मोहब्बत के अफ़साने जिन्दा रहते हैं वक्त के गुजर जाने के बाद भी ..
प्रेम पत्रों की कड़ी में आज हम बात करेंगे अमृता और इमरोज़ की। अमृता हिंदी और पंजाबी की लेखिका थीं। अमृता का जन्म 31 अगस्त 1919 को Gujranwala, Pakistan पाकिस्तान में हुआ था। साहिर लुधियानवी हिंदी सिनेमा के मशहूर गीतकार और शायर थे। अमृता ने साहिर को एक मुशायरे में सुना और वे उनकी तरफ आकर्षित हो गईं।. अमृता और साहिर के प्रेम को अक्सर ‘प्लेटोनिक लव’ कहा जाता है. यानि ऐसा प्रेम जो देह की सीमाओं से परे हो जो अध्यात्मिक किस्म का हो , जहाँ प्रेम की भावना से ही प्रेम हो । amrita pritam
रसीदी टिकट अमृता प्रीतम की आत्मकथा है जिसमें उन्होंने लिखा था कि साहिल चुपचाप मेरे कमरे में सिगरेट पिया करता था आज ही पीने के बाद में सिगरेट बुझा देता और नई सुलगा लेता जब वह जाता तो मेरे कमरे में उसकी पी हुई सिगरेट की महक बची रहती मैं उन सिगरेट के बटो को संभाल कर रखती और अकेले में उन्हें फिर से सुलगाती जब मैं उन्हें उंगलियों में पकड़ती तो मुझे लगता कि मैं साहिर के हाथों को छू रही हूं ..और इस तरह मुझे सिगरेट पीने की लत लग गई। उधर साहिर भी प्रेम की आँच में बराबर सुलग रहे थे. हमने कहीं पढ़ा था की साहिर ने अमृता की पी हुई चाय की प्याली बरसों तक नहीं धोई और उसे संभलकर रखा।.
इमरोज़ अमृता के जीवन का सबसे खूबसूरत पहलू है उनकी मुलाकात अमृता की पुस्तक ‘आखिरी खत’ के कवर डिजाइन के सिलसिले में हुई थी सिलसिले बढ़ते गए और मुलाकातें भी . अमृता के साथ एक ही छत के नीचे रहे यह एक पाक संबंध था उन्होंने कभी शादी नहीं की। उन्होंने कभी प्रेम का इजहार नहीं किया इमरोज कहते थे जब प्यार है तो बोलने की क्या जरूरत है। Imroz
इमरोज़ जो कि एक चित्रकार थे उन्हें इस बात की खबर थी कि अमृता साहिर से प्रेम करती हैं . बकौल इमरोज अमृता की उंगलियां हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थी. चाहे उनके हाथ में कलम हो या ना हो. उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिख दिया लेकिन क्या फर्क पड़ता है उन्हें चाहती है तो चाहती हैं मैं भी उन्हें चाहता हूं। ऊमा त्रिलोक ने अमृता इमरोज़ पर एक किताब भी लिखी है ।
ख़त
वार्ना, 30 मई 1983
आज से ग्यारह बरस पहले इमरोज़ और मैंने लंदन में एक स्कैंडिनेवियन फिल्म देखी थी, जिसमें मुहब्बत को कल-कल करते झरनों की भाषा में पेश किया गया था। वहां कई थिएटर ऐसे हैं जहां एक ही फिल्म दिन-भर चलती रहती है, और एक पाउंड का टिकट लेकर आगर आप थिएटर में चले जाएं तो एक ही फिल्म को, चाहें तो कई बार देख सकते हैं। इमरोज़ और मैने भी वह फिल्म उस दिन कई बार देखी थी… कहते हैं, उस फिल्म की कहानी एक सच्ची घटना के आधार पर बनाई गई थी। उसमें सर्कस में काम करने वाली लड़की है और फौज का एक सिपाही। दोनों अपने क्षेत्रों से बाहर नहीं आ सकते, लेकिन दोनों को एक दूसरे से बेपनाह मुहब्बत हो जाती है, और उस मुहबब्त का तकाज़ा है कि दोनों को कुछ दिन साथ जरूर जीना है- दोनों अपने-अपने क्षेत्र से बाहर आ जाते हैं, और जानते हैं कि दोनों बहुत जल्दी कानून की पकड़ में आ जाएंगे, इसलिए मौत से उधार लिए हुए दिनों में, वह हर पल फूलों की आब-ताब के समान जीते हैं… २१ मई को बल्गारिया आने से पहले दिल्ली में एक अफ़वाह सुनी थी कि आजकल पंजाब में जैसे कई लोग गोलियों का निशाना बन रहे हैं, मैं भी वैसे ही किसी गोली के निशाने का लक्ष्य हूं… इसे अफ़वाह कहना ही सही है, वैसे मैंने यह बात एक विश्वसनीय सूत्र से सुनी थी… बल्गारिया का निमंत्रण स्वीकार करने की मानसिक दशा नहीं थी, लेकिन जितने भी मेरे शुभ-चिन्तक मेरे पास आए थे, उनका आग्रह था कि मैं यह निमंत्रण ज़रूर स्वीकार कर लूं… और उस समय ग्यारह बरस पहले देखी हुई स्केंडिवियन फिल्म की कहानी मेरे मानस मे घुल गई… और लगा-जिंदगी की आखरी सांस तक, फूलों की आब की तरह जीना है…बाद में बल्गारियन दोस्तों का तपाक भी फूलों को पानी देने जैसा था… लेकिन कभी-कभी घोर उदासियां भी आंखों में जो पानी नहीं ला सकती, किसी दोस्त की मुहब्बत उस पानी का बांध तोड़ देती है… ऐसी घटना दिल्ली में भी हुई थी जब खुशवंत सिंह ने कहा था-“मैं तुम्हें अकेली किसी कचहरी की पेशी में नहीं जाने दूंगा। तुम्हारे साथ रहूंगा। अगर तुम्हें किसी ने गोली मारनी है तो साथ में मुझे भी मार दें…” और ठीक ऐसी ही बात हरिभजन सिंह ने भी कही थी-‘देखो, शायर के तौर पर मुझे जो हासिल करना था, कर लिया है। तालीम के क्षेत्र में भी जो पाना था, पा लिया है। और आलोचक के तौर पर भी जो प्राप्ति करनी थी, कर ली है। अब तुम्हारे साथ मरने को तैयार हूं…’ और अब एकदम पराये देश में आज २५ मई की रात को जब बल्गा-रिया के सबसे प्यारे शायर ल्यूबोमीर लैवचैल ने अपने घर दावत पर बुलाया है, तो चाभियों के गुच्छे में से घर की चाभी निकाल कर मुझे थमा दी है-“यह तुम्हारा घर है, तुम्हारा जब जी चाहे, आकर खोल लिया करना !” लैवचैव के घर की चाभी मैनें अपने माते से लगा कर लैवचैव को लौटा दी, और “कहा, दोस्तो ! तुम्हारी बीवी चित्रकार है, उससे कहो कि इस चाभी का चित्र बनाकर मुझे दे दे। मैं जब तक जीऊंगी-तुम्हारे बोल की निशानी अपने पास रखूंगी।” लेकिन लेवचैव के घर की सीढ़ियां उतर कर, जब में और इमरोज़ अपने होटल के लिए कार में बैठे, तो इमरोज़ के कंधे से सिर लगा कर-मुझे रोना आ गया… सोफिया,-२५ मई, रात साढ़े बारह बजे इस बार ज़िंदगी की गनीमत वाली बात है कि बल्गारिया का निमंत्रण सिर्फ मुझे ही नहीं था, इमरोज़ को भी था, इसलिए सफ़र का एक-एक पल खुशगवार है… सोफ़िया से वार्ना जाते हुए पांच सौ किलोमिटर रास्ते का चप्पा-चप्पा फलों और फूलों से लदा हुआ देखा, तो पता लगा कि कई उजाड़ों का एक-एक एकड़ टुकड़ा, यहां की सरकार ने उन लोगों को बिना किसी मुल्य के, दिया है, जो भी अपनी मेहनत से आबाद करके रख सकतें हैं। शर्त सिर्फ एक ज़मीन पर सारी मेहनत उन्हें अपने ही हाथों से करनी है, किसी मजदूर को उजरत देकर अपने खेत या बगीचे का काम नहीं करवाना है… मैने हंस कर कमरोज़ के कहा, “चलो, यही बस जाएं ! तुम तो जाटों के पुत्र हो, खेती-बड़ी तुम्हारी नसों में है, तुम एक एकड़ ज़मीन आबाद करना, और मैं खेतों में झोंपड़ी डालकर रहूंगी, तुम्हारा खाना पकाया करूंगी…” यह दिन लाल पकी हुई चेरियों के हैं और हमने चेरियों की टोकरी भर कर कार में रखी हुई थी। इमरोज़ ने कहा,”गेहूं और मकई बीजने वाली मेहनत शायद अब मुझ से नहीं हो सकेगी, हम पूरी एक एकड़ ज़मीन में चेरियों के पौधे लगा लेंगे…रोज लाल पकी हुई चेरियां खा लिया करेंगे…तुम पक्की चेरियां तोड़ती रहा करना..” मैं भी उसी रौ में थी, कहा “हां, हम चेरियां चुनते रहेंगे, मैं कभी-कभी नज़्म भी लिख लिया करूंगी, तुम कभी-कभी पेन्ट भी कर लियो करना…” और इमरोज़ ने कहा,”फिर कभी कोई इधर से गुज़रेगा तो पूछेगा,-यहां कहीं एक शायरा की झोंपड़ी है, जो कभी हिन्दुस्तान से आई थी।” “हां, वैसे ही जैसे हमारे दामोदर ने अपनी कहानी में लिखा है कि कोई राही मक्के की ओर जा रहा था। रास्ते में रात हो गई, लेकिन उस भूखे-प्यासे राही के पास न रोटी का एक टुकड़ा था, न एक घूंट पानी, और न ही रात का कोई ठिकाना। उस समय रेगिस्तान में उसे एक झोंपड़ी नज़र आई। वहां पहुंचा तो हीर बीबी ने उसे पानी का कटोरा भर कर दिया, और कहा अभी मियां रांझा भेड़ें चरा कर लौटेगा, तो तुम्हें दुध का कटोरा दूंगी…” और मेरी बात अभी मुहं में ही थी कि इमरोज ने कहा-“वह भी तुम और मैं थे। तब मक्के के रास्ते में जाकर बस गए थे, अब इस जन्म में वार्ना जाने वाले रास्ते पर बस जाते हैं…” और हंसी-हंसी की बात एक ठंडी सांस का मोड़ मुड़ गई, मेरे मुंह से निकला, “यह सियालों और खेड़ों के कर्म हमें हर जन्म में भुगतने हैं ?”
ख़त का यह अंश हमने रचनाकार डॉट ओआरजी से लिया है.
2005 में जब अमृता ने यह दुनिया छोड़ दी तो इमरोज ने लिखा उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं वो अब भी मिलती है कभी तारों की छांव में कभी बादलों की छांव में कभी किरणों की रोशनी में कभी ख्यालों के उजाले में हम उसी तरह मिल कर चलते हैं चुपचाप, हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं, हम फूलों के घेरे में बैठकर एक दूसरे को अपना अपना कलाम सुनाते हैं उसने जिसमें छोड़ा है साथ नहीं..
आप प्रेम की इन यादों में डूबते उतरते रही फिर मिलते हैं सायोनारा !
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