अधिकांश प्रपोज़ खोखले निकले उनमें केवल आकर्षण की चौंध थी जीवन की वास्तविकताओं के सामने वे फीके पड़ गए. लेकिन समझ के कच्चेपन और प्रेम के मोह ने दिमाग को उस वक़्त यह बारीकी समझने का स्पेस ही नहीं दिया. इस आकर्षण में बहोत कुछ खोया और यह जाना की प्रेम उतावलेपन का नाम नहीं है मन के धैर्य की कसौटी है…
कुछ प्रपोज़ शरारती थे जो प्रेम को ‘मोमेंट्स में जी लेना’ चाहते थे तो एक-आध प्रपोज़ल मासूमियत से भी भीगा था जहाँ कोई प्रस्तावना नहीं थी ‘बगैर फेब्रिकेशन के’ प्रेम निवेदन करने वाले ने बस मन की बात जाहिर कर दी. किसी नें ताजमहल के गलियारों में प्रपोज़ किया कि एक अमिट प्रेम गाथा लिखी जा सके लेकिन प्रपोज़ल की यह रोमानियत भी उनके प्रेम में संजीदगी पैदा नहीं कर सकी और प्रेम की वह कमजोर बुनियाद कुछ ही पलों में ढह गयी .
कुछ नें कुछ भी नहीं कहा लेकिन ‘वह अनकहा बेहद ठोस था’ कभी चाँद का बहाना लेकर ..तो कभी किसी गीत का ..कभी फागुन के रंगों का..तो कभी लेखनी का ..यह ‘देह और शब्दों की भाषा’ में किया गया प्रपोज़ था मन की रचनात्मक कपोलों को आच्छादित कर लेने वाला.फेसबुक संवाद की इन सभी प्रपोजों में एक ख़ास भूमिका रही . इनमें से कुछ में एक पीढ़ी का अंतराल था..ठहराव था..
प्रेम में सब मीठा-मीठा तो लगता है लेकिन यह मिठास चाशनी की तरह चिपचिपी नहीं देसी गुड की तरह हो जो जीवन में घुल जाए और डाईबिटीज़ भी ना हो
इस सिलसिले में एक पड़ाव वह भी आया जहां मन की रोमानी संवेदनाओं के साथ प्रकृति भी थी..एकांत था ..छोटे-बड़े पत्थरों-पहाड़ियों से बलखाती किसी खोई हुई नदी की आवाज़ और हवा की सांय-सांय से मेल खाता मन का कोलाहल था.. और जहाँ हाथ पर हाथ रख देने के मायने प्रेम की स्वीकृति होना था इस स्वीकृति में विश्वास, समर्पण और जीवन के सबसे कठिन पलों में साथ निभाने का वादा भी शामिल था .
प्रेम का अर्थ केवल साथ रहना भर नहीं है जिस प्रेम में ‘निबाह’ का सौन्दर्य न हो उसका आकर्षण सतही है. प्रपोज़ करना और प्रपोज़ल को स्वीकारना दोनों बेहद जिम्मेदार भूमिकाएं हैं इसे किसी फैशनेबल रस्म की तरह न निभाया जाए तो प्रेम की खूबसूरती बनी रहेगी ..प्रेम में सब मीठा-मीठा तो लगता है लेकिन यह मिठास चाशनी की तरह चिपचिपी नहीं देसी गुड की तरह हो जो जीवन में घुल जाए और डाईबिटीज़ भी ना हो . चंद्रकांता
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