Gender disparity: Shackled in the centuries-old discriminating taboos of menstrual flow, Indian woman is yet subjected to untouchability during her periods. Lack of affordable sanitary mechanisms in place has considerably added to her woes. Recently, a spur in cost-effective production of Sanitary Napkins by some young village entrepreneurs like Arunachalam Muruganantham (jayshree industries) is easing women off this burden and improving feminine hygiene, effectively.
एक आम भारतीय के मनस में माहवारी एक ऐसा कांसेप्ट है जो महीने में कुछ दिनों के लिए प्रत्येक महिला को अछूत बना देता है. मासिक धर्म 10-11 वर्ष से अधिक उम्र की लड़कियों में प्रत्येक महीने होने वाली वह जैविक प्रक्रिया है जिसमें तीन या अधिक दिनों तक उन्हें यौनिक रक्तस्राव की पीड़ादायक स्थिति से गुजरना पड़ता है. मासिक धर्म महिलाओं की बच्चे को जन्म दे सकने की क्षमता से जुड़ा हुआ है. भारत में आमतौर पर मासिक धर्म की समाप्ति की उम्र 45-50 वर्ष है जिसे मीनोपाज़ कहा जाता है. यह एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिस पर स्वयं घर की महिलायें भी आपस में बात करने से और अपने अनुभव साझा करने से झिझकती हैं. माहवारी को लेकर सही जानकारी और पर्याप्त सैनेटरी सुरक्षा के अभाव में महिलाओं को कई गंभीर बीमारियाँ घेर लेती हैं. भारतीय स्वास्थ्य सुरक्षा मिशन में भी महिलाओं की इस समस्या की अनदेखी की गयी है.
परंपरागत समाजों में आज भी एक महिला को मासिक धर्म के वक़्त सामाजिक / पारिवारिक बायकॉट का सामना करना पड़ता है. रसोई घर में नहीं जाना, पूजा नहीं करना, देवी-देवताओं को नहीं छूने दिया जाना, जमीन पर सोने को बाध्य करना, खेतों में नहीं जाने देना, पशुओं को नहीं छूने देना आदि मासिक दिनों में महिलाओं पर थोपे जाने वाले प्रतिबन्ध हैं. जरा उन महिलाओं के बारे में सोचिये जो दैनिक मजदूरी पर काम करती हैं और जिनके पास पर्याप्त सैनिटरी सुरक्षा उपलब्ध नहीं है. उनके लिए यह आजीविका का संकट बन जाता है.
Sanitary Napkin यह टैबू इतना अधिक शक्तिशाली है की महिलायें केमिस्ट की दुकान से सैनिटरी नैपकिंस या महिलाओं की फेमिनिन सुरक्षा से जुड़ा हुआ अन्य सामान लेने में परहेज़ करती हैं. इसलिए प्रशासन को चाहिए की वह विशेषकर गाँव-कस्बों में महिलाओं द्वारा चालित ग्रोसरी और कास्मेटिक की दुकानों, महिला दर्जियों और महिला ब्यूटी पार्लरों के माध्यम से इस तरह की आवश्यक सैनिटरी वस्तुओं और अंडरगारमेंट्स की सस्ती बिक्री की व्यवस्था करे. प्रशासन को एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जहाँ सरकारी मदद से महिलाओं द्वारा महिलाओं के लिए उनकी स्वच्छता जरूरतों को पूरा करने वाला एक ‘हाइजीन चैनल’ बनाया जाएगा.
जैसे-जैसे देश में महिलाओं की आर्थिक सहभागिता बढती जा रही है वैसे ही उनके लिए ठोस सैनिटरी सुरक्षा के कदम भी उठाने होंगे. कार्य क्षेत्र की भाग-दौड़ और काम के व्यस्त घंटों के चलते उन्हें कपडे के स्थान पर कहीं अधिक टिकाऊ सैनिटरी नैपकिन की जरुरत है जिसके लिए देश भर में सीमित रूप से कुछ महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट भी चलाये जा रहे हैं.
सैनेटरी नैपकिन से सम्बंधित प्रोजेक्ट ‘नाट जस्ट अ पीस आफ क्लाथ’ स्लोगन के माध्यम से दिल्ली में बेस्ड गूँज एन.जी.ओ. इस दिशा में बेहद महत्वपूर्ण काम कर रहा है. कुछ वर्ष पहले हमें गूँज की महिला कामगारों द्वारा पुराने कपड़ों को धुलकर और असंक्रमित कर सैनिटरी पैड बनाते हुए देखने का अवसर मिला था . गूँज का उद्देश्य ही है पुनः उपयोग किये जा सकने योग्य कपड़ों का इस्तेमाल चैरिटी की वस्तु से कहीं अधिक लाभदायक तरीके से करना. गूँज समय समय पर इस विषय से सम्बंधित जागरूकता वर्कशाप्स भी आयोजित करता रहा है.
दिल्ली के ही आकार इनोवेशंस के जयदीप मंडल और सम्बोधि घोष कृषि उत्पादों के वेस्ट से सस्ते और उपयोगी Sanitary Napkin बनाने का प्रोजेक्ट चला रहे हैं. इनका दावा है की इनके बनाए ‘आनंदी’ नैपकिन शत प्रतिशत बायो-डीग्रेडेबल हैं. गांधीग्राम ( तमिलनाडु )आई.आई.टी. मद्रास की मदद से ऐसा ही प्रोजेक्ट चला रहा है.
ऐसा ही एक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है ‘साथी’. अमृता सहगल के नेतृत्व में दक्षिण भारत से शुरू हुआ ‘साथी प्रोजेक्ट’ केले के पेड़ों से मिलने वाले फाइबर से कम लागत की सैनिटरी नैपकिन बनाकर ग्रामीण महिलाओं को उपलब्ध करवा रहा है. छोटी-छोटी उत्पादक इकाइयों में इसे बनाने और वितरण का काम ग्रामीण महिला उद्यमियों को ही सौंपा गया है इससे महिलाओं को स्थानीय रोजगार भी मिल रहा है. ख़ास बात यह है की साथी का बिजनिस माडल स्थानीय रूप से मिलने वाले उत्पादों के फाइबर से सस्ते Sanitary Napkin बना रहा है. हालांकि साथी एक लाभ प्रेरित बिजनिस माडल पर आधारित है किंतु कम समय में ही इस क्षेत्र में उसका योगदान सराहनीय है. ‘सम्मान ‘ ग्रामीण भारतीय महिलाओं को माहवारी और सैनिटरी पैड्स के सम्बन्ध में जागरूक बनाने का एक और अभियान है.
दक्षिण भारत से ही जयश्री इंडस्ट्री के प्रमुख अरुणाचलम मुरुगुन ने सैनिटरी नैपकिन बनाने वाली ऐसी मशीन इजाद की है जिससे सस्ते और टिकाऊ नैपकिन बनाये जा सकते हैं. इन्हें बनाने में सेल्यूलोज़ (वुड पल्प + कॉटन ) का इस्तेमाल किया गया है और इनकी लागत प्रति यूनिट एक रुपए से भी कम की है. आपको जानकार आश्चर्य होगा की मुरुगुन ने अपनी पत्नी को मासिक धर्म के समय पुराने गंदे कपड़े का इस्तेमाल करते हुए देखकर इन नैपकिंस को बनाने का ठाना और वे इसमें सफल भी रहे. आज वे सैकड़ों महिलाओं को इसके जरिये रोजगार भी दे रहे हैं.
सांस्कृतिक चुनौतियों और सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने का एक साहसिक काम तुहिन पॉल और उनकी जीवनसाथी अदिति गुप्ता नें भी किया है . उन्होंने स्कूल जाने वाली लड़कियों को मासिक धर्म और उससे जुडी स्वच्छता के सन्दर्भ में जागरूक करने के लिए ‘अ कॉमिक बुक इन हिंदी ‘ और एक आनलाइन menstrupedia का निर्माण किया जिसमें ब्लॉग, कॉमिक क्लिप्स और इंटरेक्टिव सेशंस के माध्यम से मासिक धर्म पर जानकारी दी जाती है. स्वच्छ कपड़ों और शौचालयों का होना महिलाओं की स्वास्थ्य सुरक्षा के लिहाज़ से कितना अधिक जरूरी है.
यह ना केवल उनकी स्वच्छता और औसत उम्र के अधिक होने का प्रश्न है बल्कि महिलाओं में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास भी जगाता है. सरकार और प्रशासन को अपने हेल्थ मकेनिज्म में इस मुद्दे को फोकस करना चाहिए स्वच्छता और सैनिटरी सुरक्षा का अवसर महिलाओं का मौलिक अधिकार है.
यह हमारे स्वास्थ्य बजट के भी हित में भी है क्यूंकि ‘प्रिवेंशन इस आलवेज़ बैटर देन क्योर’. Sanitary Napkin या feminine hygiene यह एक ऐसा मुद्दा है जिससे सभी जाति, धर्म और वर्ग की महिलाओं को प्रत्येक माह जूझना पड़ता है .महिलाओं की गरिमा और स्वच्छता के स्थान पर इससे शर्म और संकोच का ऐसा मुद्दा बना दिया गया है जहाँ पैड्स का इस्तेमाल और उनका डिस्पोजल महिलाओं के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. इसलिए इस सम्बन्ध में गांव और शहर दोनों ही क्षेत्रों की महिलाओं को आशा वर्कर्स या अन्य स्वयं सहायता समूहों की मदद से जागरूक और प्रशिक्षित किया जाना चाहिए. संसद और मीडिया में इस पर खुली बहस होनी चाहिए.
चूंकि सैनिटरी नैपकिन का उत्पादन करने वाले उद्यमियों की मार्केटिंग कीमतों और पूँजी लाभ के चलते अभी शहरों तक सीमित है इसलिए सरकार को गूँज, साथी प्रोजेक्ट और मुरुगन जैसे प्रयासों के साथ साझेदारी कर सैनिटरी पैड्स का कम कीमतों में या निशुल्क वितरण करवाना चाहिए. स्कूलों में लड़की और लड़कों दोनों को मासिक धर्म और उससे सम्बंधित विषयों की जानकारी दी जानी चाहिए या मसला भले ही लड़कियों की स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़ा हो लेकिन इसे लेकर पुरुषों का भी उतना ही संवेदनशील होना जरूरी है जितना की महिलाओं का. खासकर पंचायतों के माध्यम से ऐसे जागरूकता अभियान चलाये जाने चाहिए. संवाद एक ऐसी शक्ति है जिससे महिलाओं की निजी समस्याओं के सटीक समाधान निकाले जा सकते है.
सभी महिलाओं से एक अपील है की प्लीज़ शर्माइये मत ! ये आपके अपने जीवन से जुड़ा एक अहम् मसला है .. अपने चिकित्सक और दोस्तों से इस पर खुलकर बात कीजिये .. जून 2014 चंद्रकांता
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