एक पाठक के तौर पर हमने साल भर पहले ही कहानियाँ पढ़ना शुरू किया है। उपन्यास अभी भी नहीं पढ़ पाते। पाठक होना सीख रहे हैं। दरअसल अभ्यास केवल लेखक होने का ही नहीं करना होता पाठक होने का भी करना होता है। कहन की शैली लेखक को आम आदमी से अलग करती है और शब्दों की गिरह खोलने का हुनर एक पाठक को। लोक, कला और स्त्रियाँ ये तीनों ही बिंब हमें बेहद प्रिय हैं। संजोग से गीताश्री की पुस्तक ‘लिट्टी-चोखा और अन्य कहानियाँ’ में लोक, कला और स्त्री तीनों का स्पंदन है। आइए धीमे-धीमे पुस्तक की गिरहें खोलते हैं और अपनी पसंद की कहानियों पर विस्तार से बात करते हैं-
पुस्तक हाथ में संजोते ही चक्षु प्रथम संवाद आवरण चित्र से करते हैं। हमारे लिये किसी पुस्तक का आवरण चित्र लेखक और पाठक के मध्य संवाद का प्रथम सेतु है। जिस तरह शब्दों के गूढ़ गुम्फित अर्थ होते हैं, उसी तरह चित्रों की भी अपनी भाषा होती है, चित्र भी पाठक से संवाद करते हैं। आवरण चित्र पाठक के लिए किसी न्यौते सा होता है अब वह न्यौता उत्सव का है या रुदाली का यह लेखक के असबाब पर निर्भर करता है। ‘लिट्टी चोखा’ का आवरण चित्र बेहद खूबसूरत है यह एक मधुबनी पेंटिंग है जिसकी रूपरेखा अर्चना जैन की है। एक मिथिला कन्या के आधे मुख को ओढ़नी ने ढांपा हुआ है। माथे पर टिकुली, कान में झुमकी, नाक में मीन नथ पहने हुए आवरण की नायिका चूड़ी से गदराये हुए हाथ में पंखा (बीजना) लिये खड़ी है। उसके मुख पर स्मित मुस्कान है। हमने कभी पढ़ा था की मधुबनी चित्र उकेरते समय नीक भी खाली जगह नहीं छोड़नी चाहिए अन्यथा खालीस्थान में अशुभ या प्रेत का प्रवेश हो जाता है। इसलिए लोक मान्यता के अनुसार सभी चित्रों का रंग और रेखाओं से भराव किया जाता है।
पितृसत्ता के हाथों की कठपुतली बनते हुए स्त्रियाँ भी उसका अनुकरण करने लगती हैं वे स्वयं पितृसत्ता हो जाती हैं। सोचती हूँ सिंहली लड़की के पीछे गीताश्री की क्या प्रेरणा रही होगी! अथिरा का पात्र बेहद रोचक है वे इस कथा की सूत्रधार हैं और गहन तिमिर के मध्य मनुष्य की बाकी रह गयी संवेदनाओं की उजास भी।
‘लिट्टी चोखा’ का आवरण चित्र आपको लोक में प्रवेश करने के लिये जैसे आमंत्रित सा करता है। मधुबनी मिथिलांचल की भौगौलिक विशेषता है ‘लिट्टी चोखा’ का परिवेश यही विदेह है और कहानी के पात्र इसी ‘लोकल’ से उद्भूत हैं। मधुबनी चित्रकला ने लोकल से ग्लोबल तक का सफ़र तय किया है पहले मधुबनी को मिट्टी की दीवार या फर्श पर उकेरा जाता था अब उसे शहरों-महानगरों के हाट बाज़ार या विदेशों में विक्रय करने के लिये कपड़े, कैनवास या हस्तनिर्मित कागज़ पर भी बनाया जाने लगा है। ठीक ऐसे ही ये कथाएँ गाँव-कस्बों की सामाजिकता कभी लांघकर तो कभी साथ लेकर विस्थापन और महानगर के जद्दोजहद से भरे हुए जीवन में आवागमन करती रहती हैं। मधुबनी मूल रूप से महिलाओं द्वारा बरती जाने वाली कला है ‘लिट्टी चोखा’ भी स्त्रियों के कथ-अकथ संसार की गाथा है। कहानी
लिट्टी चोखा जीभ को स्वाद देता है और मन को संतुष्टि। ऐसे ही शब्दों का सही आचरण कहानी का ज़ायका बढ़ाता है वह हमारे विभाजित आत्म और चेतन- अवचेतन मन को आश्रय देता है। किताब का शीर्षक पढ़कर सबसे पहला बिंब जो हमारे जेहन में उतरा वह था – लोक। हमें लोक और उसकी संस्कृति हमेशा से आकर्षित करती रही है, ठीक वैसे ही जैसे प्रकृति की अद्भुत छटा करती है। इस संग्रह में अतीत व वर्तमान और गाँव, क़स्बा एवं महानगर एक कड़ी में गुंथे हुए हैं। चूँकि हमें मिथिला समाज या संस्कृति का कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है तो इस सन्दर्भ से जोड़कर कुछ भी कहना एक किस्म का हस्तक्षेप हो जायेगा। गीताश्री की लेखनी में शब्दों के अंक से लिपटकर उसके पार्श्व में धड़क रहे मौन को प्रस्तुत कर सकने का भरपूर सामर्थ्य है किंतु इसमें निरंतरता का अभाव है। फ़िलवक्त इस संग्रह की एक कथा ‘स्वाधीन वल्लभा’ की प्रथम पंक्ति पढ़िए-
“प्रेम के आस्वाद के लिये भला शब्दों की क्या जरुरत? शायद दुनिया की तमाम भाषाएँ प्रेम के किसी हिमनद से निकली होंगी” प्रेम की तरलता को एक पंक्ति में कितनी खिलावट से सहेजा है लेखिका ने।
‘स्वाधीन वल्लभा’ से ही बात की शुरुआत करते हैं। नीलंती सिंहली है और भारतीय लड़के अरुण से प्रेम करती है। अरुण के रुढ़िवादी परिवार को यह सम्बन्ध कुछ शर्तों के साथ स्वीकार है। किन्तु नीलंती को अपने अस्तित्व से समझौता स्वीकार नहीं। वह स्वभाव से स्वाधीन है। पितृसत्ता के मैल में स्त्रियाँ भी लिपटी हुई हैं यह बताने के लिये लेखिका ने अरुण की माँ का चरित्र गढ़ा है । पितृसत्ता के हाथों की कठपुतली बनते हुए स्त्रियाँ भी उसका अनुकरण करने लगती हैं वे स्वयं पितृसत्ता हो जाती हैं। सोचती हूँ सिंहली लड़की के पीछे गीताश्री की क्या प्रेरणा रही होगी! अथिरा का पात्र बेहद रोचक है वे इस कथा की सूत्रधार हैं और गहन तिमिर के मध्य मनुष्य की बाकी रह गयी संवेदनाओं की उजास भी। कथा के आरम्भ में बार-बार ‘सिंहली लड़की’ या ‘भारतीय लड़का’ कहना हमें खटका।
परिवार से नीलंती के परिचय का प्रसंग ख़ासा रोचक है वह परिवार के साथ एक ठेठ भारतीय लोक समाज की गिरहें भी खोलता है नीलंती को अरुण का प्रेम साहस दे रहा था लेकिन अरुण के लिये नीलंती का प्रेम एक अवसर से अधिक कुछ न था। नीलंती अंत में कहती है “दुनिया की कोई भाषा, कोई भी झूठ, प्रेम के संघर्ष को कमतर नहीं कर सकता” इस कथा की आरंभिक और आखिरी पंक्ति इसका निचोड़ भी है – “ललनाओं का भाग्य वैसे ही घूमता है, जैसे घूमे उनकी मनोवृति’’ ।
किसी भी कहानी में हम अलग अलग डूबते हैं, अलग-अलग तिरते हैं। संग्रह की एक अन्य कहानी है ‘गंध मुक्ति’ मध्यांतर तक आते आते इसे अधबीच छोड़ देने का मन हुआ तब महसूस हो रहा था जल्दबाजी में लिखी गयी है लेकिन क्लाइमेक्स तक आते हुए हमें अपने विचार बदलने पड़े। घर की किवाड़ खुलने से बिंबों का जो आगमन हुआ उसने इस कथा को ख़ास बना दिया।
“माँ बचपन में ही गुजर गयी। हल्की, धुँधली-सी याद है, अँधेरे उजाले में एक परछाई डोलती रहती है। लबादा ओढ़े, भागती हुई हरदम।”
इस एक पंक्ति में इस कहानी का सम्पूर्ण कथानक और मनोविज्ञान छिपा है। कहानी की नायिका सपना एक गंध से परेशान है,गंध किसी रिपुदमन की भांति उसका पीछा करती है। शायद एक या अधिक ख़ास गंध हम सभी में है जिसे हम छपाक-छपाक धुल देना चाहते हैं, मुक्ति पा जाना चाहते हैं। एक गंध मरघट की भी होती है जो आपकी धमनियों में भय को उड़ेल देती है। गंध का अपना मनोविज्ञान है। कहानी में इसलिए भी घुल सकी क्यूंकि एक ख़ास गंध मुझमें भी है, हम सभी में होती है शायद..
जीवन की, मृत्य की, कला की, मौसम की, उत्सव की, उमंग की या घुटन की गंध। ये गंध स्मृतियों संग घुलकर व्यक्ति से पुनः मिलने चली आती हैं। और गंध का पनीलापन नथुनों से ही नहीं समस्त इन्द्रियों से महसूस होने लगता है। बहरहाल, इस कथा का शिल्प नियंत्रित है अन्यथा मेरे जैसे आम पाठक के लिये बोझिल हो सकता था।
अन्य कथाओं में ‘खानाबदोश’ अपनी छाप छोड़ती है लेकिन ‘खोए सपनों का द्वीप’, ‘दगाबाज रे..’की बुनावट अधिक प्रभावित नहीं करती। भाषा की बुनावट और प्रवाह कुछ कथाओं में बेहद सुघड़ है किन्तु बहुत जगह टोक भी पैदा करता है एक कहानी है ‘कब ले बीती अमावास के रतिया’ इसमें देसज और समकालीन (प्रचलित) भाषा दोनों का प्रयोग है लेकिन इसने एक पाठक के तौर पर भाषा का आस्वाद संवर्धित करने के बजाए उसे फीका ही किया। मालूम नहीं क्यूं लेकिन इस संग्रह में लेखिका ने आँखें फ़ैल गईं या पुतलियाँ फ़ैल गईं वाक्य का प्रयोग कई मर्तबा किया है । नजरा गईली गुइयाँ, सुरैया की चिंता न करो टुल्लू, 127 वाँ आदमी उर्फ़ संग्रह की अन्य कहानियाँ हैं। ‘लिट्टी चोखा’ राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।
इस संग्रह की कथाओं का एक बड़ा अंश अभिधा में चलता है लेकिन यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि अभिधा का अर्थ सदैव सपाटबयानी नहीं होता। यदि लेखक की भाषिक संवेदना किसी कथा विशेष को बुनते समय सहज सरल होना चाहती है तो यह उसका अधिकार है। इसलिए एक पाठक के तौर पर इस संग्रह की कुछ कहानियों को हम अभिधा के आरोप से मुक्त करते हैं। फिर भी, कहीं-कहीं परिवेश और चरित्र का गुम्फ़न कुछ और सशक्त हो सकता था।
शब्द कथा को प्रवाह में बाँधते हैं। शब्द अपने गर्भ में न केवल लोक का एक अद्भुत संसार रचते हैं बल्कि उसके भूगोल को भी खोलते है। भाषा बोध की बात करें तो इस संग्रह में भाषा के विस्मृत हो जाने की फ़िक्र है ‘लिट्टी चोखा’ कहानी का एक कथन पढ़िए- ‘स्मृतियों को न मांजों तो चित्तियाँ उभर आती हैं, स्मृतियों से चेहरे गायब थे हुक-सी उठती तो वह अपनी बोली बज्जिका छोड़कर भोजपुरी भाषा बोलने लगती घर के सारे लोग भोजपुरी भाषा भूल गये थे, रम्या नहीं भूली नानी का घर कहाँ भूलता है भला!’
कहानियों का किसी निष्कर्ष तक पहुँचना कितना आवश्यक है? अभी ठीक से नहीं कह सकती लेकिन कभी कभी चुप्पी और अनिर्णय की स्थिति स्वयं में निष्कर्ष होता है। पुनः जीवन का कोई एक फ्रेम नहीं है जिससे चरित्रों का गठबंधन किया जा सके। हमारा व्यक्तिगत मत है कि अमूमन कहानियों में लेखक अपने चेतन-अवचेतन या अपने हिस्से की उस दुनिया में डुबकी मार रहा होता है जिसकी वह कामना रखता है, उस पीड़ा को तिरोहित कर रहा होता है जिससे वह उबरना चाहता है। इसलिए अभिव्यक्ति के खतरे लेखक के हिस्से आते हैं तो निष्कर्ष की सुविधा पर भी उसका अधिकार है।
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