इस तस्वीर में दिखाई पड़ रही औरतों को देखिये. यह गली-मोहल्ले में घर-गृहस्थी या सास-बहू की नुक्ताचीनी भरी बातों के चटखारे लेने के लिए इकठ्ठा हुआ महिलाओं का कोई झुण्ड नहीं है. यह झुण्ड भेड़-बकरियों का भी नहीं हैं जिन्हें अब तलक राजनीतिक स्वार्थ के चलते भीड़ के रूप में सड़कों पर इस्तेमाल किया जाता रहा है. ये हरियाणा के एक गाँव भगाना की महिलाये हैं जो सत्ता-प्रशासन और समाज के खिलाफ न्याय के लिए डटी हुई हैं जहां जेठ की धूप और लू इन्हें भी इतना ही झुलसा रही है जितना किसी आम आदमी को झुलसाती है. आंधी-तूफ़ान और सड़क की निर्जीव सी जिंदगी इन्हें भी पस्त कर रही है लेकिन बावजूद इसके ये न्याय के भरोसे पर डटी हुई हैं. भगाना का आन्दोलन एक मील का पत्थर है और जंतर-मंतर तो केवल एक पड़ाव है यह तो सदियों से अछूत बना दिए जाने का मुआवजा भरने वाली अनूसूचित जातियों के लिए न्याय का एक क्रांतिकारी कदम है .
तस्वीर में दिखाई पड़ने वाली ये महिलायें मार्केटिंग का बाई-प्रोडक्ट भी नहीं हैं जिन्हें सामाजिक सेलिब्रिटी बन जाने का चस्का लग गया हो या सोशल मीडिया पर अपनी डिस्प्ले पिक्चर अपडेट करनी हो. ये महिलायें वास्तविक जीवन के किरदार हैं जिन्हें तालियाँ बटोरने के लिए कोई शानदार स्क्रिप्ट लिखकर नहीं दी गयी है.ये वे औरतें हैं जिन्होंने खुद से सीखा है इनकी खासियत यह है की ये खुद की ‘रोल माडल’ हैं .बेहद पीड़ा की बात है कि हम पढ़ी-लिखी और कामकाजी औरतें गाँव-कस्बों की इन चलती फिरती चिंगारियों को अपना ‘रोल मॉडल ‘ नहीं बना पातीं.
हैरानी होती है यह जानकार कि हम एक ऐसी बहुजन संस्कृति का हिस्सा हैं जो स्त्रियों के दैहिक शोषण को कानूनी ( विवाह ), धार्मिक व आनुष्ठानिक ( देवदासी ) एवं जातिगत मान्यता देती है और जहाँ स्त्री शरीर पर बलात आधिपत्य विजित हो जाने का सुख देता है. भगाना एक ऐसा ही केस है जहाँ समस्या कि शुरुआत तब हुई जब गाँव के दलित कहे जाने वाले समुदायों नें अपने लिए आवासीय भूमि के पट्टे मांगे तथा गाँव की शामलाती जमीन पर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की मांग उठाई. संघर्ष उस वक़्त और अधिक बढ़ गया जब इन समुदायों नें गाँव में स्थित चमार चौक का नाम अम्बेडकर चौक करने तथा वहां पर अम्बेडकर की प्रतिमा लगाने की मांग शुरू की. परिणाम स्वरुप गाँव के दबंगों नें इन तथाकथित निचली जातियों का सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार कर दिया .
हैरानी होती है यह जानकार कि हम एक ऐसी बहुजन संस्कृति का हिस्सा हैं जो स्त्रियों के दैहिक शोषण को कानूनी ( विवाह ), धार्मिक व आनुष्ठानिक ( देवदासी ) एवं जातिगत मान्यता देती है और जहाँ स्त्री शरीर पर बलात आधिपत्य विजित हो जाने का सुख देता है. भगाना एक ऐसा ही केस है
दबंगों के बहिष्कार के बावजूद गाँव नहीं छोड़ने पर धानुक जाति के परिवारों की चार नाबालिग लड़कियों के साथ कुछ लोगों नें सामूहिक बलात्कार किया. तमाम जरुरी सबूतों के बावजूद पुलिस और प्रशासन से इन्हें कोई मदद नहीं मिली , जिसके बाद भगाना के 70 परिवारों को गाँव छोड़ना पड़ा . हरियाणा के हिसार में मिनी सचिवालय पर भी इन्होने धरना दिया लेकिन कोई सुनवाई नहीं कि गयी. अब 14 अप्रैल 2014 के बाद से ये पीड़ित समुदाय दिल्ली में जंतर – मंतर पर धरना दे रहे हैं .
एक तरफ तो हम बलात्कारियों को अपने परिवार, समाज और व्यवस्था में जगह देते हैं और दूसरी तरफ कभी ‘परिधान को’ तो कभी ‘आज़ादी की आकांक्षाओं’ को एक स्त्री के रेप होने का कारण बताते हैं. आपकी समझ में जब महिलायें कम कपडे पहनती हैं या सांझ के बाद घर से बाहर होती हैं तो आप ‘मर्यादा’ और ‘तिर्याचारित्र’ जैसी भाषणबाजी पर उतर आते हैं और फिर खुद ही उसे निर्वस्त्र कर गली-नुक्कड़ों में इस तरह घुमाते हैं जैसे वह प्रदर्शन की कोई भौंडी वस्तु हो. ऐसे लोगों का चरित्र भी काला है और सोच भी.
क्या हमने कभी गौर फरमाया है की हम एक ऐसी संस्कृति का हिस्सा हैं जो अपनी संरचना और संस्कारों में रेप को प्रायोजित करती है ? जब हमारी न्यायिक व्यवस्था इस तरह के निर्णय देती है कि ‘पति द्वारा पत्नी से जबरदस्ती किया गया सहवास रेप के दायरे में नहीं आता’ तब हमें समझ लेना चाहिए की हम सभी स्त्रियाँ एक ऐसी डोमीनेटिंग व्यवस्था का बोझ उठा रही हैं जहाँ उनके अस्तित्व के लिए कोई जगह नहीं है .
आप इस बात को नजरंदाज नहीं कर सकते कि समाज नाम की संस्था के लाभ तो पुरुषों नें हड़प लिए और अधिकांश नुकसान स्त्रियों के गले में घंटी बनाकर बाँध दिए.
अजीब बात है यह कोई कहानी किस्सागोई नहीं है हमारे आपके सामने होने वाली रोज की घटनाएं हैं और इस प्रवृति की सबसे खतरनाक बात यह है की ‘ऐसा आदतन किया जा रहा है’. यानी जिस तरह हम रोज उठते ही टूथब्रश करते हैं ठीक वैसे ही स्त्रियों को अपशब्द कहना, छेड़खानी, बात-बात पर मारना-पीटना, फब्तियां या ताने कसना, पति अथवा पुरुष सहवासी द्वारा सेक्स को लेकर की जाने वाली जबरदस्ती बेहद साधारण सी बातें हैं. महिलायें रसोई कूटने के लिए नहीं बनी है और ना ही किसी पुरुष के सेक्स उफान को शांत करने की वस्तु हैं. हमारी महिलायें ना घर में सुरक्षित हैं और ना ही घर की चौखट के बाहर. तब क्यूँ नहीं हम ऐसे समाज, ऐसे परिवार और ऐसी समस्त व्यवस्था का ही बायकॉट कर दें ? क्यूँ ना हम सभी महिलायें अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर सड़कों पर उतर आयें ??
आखिर हमारे समाज में स्त्रियों की क्या भूमिका है ? समाज की आम धारणा के तहत महिलाओं को घर-परिवार को सँभालने और संतान के उत्पादन की जिम्मेदारी दी गयी है. ‘संतान का उत्पादन’ शब्द सुनकर माथे पर संकोच की रेखाएं मत ले आइये और जरा तार्किक होकर एक नजर हमारे समाज की उन छिपी हुई प्रवृतियों पर डालिए जहाँ विवाह और परिवार में एक महिला की भूमिका का समस्त ताना-बाना परिवार को उसका उत्तराधिकारी देने, पति की यौन इच्छाओं को पूरा करने के लिए एक कानूनी ‘सेक्स पार्टनर’ के मिलने और बिना वेतन के 24 x 7 काम करने वाली बाई सरीखी अपेक्षाओं के इर्द-गिर्द बुना गया है.
जब कोई विचारक यह कहता है की ‘विवाह सांस्थानिक वेश्यावृति का ही एक रूप है’ तब आपको नाक-मुंह सिकोड़ने के बजाए पुलिस रिकार्ड में दर्ज ऐसे मामलों पर एक नजर डाल लेनी चाहिए जहाँ किसी स्त्री का परिवार के प्रत्येक पुरुष सदस्य द्वारा दैहिक व मानसिक शोषण किया गया था और यह प्रवृति आज भी बदस्तूर जारी है. .
आपका बचपन याद है ? लगभग हम सभी नें अपनें स्कूली जीवन में अपनी महिला अध्यापिका की आँखों के पास और कभी हाथों पर गहरे नीले निशान देखे होंगे और उस टीचर को ऐसा कहते हुए सुना होगा की वह सीढ़ियों से गिर गयीं थी. आज समझ में आता है वह नीले निशान पुरुष या घर की मुखिया महिलाओं द्वारा की गयी हिंसा का दस्तावेज हुआ करते थे. कैसे समाज में रह रहे हैं हम जहां छोटे-छोटे बच्चों को यह सब लिखना सुनना पड़ रहा है.यह कैसा आधार दे रहे हैं हम उनके भविष्य को ! और इस सबके बीच उनका बचपन कहाँ है ? सब बच्चों के दिमाग में सोते-जागते यही बलात्कार की बातें घूम रही है किसी ऐसी बात के लिए स्पेस नहीं रह गया है जो उनके कोमल बचपन से मेल खाती हो.
क्या लड़कियों के लिए हमारा समाज यह सोच रखता है की वे जब मिल जाए जहाँ मिल जाए उन्हें छोड़ो मत ??? ना दो महीने की बच्ची का लिहाज करो न अस्सी साल की बुजुर्ग का. किसी नें उनका बलात्कार कर छोड़ दिया हो और दुबारा किसी पुरुष को वह मिल जाए तो वो उसको मदद पहुँचाने की जगह फिर से उसका बलात्कार कर दे. दया-संवेदना मनुष्यता नाम की कोई चीज बाकी रह गयी है या नहीं? ऐसी प्रकृति तो जानवरों के ‘सेक्स बिहेवियर’ में भी नहीं दिखती .पुरुषों की तो यौन संरचना भी इस तरह की है की वे आसानी से अपनी यौन इच्छाओं/कुंठाओं को संतुष्ट कर सकते हैं. एक सामान्य इंसान के लिए फिर वह स्त्री हो या पुरुष या ट्रांसजेंडर सेक्स एक स्वाभाविक सी इच्छा है लेकिन क्या इसे पूरा करने के लिए किसी की यौनिक गरिमा को कम करना या किसी की इच्छा के विरुद्ध उसकी देह पर बलात अधिकार करना ही एक अकेला समाधान है ?
यदि हमारा प्रशासन व समाज महिलाओं को सुरक्षा देने में और हमारी न्यायपालिका उन्हें न्याय उपलब्ध करवाने में किसी भी कारण से असमर्थता जाहिर करते हैं तब वे जाने-अनजाने में एक रेप-संस्कृति को निर्मित कर रहे होते हैं. और रेप की यह मानसिकता किसी दलित या आदिवासी स्त्री के लिए ही नहीं बल्कि किसी भी जाति,वर्ग अथवा धर्म की महिला की गरिमा के लिए एक चेतावनी प्रस्तुत करती है.
हमें यह समझना होगा कि कोई भी कानून तभी सफल है जब पीड़ित की उस तक पहुँच हो और उसके पास वह अवसर उपलब्ध हो जहाँ वह अपनें हित में अधिकारों का प्रयोग कर सके. किंतु अनूसूचित जाति/जनजाति एक ऐसा तबका है जिसके पास राजनितिक शक्ति, आर्थिक संसाधनों तक पहुँच और अवसरों की उपलब्धता या तो सीमित व छिटपुट लोगों तक संकेंद्रित है हैं या फिर नहीं हैं. इनके अपने सशक्त मीडिया का नहीं होना भी एक समस्या है.
आपमें से जो भी साथी किसी ऐसे व्यक्ति से अब भी सम्बन्ध निभा रहे हैं, पार्टी-गोष्ठियों में मिल रहे हैं जिन पर किसी महिला से छेड़खानी, बलात्कार या गंभीर हिंसा का आरोप है और उसके ऐसा किये जाने का प्रमाण भी हैं ;तब आप खुद भी ऐसे ही लोगों की बिरादरी का एक हिस्सा हैं क्यूंकि इन ढोरों का बहिष्कार ना करना आपके-हमारे घर की महिलाओं की सुरक्षा के लिए अगली चेतावनी है. अब भी यदि हमनें खुद में बदलाव नहीं किया तो वह समय दूर नहीं जब न्याय पाने के लिए हम सब महिलायें फूलन देवी को अपना आदर्श मान लेंगी तब एक तरफ पुरुष होंगे सरहद के रूप में और उनके सामने होंगी महिलायें कमर पर बच्चों को बांधे हुए.. कैसा दृश्य होगा वह !!!
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