मालूम नहीं आपमें से कितने लोगों नें शूजित सरकार की फिल्म ‘अक्टूबर’ देखी, संजीदा सिनेमा देखने का मन है तो यह फिल्म जरूर देखिये. पूरी फिल्म में एक बार भी ‘आई लव यू’ जैसे स्टेटमेंट का इस्तेमाल नहीं किया गया है, न ही यह कोई ‘रोमांटिक ड्रामा’ है लेकिन फिर भी अपनी बुनावट में प्रेम की चाशनी से भीजी हुई है यह फिल्म. वरुण धवन एक औसत अभिनेता हैं लेकिन ‘बदलापुर’ के बाद एक बार फिर से क्या कमाल का किरदार निभाया है उन्होंने. जिस तरह संजू में राजकुमार हिरानी ने रणबीर कपूर से उनका बेहतरीन निकलवाया है ऐसे ही शूजित सरकार नें वरुण धवन से उनका श्रेष्ठ काम लिया है .
डैन एक 21-22 साल का युवा है उसका किरदार वसंत के मौसम की तरह है चंचल, अल्हड, ..बेफिक्र .. कुछ-कुछ लापरवाह सा. डैन की जिन्दगी जिस तरह चल रही है वह उससे बहोत खुश नहीं दिखता अपने काम को लेकर एक किस्म की चिढ है उसमें. फिल्म की नायिका शिउली एक संजीदा और गंभीर लडकी है शिउली से डैन का परिचय केवल इतना है की दोनों दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में इंटर्नशिप कर रहे हैं और उन्ही के साथ में काम करने वाली एक लड़की शिउली और डैन दोनों की अच्छी दोस्त है.
नए साल पर होने वाली पार्टी की रात शिउली होटल की छत (रेलिंग) से नीचे गिर जाती है और कोमा में चली जाती है. डैन उस दिन पार्टी में नहीं होता. अचानक डैन को मालूम होता है की दुर्घटना की रात शिउली ने आखिरी बार जब बात की तब पूछा था – ‘डैन कहाँ है ?’ .बस यहीं से डैन के मन में एक अजीब हलचल शुरू हो जाती है की आखिर उसने ऐसा क्यूँ पूछा ! वह बार-बार शिउली से मिलने हॉस्पिटल जाता है और धीरे-धीरे ऐसा करना उसकी दिनचर्या का सबसे अहम् हिस्सा हो जाता है.
दुर्घटना के बाद शिउली एक ऐसी दुनिया का हिस्सा बन जाती है जिसमें कोई हरकत नहीं है कोई गति नहीं है लेकिन जीवन है; नायक के लिए कुछ अनकही अभिव्यक्तियां है, प्रेम के अहसास का साझापन और उसकी सहमति है. नायिका की इस अभिव्यक्ति को घनीभूत करती है नायक की संवेदनाएं, डैन जिस संजीदगी से शिउली की देखभाल करता है वह तहजीब आपको भीतर तक झंकृत कर देगी. इस भूमिका के इतने रंग हैं की आपको डैन के किरदार से प्यार हो जाएगा .
एक बात पूरी ईमानदारी से कहें तो हमारे शब्द सीमित हैं इस फिल्म का चरित्र आपके सामने रखने के लिए हमारे पास उपयुक्त अल्फाज़ हैं ही नहीं. इस फिल्म की ख़ूबसूरती इसकी सहजता और उस सहजता की अभिव्यक्ति में है. आप इस फिल्म को महसूस कीजिये और इसके किरदार आपके हो जाएंगे नहीं तो यह आपको बोझिल भी लग सकती है. यह फिल्म ख़ुशी-उदासी, अल्हड़ता और संवेदनाओं से बुने हुए कुछ पलों का एक खूबसूरत गुलदस्ता है. फिल्म में खुशबू है.. सांस है.. अहसास हैं कुल मिलाकर ‘अक्टूबर एक धड़कती हुई फिल्म है’ .
फिल्म में शिउली के रूपक का प्रयोग कई बार किया गया है. नायिका को शिउली के फूल बेहद पसंद हैं. बंगाल में ‘रात की रानी’ या पारिजात ( हरसिंगार) के फूल को शेफाली या शिउली कहा जाता है. इन फूलों की खुशबू बेहद मनभावन होती है ये रात में खिलते हैं और सूर्योदय से पहले झड़ जाते हैं. शिउली के फूलों का मौसम जुलाई के अंत से अक्टूबर तक बेहद कम समय के लिए ही रहता है.
हमारे लिए यह फिल्म इसलिए भी ख़ास है क्यूंकि ‘रात की रानी’ के फूल हमारे रे जीवन में भी एक किरदार रहे हैं हमें भी उनके रंग से और उनकी खुशबू से प्यार है.
फिल्म में नायिका का नाम भी शिउली (shiuli) है जिसे बनिता संधू ने अभिनीत किया है. बनिता संधू के संवाद कम हैं लेकिन उन्होंने अपनी भूमिका बखूबी निभाई है. मौन में उनकी अभिव्यक्ति बेहद परिपक्व है. उनका मौन कुछ इस तरह है जैसे होंठों से कोई गीत उतारकर पलकों पर सजा दिया गया हो. शिउली की माँ का किरदार करने वाली गीतांजली राव का अभिनय भी अच्छा है.
फिल्म के कई संवाद इतने जहीन हैं की सीधे आपके दिल में उतर जाएंगे. फिल्म के एक संवाद में नायक लगभग कोमा की स्थिति में पड़ी हुई नायिका से कहता है – ‘आई एम सॉरी, अब नहीं जाऊँगा’. बगैर शब्दों के नायक का नायिका के मन की बात समझ जाना यही प्रेम है. सबसे ऊंची छोटी पर जाकर प्रेम प्रेम चिल्लाना प्रेम नहीं है. प्रेम को अल्फ़ाज़ों की बैसाखी की जरूरत नहीं होती. प्रेम निबाह का नाम है वाचिक अय्याशी का नहीं.
जूही चतुर्वेदी ने एक बेहतरीन पटकथा लिखी है सनद रहे की उन्हें शूजित सरकार की ही फिल्म ‘पीकू’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार (सर्वश्रेष्ठ मूल पटकथा व संवाद) भी मिल चुका है.
अविक मुखोपाध्याय का छायांकन बेहद प्रभावशाली है हमारी नजर में यही फिल्म का स्क्रीनप्ले भी है इसलिए फिल्म बोलती कम है और कहती अधिक है. उन्होंने दिल्ली को इतने खूबसूरत फ्रेम में उतारा है की वह कहीं से भी भीड़-भाड़ वाला शुष्क महानगर नहीं लगती. शांतनु मोइत्रा का पार्श्व संगीत सुखद है. ऐसा सिनेमा जहाँ संवाद कम होते हैं और छायांकन या पार्श्व संगीत के माध्यम से फिल्म अधिक बोलती है वहां सम्पादक को और भी बारीकी से कूची चलानी होती है इस काम को फिल्म के संपादक चंद्रशेखर प्रजापति ने बखूबी निभाया है. इसलिए फिल्म कहीं से भी बिखरी हुई नहीं लगती.
अक्टूबर एक ऐसी फिल्म है जिसमें जीवन की खूबसूरती और उदासी दोनों को संजीदगी से बुना गया है. फिल्म का एक प्रसंग है जहाँ कोमा से नायिका के शरीर में कोई हरकत नहीं है उस वक्त नायक मुट्ठी भर शिउली के फूल उसके बिस्तर के पास रख देता है संजोग कहिये या सच शिउली का शरीर फूलों की खुशबू पर अपनी प्रतिक्रिया देता है. शिउली के साथ हुई दुर्घटना को जिस तरीके से बुना गया है वह कही से भी अवसाद नहीं लाती.
अक्टूबर एक अलहदा कहानी है, डिटेलिंग की वजह से इस कहानी की परदे पर प्रस्तुति और अधिक शानदार है. फिल्म की कहानी, छायांकन, पार्श्व संगीत, संपादन और अभिनय सब कुछ एक लय में है संगीत के सात सुरों की तरह. फिल्म में कहीं भी बिखराव नहीं है. काफी लोगों नें फिल्म के धीमे होने को लेकर आपत्ति की है लेकिन हमें किसी भी खंड में यह फिल्म धीमी नहीं लगी. हाँ, फेसबुक और वाट्स एप की रफ़्तार से जीवन जीने वाले लोगों को जरुर यह फिल्म धीमी लग सकती है. ‘अक्टूबर’ और ‘तुम्हारी सूलू’ इस साल की उम्दा फ़िल्में है आपको देखनी चाहिए. कुल मिलाकर ‘अक्टूबर’ शिउली के फूलों की तरह ही बरसों तलक आपके जेहन में महकती रहेगी .
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