आज कई हफ़्तों के पश्चात्
हाट से खरीदी गुलाबी टोकरी हाथ में पकड़
एकदम पक्कावाला इरादा कर
आफ़िस और घर-बार की व्यस्तताओं से मुक्त होकर
साप्ताहिक बाज़ार गयी थी, कुछ सामान लाने
आज दिवाली या कोई त्यौहार तो नहीं था
प्रत्येक पखवाड़े रविवार को
मोहल्ले में होने वाली किट्टी पार्टी भी नहीं थी
फिर भी, मैंने माथे पर बड़ी सी बिंदी सजा ली थी
और ओठों पर गहरी लाली
मालूम नहीं क्यूँ !
बाज़ार भीड़ से पटा हुआ था
खुद को बरसात से महफूज़ पाकर
गाड़ी की अगली सीट पर, भीतर आकर
बरसात की ब-ड़-ब-ड़ा-ती बूंदों के बीच
मैंने खुद को बेहद छोटा पाया
तुरंत-फुरंत चाबी घुमाई, सायरन बजाया
और चार-पहियाँ लेकर धीमी रफ़्तार से चल दी
बीच-बीच में कौंधती नीली बिजुरिया चमकती रही
रास्ते भर मेरे दिल-दिमाग में धमकती रही
बारिश की नरम बूँदें किसी के लिए सख्त भी हो सकती थीं
यही आ-वा-जा-ही विचारों में फुदकती रही
पटरीवालों की ठहरी हुई जिंदगी की वह पिक्चर रात भर
मेरी गीली आँखों में करवटें बदलती रही
सुबह-सवेरे आफ़िस जाने से पहले, नहाते हुए
बारिश की बूँदें कानों के अंदरूनी कोनों तलक ग्रामोफ़ोन की तरह बजती रहीं
(ज़ारी …)
चंद्रकांता
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