वरिष्ठ व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा के नवीनतम व्यंग्य संग्रह ‘पांचवां कबीर’ का प्रकाशन तेजी से चर्चित हो रहे इंडिया नेटबुक्स द्वारा किया गया है। बुलाकी जी सहायक लेखाधिकारी, राजस्थान सरकार से स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर पूर्ण रूप से स्वतंत्र लेखन में सक्रिय है। आप बहुविधा के लेखक हैं आपने व्यंग्य, कहानी, बाल साहित्य, नाटक आदि अनेक विधाओं में निरंतर कार्य किया है। व्यंग्य स्तंभ लेखन का आपका दो दशक का अनुभव है। आइए व्यंग्य संग्रह की पड़ताल करते हैं। संग्रह के पात्र और कथानक बेसब्री से आपकी बाट जोह रहे हैं-
इस व्यंग्य संग्रह का कथानक समकालीन समाज, राजनीति और साहित्य है। पिछले लगभग डेढ़ वर्ष से कोरोना भी जीवन का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है तो एक सजग व्यंग्यकार के तौर पर बुलाकी जी ने कोरोना पर भी कलम-कूची चलाने से परहेज नहीं किया। कवि पात्रों पर लेखक की विशेष अनुकम्पा है। कवि अचूकानंद, कवि सुखलाल धाकड़, कवि सनीचर, कवि बतूलिया ..कवियों की एक लंबी फ़ौज है संग्रह में।
पांचवां कबीर, शबरी के बेर, चाटुकारिता की चाट, जान है तो जहान है, सदियों पुरानी है गरीबी, कबीर की काली कम्बलिया, इस संग्रह की प्रमुख रचनाएं हैं। हमें उनके एक व्यंग्य ’प्रेम प्रकरण पत्रावली’ में किये प्रयोग अच्छे लगे जहाँ प्रेम को सरकारी पत्रावली की भाषा में लिखा गया है, उत्तर नहीं आने की स्थिति में ’प्रेम होने या न होने के संबंध में’ पुनःपत्र भेजा जाता है। यह निश्चय ही एक रोचक प्रयोग है। संग्रह के अधिकांश व्यंग्य परिस्थितिजन्य हैं, विषयों की समसामयिकता पाठक को सीधे जोड़ लेती है। इस संग्रह की हमारी पसंदीदा रचना ‘पिता की फ्रेंड रिक्वेट’ रही। फेसबुक पर मित्रता निवेदन के प्रसंग में पीढ़ीगत अंतराल को बड़े ही रोचक तरीके से बतौर व्यंग्यकार आपने बुना है। satire एक उदाहरण देखिए-
“पूरे तीन दिन हो गए हैं। उसने उनकी फ्रेंड रिक्वेस्ट दबा रखी है। एक्सेप्ट नहीं कर रहा।..उसे बेशर्मी से दबाए बैठा है। वे कितनी ही बार बेटे की फेसबुक वॉल पर ताका-झांकी कर आए हैं।.. किंतु उन्होंने अपने गुस्से को कंट्रोल किए रखा। कमेंट करेंगे तो बेटे को मालूम पड़ जाएगा कि वे उसकी फेसबुक वॉल पर लुके-छिपे चहलकदमी कर रहे थे।”
इन पंक्तियों में ‘दबा कर रखी है’, ‘एक्सेप्ट नहीं कर रहा’, ‘बेशर्मी से’, ‘ताका-झांकी कर आए’, ‘कमेंट करेंगे’ और ‘लुके-छिपे’ में पीढ़ियों के छुपा हुआ तनाव फूटने को आतुर है। विद्या और कहन की शैली कोई भी हो ऐसे भाव एक सक्षम लेखक ही उभार सकता है।
बुलाकी जी की एक विशेषता जिसका जिक्र हम करना चाहेंगे वह है ‘आत्मव्यंग्य की उनकी प्रवृति’। कायदे से, सबसे उम्दा व्यंग्यकार वही है जो अपना उपहास भी कर सके। संग्रह की आखिरी रचना ‘ मेरी डायरी के कुछ चुनिंदा पृष्ठ’ में उन्होंने अपने नाम ‘बुलाकी’ को लेकर जो व्यंजना की है वह अद्भुत है।
पीढ़ीगत अंतराल की चुनौती प्रत्येक पीढ़ी के समक्ष रही है। साल भर पहले हमने डॉ. प्रेम जनमेजय की व्यंग्य रचना ‘मोची भया उदास’ पढ़ी थी। पीढ़ीगत अंतराल और पीढ़ियों के आचरणगत अंतर को जिस खूबसूरती से वहाँ बयान किया गया था कुछ ऐसा ही यहाँ भी है।
‘लॉकडाउन में अपनों की परख’ रोचक हास्य रचना है। ‘बापू के तीन बंदर’ और ‘ प्याज़ की खुशबू : व्यंग्यकार की बदबू’ रचना व्यंग्य के परिपक्व बोध और लेखक की राजनीतिक समझ की नजीर पेश करती है । ‘शाहीन बाग़ में बापू’ भी उत्तम व्यंग्य रचना है। ‘इश्क आशियाना और टावर’ में व्यंग्यकार ने शोले फिल्म के वीरू के टंकी वाले प्रसंग और अपना आशियाना बचाने की जुगत लगाते दो युवकों का सादृश्य रोचक बन पडा है। ‘मम्मियों के चेहरे वाली चिंताएं’ व्यंग्य बाल चेतना की दृष्टि से लिखा गया है व्यंग्य में इस तरह के प्रयोग और भी होने चाहिए यह व्यंग्य के वितान का विस्तार करेगा। समग्र रूप से बुलाकी जी ने अपनी लघु वाक्य संरचना और विशिष्ट भाषाई बुनावट के माध्यम से साहित्य व समाज में सेंध लगाए हुए दोहरे चरित्रों को खँगाला है और एक सजग व्यंग्यकार के तौर पर सच कहने का जोखिम भी उठाया है ।
बुलाकी जी की एक विशेषता जिसका जिक्र हम करना चाहेंगे वह है ‘आत्मव्यंग्य की उनकी प्रवृति’। कायदे से, सबसे उम्दा व्यंग्यकार वही है जो अपना उपहास भी कर सके। संग्रह की आखिरी रचना ‘ मेरी डायरी के कुछ चुनिंदा पृष्ठ’ में उन्होंने अपने नाम ‘बुलाकी’ को लेकर जो व्यंजना की है वह अद्भुत है। इस स्वरचित राजस्थानी व्यंग्य रचना का अनुवाद भी उन्होंने स्वयं ही किया है । इस आत्मव्यंग्य का एक प्रसंग देखिए-
“शहर से बाहर के लोग तो वर्षों तक मुझे ‘मादा’ समझ वैसा ही व्यवहार करते रहे।”
रेतीले धोरों, ठेठियाँ, गुमेज जैसे देसज शब्दों से संग्रह समृद्ध है। शब्दों का यह स्वाभाविक आगमन और देस की सौंध एक पाठक के तौर पर हमें हमेशा आकर्षित करती है। सम्पूर्ण संग्रह में पधारो म्हारे देस’ की मिठास आच्छादित है। स्वयं व्यंग्यकार प्रौढ़ की भूमिका में है जिसने बच्चों की तरह संकेतों और प्रतीकों को अपनी पीठ पर लादकर अपने लेखकीय उद्देश्यों को लक्षित किया है। राजस्थानी दोहे, मुहावरे और लोकोक्तियों ने परिवेश को अधिक सम्प्रेषणीय बना दिया है – दंद न फंद , घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध- और ऐसी ही अनेक वाक् रीतियों के माध्यम से लेखक ने मन की बात की है । अनुचित के प्रति आक्रोश, उपहास, कटाक्ष, विनोद-हास्य के यथास्थान प्रयोग और विट शैली ने शब्दों की व्यंजना को निखार दिया है । शब्द शक्ति का सुघड़ प्रयोग इस संग्रह को पठनीय बनाता है। व्यंग्यकार के पास एक अच्छा ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ है।
‘पांचवां कबीर’ के कुछ व्यंग्य ऐसे भी हैं जिनमें स्थानीयता और तात्कालिक स्थितियाँ हावी हैं। इसके अतिरिक्त ओपन, अपसेट, कैप्शन, फ्रेंड रिक्वेस्ट जैसे शब्दों का भरपूर प्रयोग है आप इसे सामयिक या सोशल मीडिया की प्रचलित भाषा समझकर भी स्वीकार कर सकते हैं। अंग्रेजी का प्रयोग रचना को सामयिक भले ही बनाता हो लेकिन हमें बाधा लगता है, विशेषकर, जहाँ हिंदी में सहज और सम्प्रेषणीय शब्द उपलब्ध हों वहाँ इससे बचना चाहिए। संग्रह का प्रतिनिधि व्यंग्य ‘पांचवां कबीर’ शब्दों की दृष्टि से सम्पन्न और अर्थशक्ति की दृष्टि से गहन है किंतु सहज सम्प्रेषण की दृष्टि से यह कहीं कहीं क्लिष्ट प्रतीत हुआ। और अधिक विवेचन करें तो ‘कवि,कवि-धर्म और कोरोना’ रचना में व्यंग्य धीमी आँच पर नहीं पक नहीं सका। ‘हैप्पी बर्थडे बीकाणा’ में राजस्थानी पढ़ना रस देता है, विषय भी अनन्य है। लेकिन यह रचना पूर्णरूपेण हिंदी में ही होती तो इसका प्रभाव अधिक हो सकता था, ऐसा हमारा व्यक्तिगत मत है। ईमानदारी से कहें तो एक पाठक के तौर पर इस रचना का ग्रहण कमतर रहा।
अंत में, हास्य और व्यंग्य दोनों ही स्पंदन में चुहल भरे होते हैं और प्रायः आनंदित करते हैं। किंतु, जहाँ हास्य का स्वभाव आमोद- विनोद भरा होता है वहाँ व्यंग्य का स्वभाव अघातपूर्ण होता है। चूँकि व्यंग्य विसंगति या उसके कारकों पर व्यंजना का काज करता है इसलिए कठोर हो जाना उसकी प्रवृत्ति है। बौद्धिक वैदग्धय से पूर्ण यह संग्रह हास्य-व्यंग्य का सम्मिश्रण है ।
राजस्थानी और हिंदी में व्यंग्य व कथा लिखने वाले बुलाकी जी दैनिक भास्कर बीकानेर में साप्ताहिक स्तंभ ‘उलटबांसी’ भी लिखते हैं।‘मरदजात अर दूजी कहाणियां’ के लिए आपको साहित्य अकादमी (नई दिल्ली) का पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। ‘पांचवां कबीर’ बांचकर आपको और अधिक पढ़ने का मन होता है। सार्थक लिखते रहिए । अपनी आत्मकथा पर सुविचार भी यदि लेखक व्यंग्य में करें तो यह पाठकों व स्वयं लेखक द्वय के लिए आम के आम गुठलियों के दाम वाली बात होगी।
स्वस्तिकामनाएँ।
चंद्रकांता
श्री शिवताण्डवस्तोत्रम् Shri Shivatandava Strotam श्री रावण रचित by shri Ravana श्री शिवताण्डवस्तोत्रम् Shri Shivatandava…
बोल गोरी बोल तेरा कौन पिया / Bol gori bol tera kaun piya, मिलन/ Milan,…
तोहे संवरिया नाहि खबरिया / Tohe sanwariya nahi khabariya, मिलन/ Milan, 1967 Movies गीत/ Title:…
आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहीं / Aaj dil pe koi zor chalta nahin,…
हम तुम युग युग से ये गीत मिलन के / hum tum yug yug se…
मुबारक हो सब को समा ये सुहाना / Mubarak ho sabko sama ye suhana, मिलन/…
This website uses cookies.