डॉ. लालित्य ललित से साक्षात्कार / Interview with Dr. Lalitya Lalit by Chandrakanta

लेखकीय खेमों में जब खुद को सबसे बड़ा वामपंथी या सबसे बड़ा दक्षिणपंथी बताने की होड़ सी लगी रहती है, ऐसे में ललित जी का सहजता और समरसता के साथ लेखन करना सुखद है।  आइये झाँकते  हैं कवि और व्यंग्यकार डॉ. लालित्य ललित / Dr. Lalitya Lalit के समरस व्यक्तित्व में –

सवाल: हाल ही में आपने दो वृहद व्यंग्य परियोजनाओं का संपादन किया है. ‘अब तक 75’ और ‘21 वीं सदी के श्रेष्ठ व्यंग्यकार’ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यंग्यकारों की पहचान करना और उन्हें इस संकल्प से जोड़ना निश्चित ही आसान कार्य नहीं रहा होगा. एक संपादलेखकों और सह-संपादकों के साथ कभी तालमेल या अहम् की समस्या से जूझना पड़ा?

लालित्य ललित: देखिये मुझे देश और विदेश के सक्रिय लेखकों को जोड़ना आरम्भ से ही अच्छा लगता है कि वे सब एक मंच हो और पाठकों को उनकी रचनाओं से लाभ मिल सकें और उनकी रचनात्मकता से परिचय भी हो सकें।यह विषय बहुत बड़ा है और यह सब इस छोटे से साक्षात्कार में समेट पाना सम्भव नहीं,फिर कभी अलग से इस पर बात होगी।

सवाल: ‘अब तक 75’ में डॉ.  हरीश कुमार और ‘ 21 वीं सदी के श्रेष्ठ व्यंग्यकार’ में डॉ.  राजेश कुमार के साथ सह-संपादक के रूप में कार्य करने का अनुभव कैसा रहा? क्या कभी तालमेल या अहम् की समस्या से जूझना पड़ा?

लालित्य ललित: मुझे कभी भी कोई दिक्कत नहीं होती।मैं हमेशा प्लानिंग करके ही काम करता हूँ,बेशक इस मामले में कई बार पत्नी से डांट भी खानी पड़ जाती है। 75 की योजना साकार हुई और 131 की भी।अब इससे बड़ी योजना को साकार करने की तैयारी है।मेरे दोनों सहयोगी बड़े कूल टाइप है और मैं भी समयबद्ध योजना बना कर ही किसी भी काम को आगे बढ़ाता हूँ।आप देखियेगा आगे भी इसी तरह की सार्थक योजनाओं पर काम करेंगे और इसके परिणाम सामने आएंगे।

सवाल: आप नेशनल बुक ट्रस्ट में संपादक हैं।  संपादन एक कला है।  लेकिन आजकल दस पंद्रह रचनाओं को इकठ्ठा कर खुद को संपादक समझ लिया जाता है।  बहुत बार सम्पादकीय भूमिका को महत्व नहीं दिया जाता।  आप संपादन के लिये जरुरी बातों की जानकारी दें।  

लालित्य ललित: देखिये हमारे यहाँ जो भी संचयन तैयार हुए है वे बेशक अनंत विजय हो या अरुण भगत।इन दोनों संपादकों ने बड़ी मेहनत से अपनी योजनाओं को साकार किया है। हम संचयन हेतु एकमुश्त राशि अपने संपादकों को देते है और भागीदार सहयात्रियों को मानार्थ प्रति व नियमानुसार मानदेय भी देते हैं।ऐसा नहीं है कि कोई भी व्यक्ति संचयन कर दें,जाहिर है कि किसी योग्य और अनुभवी व्यक्ति को ही यह कार्य दिया जाता है कि जो निश्चित अवधि में कार्य पूरा कर सकें।

सवाल: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की ‘नवसाक्षर’ संकल्पना क्या है?  इसका क्या हासिल रहा?

लालित्य ललित: इस पुस्तकमाला में हम 18-35 आयु वर्ग के पाठकों के लिए कहानियां,रोचक जानकारी,मनोरंजन,हास्य व्यंग्य और तकनीक से जुड़े विषयों को आधार बना कर पठनीय सामग्री देते है जिससे उनके ज्ञान में वृद्धि हो सकें और वे अपना छोटा मोटा व्यवसाय भी आरम्भ कर सकें।अब तक लगभग 300 से ज्यादा पुस्तकें हम इस पुस्तकमाला में प्रकाशित कर चुके है। कार्यशालाओं में भी हमें कई बार बहुत अच्छी रचनाएँ मिल जाती है।अनेक लेखक एक जगह मिलते है और उन रचनाओं का फील्ड टेस्ट भी किया जाता है ताकि लेखकों को अपनी कहानी की कमीं का भी पता चल सकें।

सवाल: यह बात अक्सर सुनने को मिलती है की पुस्तकें तो खूब प्रकाशित हो रही हैं लेकिन पुस्तकों को अब पाठक नहीं मिलते! जितनी भीड़ पुस्तक मेलों के दौरान देखने को मिलती है, उस अनुपात में क्या पुस्तकों की बिक्री भी हो रही है? इन पुस्तक मेलों की उपयोगिता क्या है? आपको राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुस्तक मेले आयोजित करने का लंबा अनुभव है । क्या  पुस्तक मेले केवल ग्लैमर और पुस्तक विमोचन का मंच बनकर रह गये हैं?

लालित्य ललित: देखिये,आज इंटरनेट कितना ही जंजाल अपना फैला लें,लेकिन मुद्रित अक्षर की अपनी महत्ता है,शब्द की अपनी शक्ति है,निश्चित ही किंडल और ई बुक्स के जमाने में छपे शब्द की भूमिका बरकरार है।पुस्तक मेलों के जरिये लाखों पुस्तकें एक ही परिसर में मिल जाती है,सम्वाद होते है औऱ अपने पंसदीदा लेखकों से मिलना भी हो जाता है। पुस्तक विमोचन तो मेलों का आजकल एक अनिवार्य हिस्सा है।उसके लिए लेखक मंच बनाएं जाते है।

सवाल: आप आकाशवाणी से भी जुड़े रहे हैं।  आपके अनुभव बताइये।  

लालित्य ललित: अब तक मैं रायपुर,बिलासपुर,दिल्ली, जयपुर,धर्मशाला आदि आकाशवाणी केंद्रों से प्रसारित हो चुका हूँ।अच्छा लगता है कि आपकी आवाज दूर दराज के लोग सुनते है और आपको को फोन कर बताते भी है,कई बार मैं खुद के कार्यक्रम नहीं सुन पाता।लेकिन यहाँ के अनुभव बेहद रोचक है।आपकी भाषा संतुलित हो जाती है यानी कम शब्दों में आपकी बात सम्प्रेषित हो जाती हैं।

सवाल: आपने रामलीला में भी अभिनय किया है और शिव की भूमिका निभाई है।  अभिनय से आपका प्रेम कितना गहरा है? कभी थियेटर से जुड़ने का ख्याल नहीं आया?

लालित्य ललित: मुझे कभी भी कोई रोल मिलता था,वह मैं बखूबी निभाता।कालेज में भी कई बार अभिनय किया।एक बार सोचा भी था कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से भी एक्टिंग का कोई कोर्स कर लूं।लेकिन वह सम्भव नहीं हुआ। लेकिन जो भी पात्र का अभिनय करने को मिला,उसे बखूबी निभाया। जहाँ तक थियेटर की बात है कह लीजिए  वह मौका ही नहीं आया।पिता जी सरकारी सेवा में रहे और नाटकों के प्रति घर में किसी की कोई रुचि नहीं थीं।

सवाल: आपका सम्पादकीय अनुभव क्या कहता है रचनाकार अपने लोक से कितना जुडा हुआ है? 

लालित्य ललित: निश्चित ही लेखक अपनी परिस्थितियों से जुड़ा हुआ वह सक्रिय अंग होता है जिसे लिखना ही है और वह उसी कारण,अपने परिवेश से न्याय कर पाता है।

सवाल: आपका एक व्यंग्य है ‘लाकडाउन में पधारे भगवान् जी’ इस व्यंग्य को पाठकों ने खूब पसंद किया।  एक पाठक के तौर पर यदि मुझसे पूछा जाये तो मेरा स्पष्ट मानना है इस व्यंग्य का नाटकीय मंचन किया जाना चाहिए।  आपको कभी ऐतिहासिक चरित्रों या मिथकीय पात्रों पर व्यंग्य लिखने का ख्याल नहीं आया?

लालित्य ललित: बहुत अच्छा सवाल किया,मैंने अब तक जितने भी व्यंग्य लिखें,उन के बारे में ग्वालियर की गीतांजलि गीत ने कहा कि इन पर मंचन किये जाने चाहिए,व इस सन्दर्भ में कोलकाता की एक मशहूर रंगमंच से जुड़ी महिला रचनाकार ने भी मेरे व्यंग्य को मंचित करने में अपनी रुचि व्यक्त की हैं।

सवाल: कविता या व्यंग्य आपका पहला प्यार कौन सा है ? आपकी लेखकीय यात्रा की शुरुआत किस तरह हुई?

लालित्य ललित: दोनों विधाओं से प्रेम है।कविता से पहला प्रेम है और व्यंग्य से दूसरा।पर आजकल दोनों विधाएं समांतर चल रही हैं।रवींद्रनाथ त्यागी की परंपरा का संवाहक हूँ,ऐसा समझ लीजिए।लिखना बहुत अरसा पहले ही शुरू हो गया था जब मैं आठवीं का स्टूडेंट था। यह रचनात्मक प्यार आज भी जारी हैं।

सवाल: आपकी व्यंग्य रचनाओं में एक अनूठा प्रयोग देखने को मिलता है।  आपके व्यंग्य लंबी कविताओं से सुसज्जित होते हैं।  इस तरह के अभिनव प्रयोग की प्रेरणा कैसे मिली? 

लालित्य ललित: ये प्रयोग ख़ुद ही किया,ऐसा मान लीजिए,वन गेट वन फ्री।यानी कम्बो कम्बीनेशन। यहाँ प्रेरणा किसी से नहीं मिलीं,यदि किसी दिन व्यंग्य से कविता गायब होती है तत्काल प्रेम जनमेजय जी का फोन आ जाता है कि आज क्या हुआ! कविता कहाँ गई! तो मैं यह कहता हूँ कि कविता आजकल ज्यादा व्यस्त हो गई।

सवाल: लालित्य ललित सदैव एक्टिव मोड में रहते हैं।  ठीक इसी तरह आपकी रचनाओं के पात्र भी हैं।  आपकी संवेदना का विस्तार बहुत बार विस्मित कर देता है।  अपने व्यंग्यों के माध्यम से आप छज्जे से संवाद करते हैं,  आपकी व्यंग्य रचनाओं के केन्द्रीय पात्र विलायती राम पांडेय जी के रूप में आपके सपने बड़े ही रचनात्मक होते हैं, आप खाँसी, सड़क और गुमटी वाले पर लिखते हैं।  इस ऊर्जा का स्त्रोत क्या है?

लालित्य ललित: यह सही बात है कि मुझे अपना छज्जा बेहद पसंद है वह मेरी रचनात्मक अभिव्यक्ति का प्रसारण केंद्र है।आज पांडेय जी के दो दर्जन दोस्त,मित्र और रिश्तेदारों के समूह है जिनसे वे अक्सर भिड़े रहते है।यह एक जुनून है जो लगातार जारी है। लिखना मुझे पसन्द है उसके बिना मैं रह नहीं सकता।

सवाल: स्थापित व्यंग्यकारों में एक बात बेहद मान्यता प्राप्त है की ‘वंचितों का उपहास नहीं करना चाहिए’ लेकिन उनके लेखकीय आचरण में इस बात की अक्षुण्णता खंडित होती रही है।  ऐसे शब्दों का प्रयोग सर्वथा निषिद्ध होना चाहिए जिनके साथ गरिमा हनन की मंशा रूढ़ हो चुकी है। ।  क्या हम वैश्या की जगह गणिका या नौकर के स्थान पर सहायक शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते?  

लालित्य ललित: मैं आपके सवाल से सहमत हूँ कि निश्चित ही वंचितों पर व्यंग्य नहीं किया जाना चाहिए और भाषा की शब्दावली भी ऐसी हो जिसे तर्कसंगत कहा जा सकें।आखिर आपकी रचनाओं को एक परिवार द्वारा पढ़ा जाता है।हमें गरिमा का ध्यान हर हाल में रखना ही होगा।जितने भी व्यंग्यकार है,वे भी मेरी बात से सहमत होंगे।

सवाल: क्या हम रचनात्मक रूप से इतने पंगु हैं की अपनी शब्दावली में हिंसक हुए बगैर लेखन नहीं कर सकते?   

लालित्य ललित: मैं यह कहता हूँ कि व्यंग्यकार को भाषा की तमीज और संस्कृति के विरुद्ध कभी जाना ही नहीं चाहिए।हिसंक होना व्यंग्यकार को शोभा नहीं देता।व्यंग्यकार बेशक शारीरिक रूप से कमजोर हो लेकिन भाषा के स्तर पर वह हमेशा समृद्ध और शक्तिशाली रहा है और रहेगा।   

सवाल: लेखक समाज की समस्याओं से काटकर नहीं रह सकता।  आप एक बेटी के पिता हैं।  आपकी कविताओं में किशोरवय से यौवन की दहलीज़ पर कदम रखती हुई बेटियों का मन, प्रेम, कशमकश, गड्ड मड्ड होती जा रही व्यवस्था को लेकर उनकी शिकायतें, घर-परिवार की फ़िक्र और भी बहुत कुछ है।  हमारी बेटियों के लिये परिवार की संकीर्णता, सिनेमा, वेब सीरीज और फूहड़ गानों ने मिलकर जो एक असुरक्षित माहौल बनाया है उस पर आप क्या कहना चाहेंगे! आप एक बेटे के भी पिता हैं।  क्या बेटों की परवरिश में हमसे कुछ चूक हुई है?     

लालित्य ललित: कुछ लोग बेटी और बेटों की परवरिश में फर्क समझते हैं,लेकिन मैं नहीं मानता।कि ऐसी कोई दुर्भावना मन में लानी चाहिए।लेकिन बच्चों को निरंतर समझाने का उपक्रम जरूर करता हूँ कि आने वाला समय इससे भी खराब होगा।जरूरत है अपने पांवों पर खड़े होने की,वह तभी होगा जब आप शिक्षा का महत्व समझ लेंगे।इसलिए हर पिता की तरह मैं अपने बच्चों को समझाता भी हूँ।

सवाल: आपके पसंदीदा मंचीय व्यंग्यकार कौन हैं?

लालित्य ललित: अरुण जैमिनी से लेकर,जैमिनी हरियाणवी,महेंद्र शर्मा जैसे अनेक लेखक है जिन्हें मैं पसन्द करता रहा।वैसे यह कतार खासी लम्बी है,जिसमें चिराग जैन,मंजीत सिंह,दीपक सरीन,दिनेश रघुवंशी तक शामिल है।

सवाल: आपको लगभग तीन दशकों का लेखकीय अनुभव है इस दौरान किन लेखकों या व्यक्तित्वों ने आपको गहरा प्रभावित किया?

लालित्य ललित: हर लेखक के पास एक समंदर है।विजयेन्द्र स्नातक,रामदरश मिश्र से लेकर तमाम लेखक है जिनसे बहुत कुछ सीखा और पाया है।आप मेरी पुस्तक सीधी बात साहित्यकारों से देख सकती है जो सस्ता साहित्य मंडल ने प्रकाशित की है।

सवाल: आप खूब यात्राएं करते हैं।  यात्राएं हमें खूब सारा अनुभव देती हैं यात्राएं हमारी रचनात्मक प्रेरणा भी बनती हैं।  आपकी किसी यादगार यात्रा के बारे में बताइए? 

लालित्य ललित: लगभग दर्जन के करीब यात्राएं की है लेकिन नाइजीरिया के अनुभव बेहद जटिल है।मैं तो यह कह सकता हूँ कि हर यात्रा आपको समृद्ध करती है।हर यात्राओं के किस्से कई घण्टे ले लेंगे,इसलिए विस्तार से बताना सम्भव नहीं।पर विदेश की यात्राओं में आनंद अवश्य आता है और सीखने को बड़ा मिलता हैं।

सवाल: अक्सर वरिष्ठ लेखक साहित्यकार यह आरोप लगाते हुए पाए जाते हैं की ’युवाओं में धैर्य नहीं है या वे छपास के रोग से पीड़ित हैं’ ।  युवाओं को सार्थक मंच देने का आपका संकल्प किसी से छिपा नहीं है।  इस तरह के पूर्वाग्रहों पर आपकी क्या राय है? भविष्य के लिये क्या योजनायें हैं? 

लालित्य ललित: यह सही बात है कि आजकल धैर्य नामक शब्द उनकी शब्दावली में नहीं है।कुछ लोग आपसे इसी कारण जुड़ते है कि वे रातोंरात प्रसिद्ध हो जाएं,पर ये कहाँ सम्भव हैं।सृजनात्मक होने में समय लगता है।अनुभव कोई एक दिन में नहीं आता।इस मंशा को समझना होगा। कुछ लोग जो मैगी नूडल के जमाने से है उनको फौरन पहचान कर तत्काल पल्ला झाड़ लेना चाहिए।

xx यह साक्षात्कार 15 अक्टूबर 2020 को हिमाचल अकादमी के साहित्य कला संवाद मंच से संवादकर्ता चंद्रकांता द्वारा लिया गया था xx

ChandraKanta

Recent Posts

नदिया किनारे हेराए आई कंगना / Nadiya kinare herai aai kangana

नदिया किनारे हेराए आई कंगना / Nadiya kinare herai aai kangana, अभिमान, Abhimaan 1973 movies…

11 months ago

पिया बिना पिया बिना बसिया/ Piya bina piya bina piya bina basiya

पिया बिना पिया बिना बसिया/ piya bina piya bina piya bina basiya, अभिमान, Abhimaan 1973…

11 months ago

अब तो है तुमसे हर ख़ुशी अपनी/ Ab to hai tumse har khushi apni

अब तो है तुमसे हर ख़ुशी अपनी/Ab to hai tumse har khushi apni, अभिमान, Abhimaan…

11 months ago

लूटे कोई मन का नगर/  Loote koi man ka nagar

लूटे कोई मन का नगर/ Loote koi man ka nagar, अभिमान, Abhimaan 1973 movies गीत/…

11 months ago

मीत ना मिला रे मन का/  Meet na mila re man ka

मीत ना मिला रे मन का/ Meet na mila re man ka, अभिमान, Abhimaan 1973…

11 months ago

तेरे मेरे मिलन की ये रैना/ Tere mere milan ki ye raina

तेरे मेरे मिलन की ये रैना/ Tere mere milan ki ye raina, अभिमान, Abhimaan 1973…

11 months ago

This website uses cookies.