रहीम साहब ने पानी के महत्व को रेखांकित करते हुए कितनी वाजिब सी बात कही है।
आज 22 मार्च है आज के दिन को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस बार इसकी थीम है’ वेल्यूइंग वाटर’ यानी पानी को महत्व दीजिये। पानी की उपलब्धता कई बातों पर निर्भर होती है. मानवीय हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन की वजह से लगातार पानी की प्राकृतिक उपलब्धता में कमी आई है। बहुत मर्तबा पानी उपलब्ध तो होता है लेकिन उसका अकुशल प्रबंधन और अकुशल वितरण पानी की कमी का कारण बन जाता है।
जल के कुशल प्रबंधन और संरक्षण के लिए देश में कई संस्थाएं और परियोजनाएं सक्रिय है. जल शक्ति मिशन, ऐसा ही एक नाम है। जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय तथा पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय को मिलाकर जल शक्ति मंत्रालय बनाया गया है।
जल शक्ति मंत्रालय के प्रयासों को सही दिशा देने के लिए, नीति आयोग ने संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक (Composite Water Management Index 2।0) का दूसरा संस्करण तैयार किया है। नीति आयोग ने यह माना है की शहरों में और सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला पानी की दक्षता केवल 30 से 40 प्रतिशत है। इसका अर्थ है की कुल प्रयोग किए जाने वाले पानी का लगभग 60 प्रतिशत अकुशल इस्तेमाल किया जा रहा है। जिसकी वजह से पानी का संकट बढ़ जाता है।
केंद्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय (Department of Personnel and Training) ने पानी की कमी से जूझ रहे देश के 255 ज़िलों में वर्षा जल के संचयन और संरक्षण हेतु ‘जल शक्ति’ अभियान की शुरू करने की घोषणा की है। जल से संबंधित मुद्दे राज्य सरकार के अंतर्गत आते है लेकिन इस अभियान को केंद्र सरकार के संयुक्त या अतिरिक्त सचिव रैंक के 255 IAS अधिकारियों द्वारा समन्वित किया जाएगा। हालाँकि इसमें संदेह है की केंद्र के अधिकारी क्या राज्यों के जल प्रबंधन को सही तरीके से समझ सकेंगे?
नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय हिमालय क्षेत्र में 30 लाख धाराएं हैं जिनमें से आधी बारहमासी धाराएं सूख चुकी हैं अथवा मौसमी धाराओं में बदल चुकी हैं। भारतीय हिमालयन क्षेत्र की करीब 60 प्रतिशत आबादी जल आपूर्ति के लिए इन धाराओं पर ही निर्भर है। शिमला जैसे हिमालयी शहरों में जल संकट की बड़ी वजह इन धाराओं का सूखना माना जा रहा है। नीति आयोग ने हिमालय स्प्रिंग्स को पुनर्जीवित करने के लिये विशेषज्ञों के समूह का गठन किया है। सिक्किम ने एक सार्थक उदाहरण पेश किया है और पिछले पांच वर्षों में स्थानीय समुदायों और सामाजिक संगठनों की मदद से सात सौ से भी अधिक धाराओं को पुनर्जीवित किया है। हिमाचल प्रदेश को भी इन राज्मेंयों से सबक लेते हुए एक रणनीति के तहत इस पर कार्य करना चाहिए.
जल प्रबंधन के लिए तकनीक व प्रोद्योगिकी का इस्तेमाल पानी के संकट से निपटने के लिए वरदान साबित हो सकता है. जल के प्रवाह पर निगरानी व उसे नियमित व नियंत्रित करने के लिए सेंसर, भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS, geographical information system) और उपग्रह इमेज़री जैसे तकनीकों का उपयोग करने की आवश्यकता है। दक्षतापूर्ण जल प्रबंधन के लिए हमें प्रशासनिक और राजनीतिक सीमाओं के बजाय रिवर बेसिन को हाइड्रोलॉजिकल इकाई के रूप में देखना चाहिए। Hydroelectric power in Himachal Pradesh
जल प्रबंधन के साथ कृषि को जोड़ना जल संरक्षण की अनिवार्यता है। Agriculture कृषि क्षेत्र की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए जल की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिये, साथ ही विशेष जलवायु क्षेत्र के लिये उपयुक्त फसल पद्धति का चुनाव भी करना चाहिये। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में गन्ना और पंजाब में धान वहाँ की जलवायु के लिये उपयुक्त फसल नहीं हैं क्योंकि इन फसलों को अधिक पानी की आवश्यकता होती है जिससे दूसरी फसलों को कम पानी मिलता है और उनकी वृद्धि प्रभावित होती है।
हिमाचल में सिंचाई के लिए स्थानीय स्तर पर कूहल की व्यवस्था है। बहुत सी जगहों पर कूहल में पानी तो है लेकिन या तो लीकेज या टूट फूट की वजह से पानी में गाद भर जाती है और वह खेतों तक पूरी दक्षता से नहीं पहुँच पाता है। खेती के लिए अब वर्षा पर निर्भरता अधिक बढ़ गई है। लेकिन हालात यह हैं की बारिश भी कम हो रही है। प्रदेश में सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों जैसे स्प्रिंकल सिंचाई या टपक सिंचाई को बढ़ावा देना चाहिए और पानी की सब्सिडी को पुनः परिभाषित करना चाहिए.
वर्ष 1987, 2002 और 2012 में अब तक तीन जल नीति आ चुकी हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिए, सूखती हुई नदियों व नालों के पुनर्जीवन के लिए और गुणवत्तापूर्ण पानी की उपलब्धता के लिए देश को नई और समग्र जल नीति की आवश्यकता है। इसके अलावा पानी को लेकर राज्यों और राज्य व केंद्र के संबंधों को भी पुनर्परिभाषित किए जाने की जरुरत है।
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