नि-रं-कु-श सत्ता के भय से फिर अपने भीतर के बचे हुए इंसान को बटोरकर अपनी सम्पूर्ण शक्ति से उसे ढांढस बंधाती हूँ बुरी ताकतों के खिलाफ खड़े रहने के लिए खुद को व्यवस्था का विरोधी पाती हूँ लेकिन विरोध की उस मचान पर माचिस की तीली पड़ जाने से डर लगता है कंभी किसी सुसुप्त ज्वालामुखी की भांति अचानक फट पड़ने का मन होता है स्त्री योनियों का घनत्व नापने को
फरसे,त्रिशूल,तलवारें सबमें होड़ लगी हुई है
बच्चियां, बीवियां, बेवाएं, प्रेमिका, माएं..
टि-म-टि-मा-ती देह हो गयी हैं हमारे समंदर जैसे विशाल ह्रदय अब कीचड़ से ल-बा-ल-ब हो जाने का डर लगता है सत्य और असत्य के नाप-तौल में हमने खुद को मूल्यों से रिक्त कर दिया है हम सच कहने का साहस खो चुके हैं हमारा सलीका ‘बेपेंदी का लौटा‘ हो गया है हमने भूत में जिस असत्य को बोया था वर्तमान में उसी को काट रहे हैं हम इंसानों को मज़हब में बाँट रहे हैं हमारी मुखर आवाजें अब मूक हैं शासन के हाथ में बन्दूक है और निशाना हैं हम हम इंसानों के कठपुतली हो जाने से डर लगता है आम आदमी महज एक वोट बन गया है देश का आदर्श नोट बन गया है सुनो ! यह गहन सन्नाटे का वक़्त है यह आभासी दुनिया में पर्दा गिराने का वक़्त है और मुखौटों को ओढ़ कर रहने का भी जो हमको होना था, वह हम नहीं हैं अक्सर हममें ‘हम‘ कहीं भी नहीं हैं नन्ही आशाओं के ख़ाक हो जाने से डर लगता है
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