बस, मुझी से प्रेम करो‘!!!एक अजीब सी समझ है यह प्रेम को लेकर ..एक विकृत सी रोमानियत.हम प्रेम को व्यक्ति/देह से अभिन्न मान लेते हैं किन्तु, ‘देह का परिचय पाकर प्रेम अपना अर्थ खो बैठता है‘.पुन; प्रेम और साहचर्य एक होते हुए भी ‘एक ही‘ नहीं हैं.प्रेम आत्म-समर्पण का भाव है जो प्रतिदान कि अपेक्षा से मुक्त है और विवाह उस समर्पण को साझा करने के लिए; आपसी समझ के आधार पर किया गया एक सामजिक अनुबंध.इसलिए साहचर्य के नियम अलग हैं और मन किसी नियम को नहीं मानता ..उसकी गति स्पेस और टाईम के परे है. प्रेम को इस अति-आग्रही ‘रेडीमेड खाँचे‘ से मुक्त कीजिये.
प्रेम उत्सव है देह का, मन का, आत्मा का और हमारे संपूर्ण अस्तित्व का।इसलिए प्रेम अस्तित्व की खोज है .प्रेम मन का संस्कार है और समर्पण उसकी धानी संस्कृति।
प्रेम तो उत्सव का विषय है किसी सामजिक-धार्मिक-जेंडरगत या बौद्धिक अनुष्ठान का नहीं जहाँ उसकी आहूति चढ़ा दी जाए.प्रेम समर्पण है,प्रेम विश्वास है,प्रेम सृजन है जिसकी रचनात्मकता उसकी सहज अभिव्यक्ति में है ..प्रेम मन की अनंत गहराइयों में छिपा एक खूबसूरत मोती है जिसके लिए अभिव्यक्ति का हर एक समंदर,भी कम है.प्रेम की अभिव्यक्ति अलग हो सकती किंतु प्रत्येक अभिव्यक्ति उतनी ही खूबसूरत हे जितना की मन संवेदन .जैसे चित्रकार के लिए उसका चित्र और लेखक के लिए उसकी कृति वैसे ही प्रेम साधक के लिए उन्मुक्त ह्रदय की साधना है जीवन की सर्जना है।प्रेम जीवन की तपस्या हे.समर्पण हे, एक खूबसूरत एहसास हे जिसके कई रूप कई रंग हो सकते हैं और” हर एक रंग कुछ कहता हे”. सच, प्रेम न केवल जीवन को अर्थ देता है बल्कि जीवन के प्रति एक राग भी पैदा करता है.और जब प्रेम विश्वास व समर्पण का पर्याय बन जाए तब उसमें वही देवत्व साकार हो आता है जिसे हम सब ईश्वर/प्रकृति कहते हैं.”लाली मेरे लाल की,जित देखूं तित लाल/लाली देखन मैं चली,में भी हो गयी लाल” ..प्रेम सृजन है,वह रचने की प्रक्रिया और सार्थक होने की एक कोशिश है।आइये अबके वसंत प्रेम के इस सूफ़ियाना सरोवर में अपनी आत्मा को पोर पोर भीज जाने दें। ह्रदय कि इस उन्मुक्त कोमल भावना का सम्मान कीजिये तिरस्कार नहीं.
शुभ वसंत hAppy vAlentine’s dAychanDrakanta
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प्रेम न केवल जीवन को अर्थ देता है बल्कि जीवन के प्रति एक राग भी पैदा करता है.
बहुत अच्छी बात कही आपने ।
शुभ बसंत!
सादर
बिलकुल सही कहा आपने ...
प्रेम का दूसरा नाम ही समर्पण और विश्वास है ....
इसमे कोई चाह नहीं बंधन नहीं और कोई समझौता नहीं ,......
मेरा मुझमे कुछ नाहीं है ,जो कुछ है सो तोर
तेरा तुझको सौंपता , क्या लागे है मोर .,,.////कबीर