‘शहरों के लोग बेहद असंवेदनशील होते हैं’ ! ‘उनके सीने में दिल नहीं होता’ !! आपको भी ऐसे विश्वास सुनने को मिलते रहते होंगे. खासकर राजधानी दिल्ली को लेकर गांवों, कस्बों या छोटे शहरों में कमोबेश ऐसी ही समझ प्रचलित है. लेकिन संवेदना केवल शहर या केवल गाँव की बपौती नहीं. इसलिए इस बात पर एक खुली बहस होनी ही चाहिए की क्या दिल्ली वास्तव में एक असंवेदनशील शहर है ?
दिल्ली भारत की राजधानी है, सपनों का एक बड़ा शहर जो हमारी उच्च आकांक्षाओं को स्पेस देता है .’राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो’ (नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो) के 2012 में जारी आकड़ों के अनुसार देश के दस लाख से अधिक जनसँख्या वाले 53 मेगा शहरों में दिल्ली में अपराध की दर सबसे अधिक है. हालांकि इन तथ्यों को सीधे तौर खारिज नहीं किया जा सकता लेकिन जागरूकता, क्राइम का रिपोर्ट करवाया जाना, जनसंचार एवं मीडिया तक सुलभ पहुँच भी तकनीकी तौर पर क्राइम ग्राफ की अधिकता का एक कारण है. लेकिन, इस वास्तविकता का एक और पक्ष भी है जिसकी अनदेखी की गयी है आइये किन्ही कारणों से पार्श्व में रह गए इस पहलू की भी पड़ताल करें.
यदि दिल्ली महानगर की जनांकिकी संरचना पर विचार करें तो दिल्ली में जो लोग सार्वजनिक स्थानों पर दिखाई पड़ते हैं उनमें भारत के सभी गाँव /कस्बों/ क्षेत्रों के लोग होते हैं और उनका ‘मास कल्चर’ भी प्रवास की अवधि में या तो उनका अपना इजाद किया हुआ है या फिर पहले से प्रचलित सांस्कृतिक अभिवृत्तियों से प्रभावित. हम और आप में से बहोत से लोग या हमारे कुछ घनिष्ठ परिचित भी दिल्ली में ही रहते होंगे दिल्ली का कल्चर तो आप, हम और हम सब ही मिलकर बनाते हैं फिर ये दोष किस पर मढ़ा जा रहा है ?
अक्सर यह पढने को मिलता है की ‘शहर की मौत हो गयी है‘ या ‘दिल्ली में लोग बेहद असंवेदनशील‘ हैं या ‘दिल्ली में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं‘ ! ये सभी वक्तव्य निराधार नहीं है लेकिन जिस तरह इन्हें ‘दिल्ली‘ के नाम से जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है वह उचित नहीं है। ऐसे जनसँख्या समूह को स्वेछाचारी होने की स्थानिक और कालिक सुविधा होती है जो किसी क्षेत्र विशेष में केवल रोजी-रोटी कमाने के लिहाज़ से आई थी. क्यूंकि तब सामजिक मूल्यों और घर परिवार का नैतिक दवाब आप पर नहीं रहता तो आप धीरे धीरे स्वछंद होकर व्यवहार करने लगते हैं। लेकिन जब आप घर पर थे तो आपकी इस स्वेच्छाचारिता को आपकी नैतिक जिम्मेदारियों और ‘सामजिक टैबू’ के नीचे दबा दिया गया था। अन्य बातों के अतिरिक्त, इसलिए भी शहरों में सार्वजनिक स्थानों पर यौन आचार/व्यभिचार अधिक परफॉर्म किये जाते हैं ।
एक समस्या उन लोगो की भी है जो रोजगार या एक्सपोजर की चाह में दिल्ली जैसी जगहों पर आते हैं सब सुविधाओं का उपभोग करते है तथा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से यहाँ का कल्चर बनाते हैं और अंततः दोष देते हैं ‘दिल्ली के असंवेदनशील हो जाने को’। इनमें ऐसे लोग भी है जो यही से अपनी समस्त कार्य-गतिविधिया संचालित करते हैं और कस्बाई/ग्रामीण क्षेत्रों के प्रति एक अजीब किस्म की रोमानियत को ओढ़े रहते हैं जैसे अक्सर इन्हें उवाचते सुना जा सकता है कि – ‘गाँव की पीड़ा .. ‘ये शहरी क्या जाने’! जबकि ऐसे अवसरवादी लोग एक तरफ अपनी ग्रामीण उत्पत्ति को लेकर अजीब किस्म के मिथकों से घिरे रहते हैं और इसके सामानांतर ही शहरी वर्ग पर गाँव की तमाम सामजिक-आर्थिक समस्याओं का स्वमंडित आरोप थोपते हैं.
दरअसल ये वही लोग हैं जो स्वयं शहरों में एन. जी. ओ. स्थापित कर उन्हें मिलने वाली आर्थिक सहायता अथवा प्रतिष्ठित पदों का उपभोग कर रहे होते हैं। होना तो यह चाहिए था की गांवों और कस्बों के पढ़े-लिखे स्थापित लोग अपने ही क्षेत्र की उन्नति के लिए समर्पित होकर काम करते लेकिन अनुभव इसके विपरीत हैं । अब प्रश्न यह है की गाँव को पक्ष और शहर को विपक्ष मानकर चलने वाले ऐसी ‘छद्म सेलिब्रिटियों‘ की जवाबदेही कौन तय करेगा ! !
विकास की दौड़ में एक दिन क्या क़स्बा क्या गाँव सब शहर के समरूप ही हो जाने वाले हैं । हमें यह ध्यान रखना होगा कि किसी भी आम स्थान की तरह दिल्ली या किसी बड़े महानगर में भी अच्छे और बुरे दोनों किस्म के लोग होते हैं। पुनः संवेदनशीलता के मुद्दे पर बात तर्कत: भी की जाए तब भी यदि कस्बाई/ग्रामीण बहुल क्षेत्रों के जातीय बहिष्कार, संपत्ति विवाद/हत्या, आनर किलिंग और महिला के प्रति अपराधों की सही तस्वीर सामने आ जाए तो उस स्तर की असंवेदनशीलता को जानकार हम सब निश्चित ही ‘इनसोमनिया’ के शिकार हो जाएँगे। दरअसल एक सच यह भी है की दिल्ली की यह आचार संस्कृति हमारी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का परिणाम है; इसलिए आपको नहीं लगता ‘समस्या दिल्ली के असंवेदनशील हो जाने की नहीं है उसके ‘केन्द्रीय महानगर’ हो जाने की अधिक है ‘जिसे हर कोई कैश करा लेना चाहता है।
इसी तरह का एक उदाहरण आप ‘भारत बनाम इण्डिया’ का ले सकते है. हम लोग बेहद इमोशनल होकर भारत बनाम इण्डिया‘ का एक बेतुका सा कंट्रास्ट करने लगते हैं जहां यह समझा गया है की भारत (ग्रामीण जनसँख्या) तक वह समृद्धि और सुख सुविधाएँ नहीं पहुंची है जिनकी आसान पहुँच इण्डिया (शहरी जनसँख्या) तक है. साधन और समृद्धि के इस अंतराल को तमाम राजनितिक-अराजनीतिक समूह और हमारा नागरिक समाज अपने-अपने कारणों से भुनाए भी जा रहे है। .ग्रामीण एवं सुदूर क्षेत्रों तक समृद्धि का अपेक्षित विस्तार नहीं हो सका तो इसके पार्श्व में एक सीधा सा गणित है जिसका हल सत्ता-प्रशासन और साहूकारों के पास है। यह उद्योगपति से लेकर सरपंच और प्रशासनिक अधिकारियों तक की एक पिरामिड-नुमा कड़ी है. इस पिरामिड का एक स्तर गाँव के स्थानीय मध्यस्थ, प्रभावशाली लोग और वहां की पढ़-लिख कर सुख सुविधाओं की और पलायन कर गयी पीढ़ी से भी मिलकर बना है जो सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों की बदहाल के लिए प्राथमिक रूप से जिम्मेदार है. गाँव का सरपंच, अधिकारी वर्ग, ग्रामीण पृष्ठभूमि के उच्च शिक्षित युवा और स्थानीय बुद्धिजीवी भी अपने गाँव का उतना ही दोहन कर रहे हैं जितना की शहरों पर आरोप लगाया जाता है ।
सनद रहे की विकास कर लेने से ना तो शहरों की समस्याओं का जड़ से निवारण हुआ है और ना ही शहर स्वयं में गाँवों/कस्बों के पीछे रह जाने का कारण हैं, इसका कारण है वह प्रशासनिक मशीनरी और स्वशासन के स्थानीय अभिकरण जिन पर शहरी और ग्रामीण दोनों जनसँख्या समूहों के समुचित समायोजन का दायित्व था किन्तु वे अपनी भूमिका निभाने में लगभग असफल रहीं.
शहर को लेकर कुछ ऐसे ही अजीब किस्म के जुमले गढ़ दिए गए हैं जिन्हें अनुवर्ती लेखक अपनी तमाम क्रिएटीविटी को एक तरफ कर किसी चर्चित फिल्म के डायलोग्स की तरह घिसे जा रहे हैं और अपने भाषाई साम्राज्यवाद से अशिक्षित जनता में एक ऐसी मानसिकता का इजाद कर रहे हैं जो शहरों के प्रति द्वेष की जहरीली पौध के रूप में विकसित हो रही है. यही वह मानसिकता है जो हमें सिखाती है कि ‘शहर की मौत हो गयी है’ ..तनिक सोचिये ! हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को किस किस्म का ज्ञान दे रहे हैं ! ! क्या उन्हें यह बताया जाना जरुरी नहीं की गाँव और शहर दोनों हमारी अपनी सामजिक-सांस्कृतिक धरोहर हैं और उन्नति के लिए दोनों का साझा होकर चलना जरुरी है.
संग्रहणीय बात यह है की ‘गाँव और शहर को पक्ष और विपक्ष के रूप में देखा जाना कतई जरुरी नहीं’। ना शहर अच्छे हैं ना गाँव बुरे ठीक इसी तरह ना शहर असंवेदनशील हैं ना ही गाँव संवेदना के एकमात्र संवाहक .अच्छी या बुरी तो हमारी मानसिकता है; जहाँ तक संवेदना का सन्दर्भ है उसकी प्रवृत्तियां आचार-व्यवहार-संस्कार से जुडी है हमारे ग्रामीण या शहरी होने से नहीं। और यदि शहरी व्यवहार संस्कृति में कुछ ख़ास किस्म के दोष हैं भी तो प्रमुखतः वे व्युत्पन्न प्रवृतियां हैं जो की विकास का बाई-प्रोडक्ट हैं, उनकी मूल प्रवृत्ति नहीं। ‘ और अंत में, तमाम संजीदा लेखकों और जिज्ञासुओं से एक प्रश्न है कि मैली-कुचली जिंदगी तो कसबे-गाँव में भी फटेहाल है.. अनसुनी है..दुत्कार दी जाती है ..मार दी जाती है; तब ‘मौत केवल शहर की क्यों दर्ज की जाती है‘ .
(नोट : देहात हो या शहर या कोई क्षेत्र विशेष इन्हें लेकर प्राय: हम सभी चेतन अचेतन या अवचेतन रूप से एक किस्म की रोमानियत से घिरे होते हैं। यह लेख ‘ग्राम्य-रोमानियत से पीड़ित छद्म सोच‘ को संदर्भित करते हुए लिखा गया है किसी पूर्वाग्रह के अधीन नहीं। )
चंद्रकांता
View Comments
शहर में भी कई लाशें अज्ञात होती हैं ....
बिलकुल सही कहा है ... कोई भी क्षेत्र हमारी मानसिकता से ही संवेदनशील बनता है .... चाहे वो गाँव हो या शहर
बसन्त पंचमी की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
दिनांक 16 /02/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
बसन्त पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!
Latest post हे माँ वीणा वादिनी शारदे !
बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें | आगे अनुरोध है के यदि आप ठीक समझें तो कृपया पोस्ट का फॉण्ट साइज़ बढ़ा लीजिये इससे पढने में आसानी होगी | आपका लेख पढ़ा आपकी सोच के इस वर्णन से मैं पूर्णतः सहमत हूँ के व्यक्तिगत मानसिकता ही हर प्रतिक्रिया का कारण है | यदि सोच सकारत्मक होगी तो चाहे शहर हो या गाँव कभी भी कहीं भी कोई परेशानी नहीं आ सकती परन्तु यदि इंसानी दिमाग की टिकटिकी सिर्फ और सिर्फ अपने फायदे के लिए ही चलती हो तो कोई क्या करेगा.....सुन्दर आलेख अगले भाग का इंतज़ार रहेगा | आभार |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ चंद्रकांता जी ........
हाँ रशिम दी, काश ! शहर का मन भी संजीदगी से पढ़ा जाता
तो वह केवल कंक्रीट की एक ईमारत भर नहीं होता ..
जी संगीता दीदी,
बस इस मानसिकता को समझे जाने की जरुरत है।।
आपको भी बसन्त पंचमी की शुभकामनाएँ..
आपको भी बसंत की स्नेहिल शुभकामनाएं .शुक्रिया ..