दुखां दी कटोरी : सुखां दा छल्ला ( एक अंश )
गजब थी बेबे। कई मायनों में गजब थी। उसके कानों के कुंडल भी गजब थे। जब हिलते उनकी सुनहरी आब से बेबे का गोरा रंग दप्-दप् दमकता। उसके माथे के ठीक बीचों बीच एक हरी लकीर-सा दाग भी गजब था जो दिखने में डिजायनर बिंदी की तरह लगता।
इन सबके अलावे सबसे गजब था पीठ पर उगा वह छोटा कटोरीनुमा कूबड़, जिसकी वजह से बेबे तनिक झुक कर चलती। कंधे पर पड़ी गोटेदार चुन्नी मौका पाते ही इधर उधर खिसकती जिसे मीठी गालियों की झिड़की दे, तुरंत वह दुरूस्त कर लेती। मुझसे कहती; मैं मर जाउं तो यह कुंडल तू रख लीजो। इनकी लहर संभाल के रखियो।
मैंने हाथ फिरा कर देखा था। बेबे के सुंदर चिकने गुलाबी पैर वैसे ही चपल थे जैसे उनके कानों के कुंडल। मैंने छल्ले पर उंगली फिरायी। घुंघरू का कुंडा था। घुंघरू सारे गिर चुके थे। कुंडा भी दब चुका था लेकिन हाथ फेरो तो ऐसा मालूम पड़ता कोई इबारत वहां खुदी हुई है।
“अन्हरिया रात बैरनिया हो राजा” गीताश्री जी की एक अलग ही स्वाद की कहानी है। लेखिका ने बिम्बों के प्रयोग से स्त्री यौनिकता और लिबिडो को छूने की कोशिश की है. आइये सुनते हैं यह दिलचस्प कहानी चंद्रकांता की आवाज़ में https://gajagamini.in/anhariya-raat-bairaniya-ho-raja-geetashree/
बेबे के दाहिने हाथों में सोने का एक कड़ा था, मैंने सोते वक्त जाने कितनी बार उसे घुमा घुमा कर गुरूमुखी में लिखा उसका ‘वाहेगुरू’ पढ़ा था। हम सभी ऐसे बनाये सोने के कड़े पहनते थे। सोने-जवाहरातों से लदी बेबे तूने चांदी क्यंू पहना- तोषी ने सवाल किया। यह प्रश्न मेरे मन में भी आया था। हमारे यहां चांदी के गहने या तो चूहड़ियां (मेहतरानी) पहनतीं या फिर मुसलमान।
मां ने मुझे समझा दिया थाा। बेबे रोती गाती रहती है डरना मत। गालियां देने लगे तो छेड़ना मत। बडे़ दुख सहे हैं मेरी मां ने। बेबे एक बार शुरू हो जाती तो जल्दी रूकती नहीं वह कहती- जबसे मरा है कुफ्ती दा मारां, मुझे घेर रखा है। हुण मरण दे बाद डंडा लेकर मत्थे ते ही बैठ गया। चौकीदारी करेगा? करे मेरी चौकीदारी। मेरा तो इक्को रब्ब है जेड़ा करेगा मेरी चौकीदारी मैं फिस्स-फिस्स हंसती।
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ओ खसमांनू खाणां… आ तैनू छल्ले पवाहवां… बस शुरू हो जाती बेबे मैं जल्दी से बोलती – बेबे भूख लगी है। बेबे चौक में घुस जाती। इधर परांठो पर गर्मागर्म घी तड़तड़ाता इधर बेबे का आलाप गूंजता –
ओय छल्लिया होया वैरी… वतन माहीया हो गया वैरी……
सोहणा…… वे ढोलणा……
लाड़ लड़ियाते, मुंह में घी- चुक्के पंराठे चुगलाती मैं अपनी बेबे से पूछती, क्यूं बेबे पहले यह निशान नहीं था? था रे ! हल्का था। मरणजोगा, इक जोगी आया द्वारे। कहण लगा – तू पिछले जनम में मुसलमानी थी। नमाज पढ़ती थी। उसी का चिह्न रह गया माथे गल्ती से यह बात तेरे नाने ने सुन ली। बड़ा चिमटा काढ़ लाया चौके से और फिर जो दी गालियां उसे- नासपीटा ! दाढ़ी जला। मुसलमानों का जन्म-धरम होता है? किसे पढ़ा रहा है? भाग यहाँ से…। वह तो पोटली उठाकर जी भागा लेकिन इन्होंने जड़ दिये दो चिमटे मेरी पीठ पे। बड़े दुख सहे हैं मेरी इस पीठ ने।
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