मीडिया विमर्श’ जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका है। इसका जनवरी से मार्च 2021 अंक ‘मीडिया और मूल्य बोध’ विशेषांक है। पत्रिका के संपादक प्रो. श्रीकांत सिंह हैं। मानद सलाहकार संपादकों में प्रोफेसर संजय द्विवेदी, विश्वनाथ सचदेव और अष्टभुजा शुक्ल भी शामिल है। विशेषांक का संपादकीय भारतीय जनसंचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी द्वारा लिखा गया है।
संपादकीय में ‘गणतंत्र में ‘भारत बोध’ की जगह’ पर विमर्श किया गया है। भारत बोध की पहचान प्रो.संजय ने संस्कृति के निरूपण से की है। संपादकीय विमर्श मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी’ की तर्ज पर मीडिया की जिम्मेदारियों को याद दिलाता है। ‘भारत प्रथम’ का मंत्र देकर प्रो. संजय संपादकीय का समाहार करते हुए समाधान के रूप में भारत की समावेशी संस्कृति की प्रस्तावना करते हैं। अपने आलेख में उन्होंने हिंदी अखबारों की भाषा व विमर्श के स्तर और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दल विशेष के प्रवक्ता की भूमिका में मुखर होने पर चिंता जाहिर की है।
इसमें कोई दो राय नहीं की गम्भीर विमर्श के लिए अंग्रेजी अखबारों व पत्रिकाओं की तरफ झाँकना पड़ता है। हिंदी पत्रकारिता समानुपात में लोक विमर्श और संवाद का सार्थक माध्यम नहीं बन सकी है। दरअसल अभिव्यक्ति के खतरे कोई नहीं उठाना चाहता। इसी क्रम में प्रो. संजय एक बड़ा ही वाजिब सवाल उठाते हैं कि – मीडिया की मिलावट को युगधर्म से परे क्यों समझा जाए!’ प्रो. कमल दीक्षित ने मीडिया विमर्श के अकादमिक हो जाने को लेकर अपनी टीस जाहिर की है। खबरों के सत्यम शिवम सुंदरम के स्थान पर सनसनीखेज हो जाने पर वे चिंतित हैं। दुःखद है की आज वे हमारे बीच नहीं रहे। कमल जी का जाना पत्रकारिता की अपूरणीय क्षति है।
आज मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर स्वेच्छाचारिता चरम पर है। कभी मीडिया ‘वॉच डॉग’ की भूमिका में था लेकिन अब खुद मीडिया को एक वॉच डॉग की जरूरत है। इस स्थिति पर मीडिया को आत्ममंथन करना होगा।
गिरीश पंकज जी का लेख बेहद सुरुचिपूर्ण और पठनीय है। मध्यांतर को छोड़ दिया जाए तो इस लेख का आरंभ और समाहार बेहद सुघड़ है। संरचनात्मक दृष्टि से भी यह एक उम्दा आलेख है। प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया पर यह एक संतुलित विमर्श खड़ा करता है। गिरीश जी कहते हैं-‘मूल्यबोध के रास्ते में आर्थिक संकट है’। महादेवी जी का संदर्भ इस आलेख की यूएसपी है। अन्यथा विमर्श करते हुए महिलाओं का उल्लेख यदा-कदा ही पढ़ने को मिलता है । एकाध जगह गिरीश जी की भाषा पर हमारी सहमति नहीं है।
डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने अपने लेख में दिन-प्रतिदिन के जीवन में मीडिया की बढ़ती हुई दखल अंदाजी पर विमर्श किया है। परिवर्तित होती हुई मीडिया संस्कृति ने किस तरह पत्रकारिता के मूल्य बोध को भी प्रभावित किया है इसकी चर्चा उन्होंने की है । उनका मीडिया को ‘खबर पालिका’ कहकर संबोधित करना हमें बेहद सुरुचिपूर्ण लगा। उन्होंने एक बड़ी ही कायदे की बात कही है कि,’ पाठक वर्ग अब उपभोक्ता बन गया है’। पत्रकारिता पूंजी में तब्दील हो गई है। ऐसे में मूल्यों की बात करना बेमानी हो जाता है। पुनः मीडिया समाज सापेक्ष है तो समाज भी मीडिया सापेक्ष है, दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।
संत समीर अपने आलेख में कहते हैं , आज अखबार जनभावनाओं का मुखपत्र न होकर सत्ता का मुखपत्र बन गए हैं। यह आलेख आम आदमी की भाषा में है इसे लेखक की उपलब्धि के बतौर देखा जाना चाहिए। समीर जी ने मीडिया की भाषा पर भी चिंता जाहिर की है। इस आलेख में एक नया शब्द सीखने को मिला – उगलदान। सबसे तेज़ ख़बर के दौर में यह शब्द एक मुहावरे की तरह है।
पत्रकारिता में मूल्यबोध को खंगालते हुए डॉ. धनंजय चोपड़ा ने अपने लेख में बड़ी ही दिलचस्प टिप्पणी की है वे लिखते हैं-‘मिशन(आज़ादी) को लेकर चली पत्रकारिता परमिशन(आपातकाल) के दौर से होती हुई कमीशन(पूंजी) के फेर में फंस गई। इसी सबमें पत्रकारिता के मूल्यबोध खारिज हो गए। इस लेख में एक अन्य नया शब्द सीखने को मिला ‘खबराटक’ अर्थात खबरों को बेचने के लिए किया जाने वाला नाटक। नए शब्द सीखना हमें अच्छा लगता है कुल मिलाकर पत्रकारिता पर विश्वसनीयता का घनघोर संकट है। जिससे उबरने के लिए मीडिया को आत्ममंथन और आत्मशोधन करना होगा। मूल्यबोध की वापसी के लिए हमें परम्परा की तरफ देखना होगा। यह इस मीडिया विमर्श विशेषांक का निचोड़ है संग्रहणीय अंक है। लेकिन सोशल मीडिया पर किसी स्वतंत्र आलेख की कमी खल रही है।फ़िलहाल इतना ही….
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