मैंने जब-जब अंतरंग होकर
प्रेम की खिड़कियोंं से झाँकने की कोशिश की
प्रेम उपवन के सबसे अधिक महकते हुए
सुमन की तरह महसूस हुआ
लेकिन बाज दफ़ा उसकी तासीर
मुरझाए हुए पत्तों की तरह भी थी
मैंने, माली के पसीने में छिपी हुई गंध में प्रेम को पाया
मैंने जब भी प्रेम को इस देह की
मांसल सीमाओं में जानना चाहा
तब-तब उसमें अमरत्व का दीपक नहीं पाया
किन्तु जब भी देह को उलांघकर देखा
प्रेम मन्नत के किसी धागे सा नजर आया
और जब कभी प्रेम को शब्दों में बांधना चाहा
ता-ज-म-ह-ल पाषाण की एक इमारत नजर आया
कभी किसी ने समझाया, भरोसा दिलाया
प्रेम भावों का अथाह समंदर है
डूबते चलो बगैर पार होने की उम्मीद के
तब मैंने समझा ‘फ़ना हो जाना प्रेम है’
किन्तु, जीवन के अनुभवों से पाया
अमृता का बेतकल्लुफ़ी में
इमरोज़ की पीठ पर साहिर लिख देना
फिर इमरोज़ का उतनी ही सहजता से इसका स्वीकार – प्रेम है ..
‘प्रेम शब्दकोश का सबसे खूबसूरत अलफ़ाज़ नहीं है’
सबसे खूबसूरत है –
हवा के रूख के साथ कं-प-क-पा-ती हरीतिमा
धूप के पीत आंचल में झि-ल-मि-ला-ती
बरसात की नन्ही-नन्ही बूँदें
माँ की छाती से लिपटा हुआ अबोध शिशु
और सबसे निराश व्यक्ति के हाथों में
आशा की गर्माहट से पसीजा हुआ अपना हाथ रख देना
(प्रेम है ..)