पद्मावत सिनेमा के लिहाज़ से एक सस्ती और कमजोर फिल्म है . फिल्म एक भव्य कैनवास पर बनाई गयी है फिल्म की पृष्ठभूमि राजस्थान है लेकिन राजस्थान की खुशबू मिसिंग है .न फिल्म के किरदारों की भाषा-बोली में राजस्थानी सुगंध हा न ही उस परिवेश के बनिस्बत संवाद अदायगी का शहूर। फिल्म की शुरुआत सिंहलद्वीप ( श्रीलंका ) के अद्भुत परिवेश से आरम्भ होती है जहाँ चितौड़ ( राजस्थान ) के राजा रत्नसेन और सिंहल की राजकुमारी पद्मावती में प्रेम हो जाता है जिसकी परिणिति विवाह में होती है .
पद्मावती रत्नसेन के साथ चितौड़ आ जाती है . चितौड़ में मिलन की प्रथम रात रावल और पद्मावती जब अंतरंग हो रहे होते हैं उस वक्त शाही पुजारी राघव चेतन छिपकर उन्हें देखता है किन्तु पकड़ा जाता है. रावल रत्नसेन उसे इस अपराध के दंडस्वरूप राज्य से निकाल देते हैं. राघव चेतन आवेश में आकर दिल्ली की और रुख करता है और पद्मावती की सुंदरता के बारे में अलाउद्दीन खिलजी को सूचित करता है। अलाउद्दीन चितौड़ पर डेरा डाल लेता है और कई प्रसंगों से होते हुए फिल्म आगे बढती है. अलाउद्दीन के हाथों रत्नसेन मारे जाते हैं इसकी सूचना पाकर रानी पद्मावती हजारों औरतों के साथ सामूहिक जौहर कर लेती हैं.
इंटरवल आते तक लगा बस फ़िल्म खत्म होने को है, इसके बाद फिल्म बोझिल होने लगी. कम से कम हमें रावल रत्नसेन और रानी पद्मावती के प्रेम में वह गहराई नहीं दिखाई दी जो कथा के अनुरूप अपेक्षित थी . दीपिका और शाहिद की केमिस्ट्री जंची नहीं. फिल्म रत्नसेन की बड़ी रानी नागमती और नागमती के रत्नसेन व पद्मावती से सम्बंधों की गहराई या उतार- चढ़ाव पर मौन है। ‘बाजीराव मस्तानी’ में किरदारों का यह पक्ष काफी ठोस है . फिल्म ‘पद्मावत’ की लंबाई इतनी अधिक है कि इसमें राजपूत वीर बादल और गौरा के किरदारों को भी एक बड़ा फ्रेम दिया जा सकता था। यह सब तो छोड़िये फिल्मकार नें रत्नसेन और पदमावती के प्रेम को विस्तार देना भी जरूरी नहीं समझा।
क्लाईमेक्स के जौहर के दृश्य को छोड़ दें तो कहीं भी पदमावती का चरित्र अन्य पात्रों पर हावी होता नहीं दिखा। मलिक काफ़ूर की भूमिका में जिम सर्ब ( Jim Sarbh ) सबसे अधिक जँचे हैं। भंसाली या तो अति रचनात्मकता से जूझ रहे हैं या उन्होंने रचनात्मक होने की कोशिश नहीं की। रावल रत्नसेन एक कमजोर किरदार है सच कहें तो शाहिद कहीं से भी उस भूमिका में जँचे ही नहीं। उनका शारीरिक सौष्ठव और अभिनय दोनों ही कमजोर रहा। जबकि शहीद ने कई फिल्मों में औसत से अच्छा अभिनय किया है ‘हैदर’ इस लिहाज़ से एक शानदार फिल्म है .
फिल्म के संवाद भी भंसाली की बाकी फिल्मों की अपेक्षा काफी कमजोर हैं। दीपिका और रणवीर दोनों नें फ़िल्म की ऐतिहासिक भूमिकाओं से समझौता करते हुए खुद को रिपीट किया है। रणवीर संवाद अदायगी करते हुए ख़िलजी कम बाजीराव का सस्ता वर्जन अधिक लगे हैं। उन पर फिल्माया गया एक गीत ‘खलीबली’ लहजे में ( करियोग्राफी ) लगभग बाजीराव के ‘मल्लहारी’ गीत की कॉपी भर है। पूरी फ़िल्म खिलजी के किरदार के इर्द-गिर्द चलती है . बेहतर होता भंसाली फ़िल्म का नाम ‘ख़िलजी’ रखते।
फ़िल्म में कहीं भी ऐसा दृश्य नहीं है जिससे यह तसल्ली हो कि ख़िलजी बगैर देखे क्यों रानी पदमावती को पाने के लिए युद्ध के लिये आतुर हो उठा। न युद्ध के दृश्य प्रभावी हैं न ही इतनी भव्य फ़िल्म के हिसाब से कसा हुआ स्क्रीनप्ले। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार पदमावती सिंहल द्वीप की राजकुमारी थीं फ़िल्म में किसी एक दृश्य में भी निर्देशक ने यह दिखाना जरूरी नहीं समझा कि कब और किन स्थितियों में उन्होंने राजपूताना रवायतों को सीखा। चितौड़ आगमन के अगले ही दिन एक सधी हुई राजपूत स्त्री की तरह घूमर करना कुछ समझ में नहीं आया। भंसाली के सेट हमेशा से भव्य और शानदार रहे हैं लेकिन पदमावत में यह पक्ष भी कमजोर है और कहीं कहीं भव्य सेट फिल्म ‘बाहुबली’ की कॉपी अधिक है. कई दृश्य जैसे दिवाली का प्रसंग और देवगिरी की रानी का प्रसंग अनावश्यक और ठूंसा हुआ अधिक लगा .
पद्मावत का सबसे ख़तरनाक और बेहूदा भाग है क्लाइमेक्स में जौहर का महिमामंडन । मालूम नहीं यह कौन-सी विचारधारा हावी हो रही है बॉलीवुड पर… पहले ‘बेगम जान’ और अब ‘पद्मावत’!
निर्देशक नें जौहर के दृश्य को बेहद विशाल फलक पर दिखाया है और फिल्म के किसी संवाद से या स्क्रीनप्ले से यह सन्देश नहीं मिलता की भंसाली इसे ‘केवल एक ऐतिहासिक तथ्य’ के तौर पर पेश करना चाह रहे हैं. उन्होंने पूरी भव्यता और गर्व के नाद के साथ जौहर फिल्माया है. हमारी नजर में यह एक फिल्मकार की रचनात्मकता कम उसका गैर जिम्मेदार इस्तेमाल अधिक है. शुरुआत से अंत तलक आपने ऐतिहासिक तथ्यों की धज्जियां उड़ाई एक निर्देशक की रचनात्मकता के नाम पर तमाम छूटें लीं , लेकिन एक ख़ास विचारधारा को हम पर चस्पा करने के लिए गौहर को ‘गर्व और विजय’ से जोड़कर जस का तस पेश कर दिया ? ?
भंसाली साहब, आपने अपनी रचनात्मकता के लिए छूट ली, चलेगा ! आपने तथ्यों से खिलवाड़ किया, यह भी चलेगा ! लेकिन आप एक ऐसी प्रथा को ग्लोरीफाई कर हमारे दिमाग में पाजिटिवली चस्पां करने की कोशिश कर रहे हैं ‘जो तब भी गलत थी और आज भी गलत है’ यह नहीं चलेगा । आप जितने बड़े फिल्मकार या कलाकार का लेबल लिये फिरते हैं आपकी जिम्मेदारी भी उतनी बड़ी होती है। अगर आपमें इतनी तमीज़ नहीं है कि अपने इतिहास की बातों को आज के माहौल के हिसाब से ‘जनता से कैसे कनेक्ट’ किया जाए तो आपकी रचनात्मकता दो कौड़ी की नहीं है। जौहर या सती हो जाना न कभी कोई विकल्प था न आज है. हमारे समाज की जो बुनावट है उसमें मूल रूप से स्त्री को किसी भी रूप में पुरुष की अधीनता में रखा गया है और इस पर आप आज 2018 में इस तरह के बेहूदा विचार को प्रस्तावित कर रहे हैं .
अंकल जी , औरतों के पास एक विकल्प वह भी है जो केतन मेहता की ‘मिर्च मसाला’ में दिखाया गया है . कितना अप्रतिम दृश्य है जहाँ एक तरफ शक्ति का प्रतीक अय्याश सूबेदार है और उसके हवस में डूबे इरादे हैं और दूसरी तरफ मसाला फेक्ट्री में काम करने वाली शक्तिहीन कमजोर गरीब मजदूर औरतें हैं जिन्होंने आज़ादी और आधुनिकता का पाठ भी नहीं पढ़ा लेकिन जो अपने औरत होने को हथियार बना लेती हैं और क्लाइमेक्स में सूबेदार और उसकी मदमस्त फौज की आँखों में मिर्च डालकर उनके इरादों को चकनाचूर कर देती हैं. औरत होने के गर्व को समझना है तो भंसाली जी से अनुरोध है की जाकर ‘मिर्च मसाला’ देखें. जौहर करना, खाना खाते पति पर पंखा झलना, कीमती कपडे , बेशकीमती गहने.. ये सब न श्रृंगार की जरूरते हैं औरत होने की नहीं. औरत होना शक्ति और समर्पण का नाम है सजावाट का नहीं .
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