटा देवस्तुति करते हैं। संभवतः इस परम्परा के पीछे जाति के नियत स्थान से अस्थायी मुक्ति का भाव या सामाजिक अन्याय के प्रतिकार का भाव भी होता हो? कुल मिलाकर भूत कोला मानव, प्रकृति और जीवात्मा की एक अनुष्ठानिक प्रणाली है। Buta Kola
मानव, प्रकृति और जीवात्मा को समायोजित करती ‘भूत कोला’ संस्कृति को अन्याय व शोषण के खिलाफ बिगुल की भांति देखा जाना चाहिए। यह उलगुलान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है जो जल-जंगल-जमीन पर स्वाधिकार की पैरवी करता है। ‘कांतारा’ समाज की मुख्यधारा से विस्थापित कर दिए गए वर्ग द्वारा सामाजिक न्याय के लिए चीत्कार भी है। ‘कांतारा’ निःसंदेह एक अलग और अच्छा सिनेमा है लेकिन कुछ और पक्ष भी जान लेने चाहिए-
सिनेमा की गूढ़ समझ रखने वाले जानते होंगे कि सिनेमा अपनी निर्धारित भूमिका में सामाजिक अन्याय का एक पक्षकार है। अक्सर, वह महिलाओं की सत्तात्मक भूमिका को नजरअंदाज करता है और ‘कांतारा’ भी इसका अपवाद नहीं है। फिल्म का एक दृश्य है जहाँ नायक की जीवनसंगिनी को अपनी सरकारी नौकरी निभाते हुए गाँववालों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करनी पड़ती है। नौकरी की पहली कार्यवाही है, नायिका खिन्न है लेकिन अधिकारी का आदेश नहीं टाल सकती। इसके एवज में नायक शिवा नायिका को लात मारता है। 10/10 रेटिंग वाली कांतारा के इस पहलू पर हमने अभी तक आपत्ति नहीं देखी। हालाँकि फ़िल्म का प्रभाव ही ऐसा है कि खामियों पर यह आपको सोचने का अवसर नहीं देती। फिर भी हमारे भीतर बैठा संजीदा दर्शक इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि इस फिल्म में ‘शक्ति का समस्त आयोजन पुरुषों के संदर्भ में’ किया गया है, महिलाओं की भूमिका न तो नायकत्व लिए हुए है न प्रभावी है। Kantara Movie
तुलु संस्कृति में भूत कोला अनुष्ठान के समय स्थानीय देव पूजा की रसद तैयार करना, बाटा का शृंगार व वस्त्र तैयार करना और मिथकीय लोक आख्यानों की स्तुति करने की भूमिका महिलाओं की होती है। फिल्म की वैभवशाली अनुष्ठानिक यात्रा में इसे नजरअंदाज कर दिया गया है जबकि फिल्म की समय अवधि और मध्य भाग के अनावश्यक विस्तार के बीच इसे समायोजित किए जाने की पूरी संभावना थी। फ़िल्म का मध्य भाग अनावश्यक रूप से खिंचा हुआ लगा। हमें इतना अधिक पुनरावृति परक लग रहा था कि सिनेमा छोड़कर जाने का मन हो रहा था। किन्तु, अच्छा हुआ नहीं गए अन्यथा क्लाइमेक्स के जादू से वंचित रह जाते। फ़िल्म का वास्तविक नायक इसका क्लाइमेक्स है। रोंगटे खड़े कर देने वाला। मन और आत्मा पर निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ जैसा प्रभाव छोड़ने वाला। और फिल्म का पार्श्व संगीत उसकी ध्वनियाँ तो आपको किसी और ही लोक में ले जाती हैं। कांतारा जंगलों को मुक्त करता है तो फिल्म का संगीत आपकी आत्मा को, ऐसे जैसे आपकी इन्द्रियाँ लोक उत्सव में घुल-मिल गई हों एक इंद्री घटम बन गई हो दूसरी नादस्वरम तीसरी मृदंगम..वीणा।
इस फिल्म को लेकर एक विवाद यह भी है कि ‘भूत कोला’ हिंदू संस्कृति का मौलिक अंग है या नहीं! इस संदर्भ में भी ‘भूत संस्कृति’ के कई रहस्य हैं। विष्णु के वराह अवतार, परशुराम, नागपूजा हिंदू और जैन संस्कृति ‘भूत कोला’ से किस तरह जुड़ी हैं उस पर अगले अंकों में बात की जाएगी 🙂
…जारी…
नोट: यदि किसी जानकारी पर आपको आपत्ति है तो कृपया निःसंकोच सूचित कीजिए। जिन्हें भारत की ‘भूत संस्कृति’ में रूचि है उन्हें नई दिल्ली स्थित शिल्प संग्राहलय से भी इसकी जानकारी मिल सकती है।
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