‘हिंदी व्यंग्य विमर्श को समर्पित व्यंग्य की सर्वाधिक चर्चित त्रैमासिक पत्रिका ‘व्यंग्य यात्रा’ आदरणीय प्रेम जनमेजय जी की जिजीविषा, मनीषा और संकल्प का अनन्य दृष्टांत है। मेरी अब तक की समझ में ‘व्यंग्य यात्रा’ एक ऐसा मंच है जो बगैर संपादकीय माप-तौल के प्रतिष्ठित व नए रचनाकारों को साहित्यिक सह-रचनाधर्मिता का अवसर देता है। इसे साहित्यिक समरसता का जीवंत उदाहरण कहना अधिक उपयुक्त होगा। सीमित संसाधनों में कोई लेखक अपनी रचनात्मक ऊर्जा और संपादन-कला के बल पर एक पत्रिका को किस तरह बौद्धिक-ऊँचाई दे सकता है ‘व्यंग्य यात्रा’ इसका सशक्त उदाहरण है। व्यंग्य यात्रा की आकर्षक प्रस्तुति, लघु ठिकानों का मितव्ययी व्यवहार और अमूमन स्तरीय रचनाओं का चयन प्रभावित करता है। ‘चंदन’ में पाठकों के पत्र, ‘पाथेय’ में कालजयी रचनाकार, ‘त्रिकोणीय’ में किसी लेखक की रचनाधर्मिता से परिचय और ‘आरंभ’ में प्रेम जनमेजय का संपादकीय सब कुछ बेहद पठनीय होता है।
‘व्यंग्य यात्रा’ में अक्सर आपको ऐसी दुर्लभ रचनाएं और अनुवाद भी पढने को मिल जाया करते हैं जिनसे बहुत से पाठक अब तलक अपरिचित रहे होंगे। सुधि पाठकों के लिए यह सोने पर सुहागा वाली बात है। जुलाई-दिसंबर 2020 कोरोना प्रभावित संयुक्तांक में भी धर्मवीर भारती की ‘डाकखाना मेघदूत-शहर दिल्ली’ जैसी नायाब रचना पढ़ने को मिली। यह पत्रिका समग्र रूप से प्रेम जी की अनुभवी बौद्धिक संपदा के रंग में रंगी हुई है। ‘व्यंग्य यात्रा’ अपने साहित्यिक विहार के सत्रहवें पड़ाव में है और आज भी मात्र बीस रुपये में उपलब्ध है। लगभग डेढ़ सौ पृष्ठ की पत्रिका जो साहित्यिक मनीषा के प्रबुद्ध लेखों से लाबलब भी हो, उसे अबाध निकाल सकना प्रेम जी सरीखी जिजीविषा से ही संभव हो सकता है। यह सुखद है की ‘व्यंग्य यात्रा’ अब डिजिटल रूप में नॉटनुल पर भी उपलब्ध है। यह प्रेम जी के संपादकीय सौष्ठव का ही कमाल है। पत्रिका के ताज़ा अंक से प्रेम जी की लिखी कुछ पंक्तियाँ उधृत करना चाहूँगी, जो ‘व्यंग्य यात्रा’ आन्दोलन के उनके मंतव्य को एकदम स्पष्ट कर देती हैं-
“कभी अलबर्ट कामू ने लेखन के उद्देश्य को रेखांकित करते हुए कहा था- एक लेखक का उद्देश्य सभ्यता को खुद से नष्ट होने से रोकना है। निश्चित ही यह एक महत्त उद्देश्य है। व्यंग्य लेखक के रूप में मेरा भी यही उद्देश्य है और व्यंग्यकर्मी के रूप में भी मेरा प्रयत्न रहा है कि व्यंग्य को खुद से नष्ट होने से रोकूँ। व्यंग्य लिखा बहुत जा रहा था पर कैसा लिखा जा रहा है यह चिंता ना के बराबर हो रही थी। व्यंग्य यात्रा का अंकुर चिंता की ऐसी ही उर्वर भूमि में फूटा और मुख्य मकसद बना। लगा कि यदि व्यंग्य की चिंता नहीं करेंगे तो व्यंग्य और चिंता का अंग बिंदु नष्ट हो जाएगा एवं इस कारण व्यंग्य निस्तेज हो ‘व्यग्य’ रह जाएगा और ‘चिंता’ व्यंग्य की चिता ।”
हाल ही में व्यंग्य यात्रा को अखिल भारतीय हिंदी पत्रकारिता पुरस्कार 2020 के द्वितीय पुरस्कार से पुरस्कृत किये जाने पर उसका श्रेय व्यंग्य यात्रा से जुड़े सभी व्यक्तियों को देना प्रेम जी की विनम्रता का ही परिचायक है। साहित्यिक चूहा-दौड़ में में ‘व्यंग्य यात्रा’ एक ऐसा आश्वासन है जिसने कबीर जैसे प्रखर सामाजिक चिंतकों की वैचारिक धरोहर को संभाल रखा है। ‘व्यंग्य यात्रा’ का यह शुभ संकल्प साहित्यिक अवसरवादिता को ठेंगा दिखाने के समान है। कुल मिलकर यह पत्रिका रचनात्मक शून्य को भरने का सार्थक काज कर रही है।
आज ‘व्यंग्य यात्रा’ को पढ़ते हुए लगभग एक वर्ष हो चुका है। एक पत्रिका के तौर पर ‘व्यंग्य यात्रा’ से मेरी दो शिकायतें भी हैं। पहली पद्य व्यंग्य के चयन को लेकर है और दूसरी पत्रिका में प्रयोग किये गए चित्रों की अस्पष्टता को लेकर। बहरहाल, शिकायत करना एक सरल कार्य है कुछ कठिन है तो वह है प्रेम जनमेजय जैसे निष्ठावान संपादक व लेखक का होना। मैं डॉ। लालित्य ललित की ह्रदय से आभारी हूँ जिन्होंने मुझे ‘व्यंग्य यात्रा’ से जुड़ने का अवसर दिया। आशा करती हूँ व्यंग्य की प्रखर रचनाधर्मिता के साथ साहित्य का यह अनूठा आंदोलन अपनी यात्रा को जारी रखेगा। ‘व्यंग्य यात्रा’ के लिये मैं मुकेश शर्मा जी की अग्रिम पंक्ति उधार लेना चाहूँगी, इससे बेहतर उपमा मुझे अब तलक नहीं मिल सकी है की – साहित्य के प्रेम में जनमेजय हो जाने की यात्रा है ‘व्यंग्य यात्रा’।
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