रचना पाठ

रणविजय राव : दिन भर की बात

रणविजय राव : दिन भर की बात : स्वर चंद्रकांता

रणविजय राव की कहानी : दिन भर की बात

 आज बिना अलार्म बजे ही उसकी आंख खुल गई । खिड़की का पर्दा हटाकर देखा तो अंधेरा छंट गया था और सूरज निकलने की तैयारी में था। घर के बाहर लॉन में नज़र पड़ी तो एक चिड़िया धूल में नहा रही थी। पंख फैलाकर कभी वह लोट जाती तो कभी पंखों को झाड़ती।  कंधे में लटकी लाल गमछी से पसीना पोंछता हुआ पेपर वाला पेपर फेंककर चला गया। चिड़िया भी धूल उड़ाती उड़ गई थी।

कुछ देर सन्नाटा पसरा रहा। उसने उंगलियों में उंगलियां जुटाए दोनों हाथ ऊपर किए और जैसे आराम से उपजी रातभर की थकान को दूर भगाते हुए जोरदार अंगड़ाई ली। ऐसा करते ही जैसे उसमें फूर्ति आ गई और उसे क्या-क्या करना है, सब-कुछ एक झटके में ही स्पष्ट हो गया ।

       वह अर्थात् फूलमति जिसे उसका पति और अन्य रिश्तेदार प्यार से ‘फूल’ कहकर बुलाते हैं। वह है भी तो फूल-सी कोमल और बला की खूबसूरत, सौम्य, चुलबुली और जरूरत पड़ने पर गंभीर भी। जैसे वह निहायत कोमल और रेशमी तानों-बानों से बनी हुई हो। पढ़ाई-लिखाई में अव्वल, व्यवहार-कुशल, पाक-कला में निपुण और दफ्तरी कामकाज भी जैसे चुटकियों में निपटाती है।


        घर हो या दफ्तर अथवा शादी-ब्याह एवं अन्य पारिवारिक आयोजनों के अवसर पर भी फूल को बड़ी शिद्दत से याद किया जाता है। उसने बनाया है, तो बच्चों को भरोसा है खाना स्वादिष्ट ही होगा। वह है, तो निश्चिंत हैं परिवार के सब लोग कि सम्भाल लेगी वह सबकुछ। वह है, तो सब निश्चिंत हैं दफ्तर में भी कि निपटा देगी सारा काम कुशलता से जिसे कहते हैं, ‘‘स्पीड विद एक्युरेसी।’’ अच्छा होना जैसे उसके लिए सज़ा हो गई है ।

         तो क्या करे और वह कहां से शुरू करे यह स्पष्ट हो गया था अब। सबसे पहले उसने पानी गरम कर एक गिलास पानी पिया और शेष पति के लिए फ्लास्क में रख दिया। समय बचे इसलिए उसने शौच जाने से पूर्व छोले उबालने के लिए कूकर में चढ़ा दिए ताकि जब वह निवृत्त होकर आए तब तक तो सीटी बज ही जाए।


        ब्रश में पेस्ट लगाकर दांतों पर फिराया ही था कि अचानक दाईं ओर की दाढ़ में एक टीस-सी उठी। कई दिनों से वह डॉक्टर के पास जाने की सोच रही थी, पर वक्त ही नहीं मिल पा रहा था। इस बार पक्का कर लिया था कि वह डॉक्टर के पास जरूर जाएगी। हाथ-मुँह धोकर चाय चढ़ायी। उसने पति सुभाष और बच्चों को भी जगा दिया। झटपट उसने पुड़ी के लिए आटा भी गूंध लिया।


         पिछले तीन दिनों से बच्चों की फरमाइश थी। तीन दिन इसलिए टाला कि तली-भुनी चीज़ें खाने में थोड़ा गैप हो जाए। और जब बच्चों के लिए बनाए तो खुद एवं पति के लिए भी बन जाए। अब बच्चों का टिफिन तैयार हो गया था। उधर बच्चे भी नहा-धो, पहन-ओढ़कर तैयार थे। टिफिन पैक होते-होते उन्होंने नाश्ता किया। उनके नाश्ते में आज दूध का मीठा दलिया, बटर ब्रेड और केला था। तब तक सुभाष गाड़ी स्टार्ट कर चलने को तैयार थे। बच्चे गाड़ी में बैठे और चल दिए।

          जब तक सुभाष उन्हें छोड़कर आते, इस बीच फूल को नहा-धो, कपड़े-सपड़े पहनकर तैयार हो जाना था। दोनों का टिफिन तैयार करने के लिए थोड़ी और पुड़ियां तलनी थी, जोकि उसने तल ली थी। आधा-पौना घंटा ही था उसके पास। सुभाष को भी तो तैयार होने में समय लगेगा। कौन-सी साड़ी पहने, इसी उधेड़बुन में थी वह कि तभी उसे वार्डरोब में कलमकारी वाली साड़ी दिख गई जोकि उसके पति ने सिल्क फैब से खरीद कर दी थी।

कामकाजी औरत ( चित्र साभार गूगल )

वह भी उसे बड़े शौक से पहनती थी। उसी से मैचिंग बिन्दी, कानों का झुमका, चुड़ियां, कंगन, पेंडेंट, सेंडिल, आदि सब निकालकर ड्रैसिंग टेबल पर रख लिया ताकि जब वह बाथरूम से निकले तो कुछ खोजने में समय न गंवाना पड़े। इतनी जल्दी-जल्दी करने में भी आज उसे थोड़ी देर हो ही गई। सुभाष बोले,‘आज दफ्तर में सुबह-सुबह ही मीटिंग है मेरी, सो मुझे तुरंत निकलना पड़ेगा’ और गाड़ी लेकर तुरंत ही निकल पड़े।

         वह तैयार हो गई थी, पर अब तो उसे मेट्रो से ही जाना पड़ेगा। मेट्रो का ख्याल आते ही उसे भागते-दौड़ते लोगों की भीड़ दिखने लगती है जैसे। और हो भी क्यों न, क्योंकि महानगर में सुबह से ही लोगों का एक रेला निकलता है। सबको दफ्तर पहुंचने की हड़बड़ी। रेलवे स्टेशन, मेट्रो, लोकल ट्रेन, बस, ऑटो, कारें आदि वाहन लोगों से लदे होते हैं। जैसे यह रेला नहीं एक दानव हो, और यह दानव अन्य लोगों के साथ फूल को भी सुबह-सुबह निगल जाता है और पस्त हाल में देर शाम सबको उगल देता है। ऐसे में ज़िंदगी का एक-एक दिन एक मुकम्मल तजुर्बा लेकर आता है।

        वह मेट्रो पहुंची तो देखा लंबी लाइन लगी हुई थी। हर चीज़ के लिए लाइन है। टोकन लेने की लाइन, चेकिंग की लाइन, फिर स्मार्ट कार्ड पंच करने की लाइन और जब प्लेटफार्म पर पहुंचों तो मेट्रो के अंदर जाने की लाइन। हर तरफ लाइन ही लाइन लगी हुई है। जैसे कि ज़िंदगी इन लाइनों में ही सिमट कर गुज़र जाएगी।

पढ़िए कालजयी हिंदी फिल्म दो बीघा जमीन की समीक्षा https://matineebox.com/do-beegha-zameen-1953/

        इन सारी प्रक्रियाओं से गुज़रते हुए वह अब मेट्रो में बकायदा सवार हो गई थी। भीड़ तो थी ही। सुरक्षित जगह देखकर टिका दिया अपने आपको।

          घर से निकलने से लेकर मेट्रो में सवार होने तक की आपाधापी से अब वह मुक्त हो गई थी। फूल के दिमाग में घर, दफ्तर और फिर घर वापसी के साथ-साथ बच्चों के स्कूल से घर लौटने तक की बातें एक-एक कर दिमाग में घुमड़ने लगीं। उसने एक बात तो तय कर ली थी कि दफ्तर का काम या वहां की किसी बात को घर पर नहीं लाना है, पहली बात और दूसरी बात यह कि उसके बारे में सोचना भी नहीं है अर्थात् दफ्तर के समय दफ्तर और घर में घर की बातें।

          यही सब बातें चल रही थीं कि उसकी उंगलियां चेहरे पर आई लटों को हटाने के लिए ललाट पर गईं तो सहसा उसे अपनी आइब्रो का ध्यान हो आया। उसे याद आया हफ्ते दिन से ज्यादा हो गए, लोग देखते होंगे तो पता नहीं क्या सोचते होंगे। उसने निश्चय किया कि आगामी रविवार को सुबह-सुबह ही वह पार्लर जाकर उसे दुरूस्त कराएगी। साथ ही पार्लर वाली को यह हिदायत देना भी नहीं भूलेगी कि जो पिछली बार गलत कर दिया था और जिसके कारण दोबारा आना पड़ा था ठीक कराने, इस बार वह ऐसा न करे।

          उसका ध्यान अपने शरीर के रख-रखाव पर भी अनायास ही चला गया। दरअसल कामकाजी महिलाओं और सामाजिक रूप से सक्रिय महिलाओं को तो इन सब चीज़ों का ध्यान रखना ही पड़ता है। अब तो गृहणियां भी अपना कम ध्यान नहीं रखतीं। उन पर भी टीवी विज्ञापनों का दबाव कम नहीं होता। कामकाजी महिलाओं की तरह वे भी एक कुशल मालिन की तरह अपनी देह की बगिया को संवारकर रखती हैं ताकि कहीं धूल-धक्कड़ न बैठे बदन के किसी अंग पर।


         तो फूल को भी यह ध्यान आया कि आगामी छुट्टी के दिन अर्थात् शनिवार को वह घर के कामों से जल्दी छुट्टी पाकर खीरे का रस अथवा पके पपीते के छिलके को रगड़-रगड़ कर चमड़ी की नमी बनाए रखने की भरसक कोशिश करेगी। क्योंकि बाहर की कड़कती धूप से देह कुम्हलाने लगती है। चाहे कितना भी सनस्क्रीन लोशन लगाए, काम नहीं चलता उससे। परफ्यूम खरीदने की बात भी दिमाग में कौंध रही थी। एक सहेली ने बताया था कि इस बार टाइटन स्किन न्यूड परफ्यूम खरीदना। तो यह भी खरीदना है उसे।

       फूल को पता है कि उसके परिवार का आसमान उतना विशाल नहीं है कि जो मन चाहे कर ले। एक मर्यादा और संस्कृति की सीमा रेखा के भीतर जितनी कुछ जरूरत होती है, सब कुछ है उसके पास। इस बात का संतोष था। मन ही मन में सुभाष और उसके रोमांस का वितान भी तन कर खुल गया उसके सामने। पति की मनचली और रसभरी रोमांटिक बातें याद आने लगीं।


      खैर, ये तो शादी के शुरूआती दिनों की बातें थीं। दोनों के बीच आहिस्ता-आहिस्ता सयानापन भरने लगा था। बातचीत में अब चांद-सितारों की जगह बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और उनके भविष्य की बातों ने ले ली थी। याद आया उसे कि बच्चों की आर.डी. मेच्योर होने वाली थी। दफ्तर पहुंचकर सुभाष को मैसेज कर देगी वह कि बैंक जाकर पता कर लें। फोन करने पर चिढ़ जाते हैं सुभाष। वह कहते हैं, ‘जब मीटिंग में होता हूँ, तभी फोन करना होता है क्या तुझे ? मैसेज कर दिया करो। फुरसत मिलते ही कॉल बैक कर लूंगा।’ इसलिए उसने मैसेज कर दिया।

     मेट्रो की घोषणाओं पर ध्यान गया उसका। अभी उतरने में दो स्टेशन और थे। जैसे-जैसे उतरने का समय निकट आ रहा था, उसकी धुकधुकी बढ़ती जा रही थी। दफ्तर में जब से बायोमेट्रिक अटेंडेंस का दौर चला है, प्राय: सबको यह धुकधुकी लगी ही रहती है। अब उसके दिमाग में यह बात चल रही है कि 10 बजे से पहले अंगूठा टेक दे। ऑफिस में टेबल पर पड़े कामों को निपटाने की बात भी उसके दिमाग में चल रही थी ।

      ‘अगला स्टेशन केन्द्रीय सचिवालय है’, यह घोषणा सुनते ही वह सतर्क हो गई। हो भी क्यों न, क्योंकि उतरने वालों की भीड़ तो होती ही है, चढ़ने वालों की भी उतनी ही भीड़ होती है। यदि समय से न निकले तो भीड़ अंदर ही धकेल देती है।

       फटाफट वह दफ्तर पहुंची। सुरक्षा जांच के पश्चात् बायोमेट्रिक अटेंडेंस मशीन पर पहुंची तो वहां भी लाइन लगी हुई थी। उसकी बारी दस लोगों के बाद थी। जब बारी आई और आई.डी. डालकर अंगूठा लगाया तो, पहला अटैंप्ट तो रिजेक्ट ही हो गया, दोबारा फिर कोशिश की, फिर वही हुआ। लाइन में पीछे खड़े लोग कुनमुना रहे थे। तर्जनी अंगुली को अपने दुपट्टे से रगड़कर उसने तीसरी बार और कोशिश की तो वह सफल हो गई। तब तक दस बजने में केवल पांच सेकेण्ड शेष रह गए थे। उसने अब राहत की सांस ली, और कहा ‘शुक्र है दस से पहले लग गई अटेंडेंस।’

      दरअसल दफ्तर के लोगों में यह डर बैठ गया है, या बैठा दिया गया है कि दस बजे के बाद के अटेंडेंस को ‘लेट’ में गिना जाएगा। खैर, वह तो अब निपट चुकी थी इन औपचारिकताओं से। दफ्तर बड़ा है तो कैंपस भी उसी हिसाब से बड़ा ही है।


        कमरे में पहुंचने में अभी भी समय शेष था। रास्ते में सुमोना मिल गई। एक कान्फ्रेंस की ड्यूटी के दौरान उससे जान-पहचान हुई थी। कहने लगी, ‘गर्मी कितनी तेज़ है। जल्दी-जल्दी चलने में पसीने छूटने लगते हैं।’ बात भी सही थी। जब लिफ्ट के पास पहुंची तो वहां भी लम्बी लाइन लगी हुई थी। फूल ने सीढ़ियों से ही जाने का निर्णय किया। छठे फ्लोर पर था उसका कमरा। तीसरे फ्लोर पर रूककर उसने थोड़ी सांस ली, और फिर चल दी। अब वह अपने कमरे में थी। अपने टेबल पर पर्स रखा। आंखें चतुर्दिक घुमायीं, इधर-उधर हुई पुतलियों हुईं तेज़ी से और पलक झपकते ही सारी सूचनाएं बटोर ली कि कौन आया है और कौन नहीं।

       गर्मी का दिन है। थोड़ी दूर चलते ही तन-बदन पसीने से तर-बतर हो जाता है। उसने पर्स से रूमाल निकालते ही बिंदी बचाते हुए चेहरा पोंछा। उन्नत ललाट पर भौंहों से सटी एक अदद बिंदिया मैच कर रही थी साड़ी के रंग से। सम पर आ रही थी उसकी फूली हुई सांस। एक नथूना फड़क रहा था हल्का-सा। कानों में झुमका लटक रहा था। सलीके से पहनी गई थी साड़ी जो दूसरों को स्वत: ही आकृष्ट कर रही थी अपनी ओर।

      शाखा के समन्वयक ने काम रखवा दिया टेबल पर इस ताकीद के साथ कि आज ही इसे फाइनल करके भेजना है। स्थिर हो वह निपटाने लगी अपना काम। सामने एक अनगढ़ राइटिंग में लिखा किसी अनुवादक का पोर्शन था। पृष्ठों पर अंकित छोटे-बड़े अक्षरों में कोई बैलेंस नज़र नहीं आया उसे।जैसे शब्दों को अजीबोगरीब तरीके से चुन लिया गया हो। वह अंग्रेजी के शब्दों और भाव से मेल खाता हो या नहीं, इससे करने वाले को कोई मतलब नहीं था, ऐसा साफ तौर पर स्पष्ट हो रहा था ।

       ‘‘किसने किया है ये’’, उसे लगा कि वह पूछे और वापस कर दे एवं दोबारा करने के लिए बोले, पर कुछ बोला नहीं उसने। साथ काम करने वालों को इस तरह से बोले, उसे अच्छा नहीं लगता था, पर क्या करे ? अगर कोई सालों साल काम करने के बाद भी काम को काम न समझ पाए, तो उपाय ही क्या है ? पर उसने किसी से कुछ नहीं कहा। लगी चुपचाप काम निपटाने। सहेलियों ने चाय के लिए बुलाया, पर काम की अजेंसी को देखकर उसने मना कर दिया और बोल दिया कि ‘शाम की चाय साथ में पीएंगे ।‘

     उसके कुशल व्यवहार, बात करते समय चेहरे पर हमेशा एक मधुर मुस्कान और सबसे बढ़कर काम के प्रति समर्पण, जुझारूपन और उसकी आंतरिक ऊर्जा से लोगों को बहुत आश्चर्य होता। मानो वह थकना और मना करना जानती ही नहीं थी। इसका परिणाम यह होता कि औरों की तुलना में उसे ज्यादा काम करना पड़ता। कुछ लोगों की कामचोरी का परिणाम भी उसे ही भुगतना पड़ता था।

      लंच ब्रेक का समय हो गया था। टिफिन लेकर चली गई लंच करने अपनी सहेलियों के साथ। सब अलग-अलग डिशीज़ बनाकर लाई थीं। एक-दूसरे से डिशीज़ को साझा कर निपटा दिया गया लंच और निकल गई थोड़ी देर बाहर गपियाने के लिए।


        चाय पीने और लंच का ही वह समय था जब फूल अपनी सहेलियों से मिलती, दु:ख-सुख साझा करती, दफ्तर की सूचनाएं एकत्र करती, किसका, किसके साथ, क्या, कैसा, क्यों चल रहा है, सब कुछ साझा करती हंस बोलकर। हंसती तो ऐसे जैसे जूही, चंपा, चमेली और बेला सब एक-साथ झर रही हों । झीसी, फुहार से शुरू होकर, बूंदाबांदी और थोड़ी ही देर में मूसलाधार हो जातीं वे सब। दफ्तर के पुरुषों का ध्यान अचानक खींच लेतीं वे अपनी खिलखिलाहट से। वे आपस में ही फुसफुसाने लगते, ‘‘जाने क्या-क्या बतियाती रहती हैं, बेहद बतरसी हैं ये सब।’’

       अब अपनी शाखा में थी फूल। थोड़ी ही देर में काम निपटने वाला था। दरअसल वह भाषा की जादूगरनी थी और भावनाओं का अच्छा खेल खेल लेती थी। शाखा में बातचीत के दौरान, साहित्यिक, राजनीतिक समझ, विश्व-दृष्टि आदि पर बात रखते समय वह अपने विचारों को व्यवस्थित कर लेती थी और बड़े ही सधे अंदाज़ में अपनी बात रखती थी। लोग उसकी इस बौद्धिकता के कायल थे।

      देखते ही देखते चाय का समय भी हो गया था। सहेली ने फोन किया, ‘‘चलो कैंटीन चाय के लिए।’’ कैंटीन में काफी चहल-पहल थी। लोग अलग-अलग समूहों में खड़े बतिया रहे थे। खाने की चीज़ों के साथ-साथ लोग चाय की चुस्कियां भी ले रहे थे। बीच-बीच में किसी की मज़ाक-भरी बातों पर जोर का ठहाका पड़ता था। कुल मिलाकर शाखा के बोझिल माहौल से लोगों को थोड़ा-सा ब्रेक भी मिल जाता था चाय के बहाने।

     चाय पीकर कमरे में जा ही रही थी फूल कि रास्ते में एक अधिकारी मिल गए। वह जब भी मिलते, बड़े आत्मविश्वास के साथ जैसे वे ठोक-बजाकर बोल रहे हों और वे जो कह रहे हैं, वह सही है, “सब ठीक रहेगा। चिंता नहीं। ‘मौज करिए,बस। किसी की परवाह मत कीजिए’’। हालांकि वह उनकी इस बात का बुरा नहीं मानती थी और वह यह जानती भी थी कि वह बड़े ही भले इंसान हैं और नेक इरादे से ही बोलते हैं। बस उसे अटपटा इसलिए लगता था कि दूसरे सुनेंगे तो क्या कहेंगे, क्योंकि बौद्धिक रूप से बहुत लोग अक्ल से पैदल होते हैं, आप समझ ही सकते हैं।

    अब वह अपनी शाखा में थी। सीट पर तशरीफ टिकाते ही मोबाइल बज उठा। दूसरी ओर सुभाष थे :-
‘‘ठीक तो हैं’’, फूल ने पूछा।
‘‘हाँ, सब ठीक है……’’
‘‘अच्छा, आज घर पहुंचते ही घर का सामान लेने……’’
‘‘तुम ले आना…..’’


‘‘आप कब आओगे…..’’
‘‘देर हो जाएगी…..’’
‘‘तो अब फिर मुझे मेट्रो से ही……’’
‘‘हाँ … ।’’
‘‘ठीक है….’’ यह कहकर फोन काट दिया था फूल ने।
   सुभाष को मन ही मन कोसते हुए कि इनका तो रोज़ का यही ड्रामा है।

     अब दफ्तर से निकलने का समय भी हो गया था। कम्प्यूटर ऑफ कर और जरूरी सामान ड्रॉअर में रख दिया। कमरे से फाइनली निकलने के पहले वह वॉशरूम से भी निपट लेना चाहती थी, सो वहां से भी निपट गई। अपना पर्स उठाया और निकल पड़ी बायोमेट्रिक अटेंडेंस की लाइन में। वहां फिलहाल दो-चार लोग ही थे।


       अब सब सुबह जैसा ही था। दफ्तर से मेट्रो, वहां सेक्युरिटी चेक की लाइन, फिर स्मार्ट कार्ड पंच की लाइन और फाइनली मेट्रो में चढ़ने की लाइन से फारिग होकर वह अब मेट्रो में सवार थी। भीड़ वैसी ही थी जैसी अमूमन सुबह में होती है। सीट मिलना तो था नहीं, सुरक्षित स्थान पर टिक कर खड़ी हो गई। दिनभर की आपाधापी के बाद अब वह जैसे थके-हारे दिन को भी सिर पर रखकर घर लौट रही थी।

     उसे ध्यान आया मायके और ससुराल में भी बात कर हाल-चाल पूछना है। मायके से तो मम्मी का फोन अक्सर आ ही जाता था तो बात भी हो ही जाती थी, पर सास-ससुर दूसरी जगह थे तो इसे ही फोन कर हाल-चार पूछना होता था। सुभाष ने तो जैसे इसकी ड्यूटी ही लगा दी थी। और हाँ, ननद से भी तो बात करनी है उसे। इधर कुछ समय से ननद से नहीं बन रही थी। यह सब वह छुट्टी के दिन ही निपटाएगी।


       उसे याद आया दूर के मौसा जी जो दिल्ली में ही रहते हैं द्वारका की तरफ, उनका निधन हो गया था। सुभाष को भी न हर चीज़ याद दिलानी पड़ती है। सब कुछ उसे ही याद रखना पड़ता है। घर-परिवार का हाल-चाल, नाते-रिश्तेदारी में शादी-ब्याह, आना-जाना, मिलना-मिलाना, सब कुछ। कई बार तो उसे लगता कि वह सिर पर भारी बोझ लिए फिर रही है ।

कामकाजी औरत ( चित्र साभार गूगल )

     इसी उधेड़बुन में डूबते-उतरते उसका स्टेशन भी आ गया था। स्टेशन और घर के बीच की दूरी नापते हुए उसे ध्यान आया कि छोटे बेटे की कई दिनों से बटर चिकन की फरमाइश है। वह सोच रही है कि आज उसकी फरमाइश भी पूरी कर दी जाए ।घर पहुंचकर थोड़ी स्थिर हुई भी नहीं थी कि यथोचित फैसला कर बच्चों के झगड़ों को निपटाना पड़ा।


       घर के सब कामों तथा रात्रि भोजन आदि से निवृत्त होकर अब वह बिस्तर पर थी। वह यह तय नहीं कर पा रही थी कि इस भरे-पूरे दिन को वह संतोषप्रद कहे या नहीं। सुभाष बगल में बैठे अपने मोबाइल में व्यस्त थे। उसे कोफ्त हो रही थी कि पता नहीं इसमें क्या देख रहे हैं और इसे देखने में इन्हें कितना संतोष मिल रहा है। उसे खिझ होने लगी। आखिर किस काम का है यह बंदा ? केवल अपने में व्यस्त रहता है। न घर की चिंता है और न ही बच्चों का ख्याल। आखिर मैं भी तो नौकरी करती हूँ। यदि मैं भी ऐसा ही करूं तो…. फिर कैसे चलेगा ?


        जब साथ बैठे हों, तो दो बात बतिया सकते हैं, सुख-दु:ख की, बच्चों की पढ़ाई, घर के खर्चे, मकान की किश्तें, सास-ससुर आदि के बारे में, पर यह बंदा तो मोबाइल में ही गड़ा रहता है। पता नहीं किससे चैटिंग कर रहा है। चैटिंग चल रही है या कोई ऐसी-वैसी फिल्म देख रहा है, पता नहीं। खैर, जो भी हो, भाड़ में जाए। आखिर जब मुझे ही सब कुछ करना है तो देख लूंगी मैं ही ।

आज शायद पूर्णिमा है, खिड़की के शीशे से पूरा चांद दिखाई दे रहा था। अचानक सुभाष को फूल की याद आ गई और धीरे से उसने उसका चेहरा हाथों में लिया और लगा उसे चुमने। पर वह तो कुछ और ही चाहती थी। वह चाहती थी कि कम से कम हाल-चाल पूछे, थोड़ी-देर बातें-वातें करे। पर यह क्या, वह तो जैसे निबटा देना चाहता है सबकुछ जल्दी-जल्दी।

फूल ने सुभाष के चंगुल से अपने आपको मुक्त करते हुए कहा, ‘‘देखिए सुभाष ! ठंडे दिमाग से बोल रही हूँ। आजकल आप प्यार भी इस तरह करते हैं, जैसे दफ्तर का कोई काम पूरा कर रहे हों। छोड़ो मुझे। मैं भी थकी हुई हूँ दिनभर के कामों से।’’ उसने करवट बदलकर आंखें बंद कर ली और इस तरह उसने समेट ली थी दिनभर की सारी बातें।

-रणविजय राव –

सुनिये चरण सिंह पथिक की कहानी ‘ दो बहनें’ जिस पर विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘पटाखा’ बनी है https://gajagamini.in/do-bahnen-charan-singh-pathik/

Chandrakanta

View Comments

Recent Posts

श्री शिवताण्डवस्तोत्रम् Shri Shivatandava Strotam

श्री शिवताण्डवस्तोत्रम् Shri Shivatandava Strotam श्री रावण रचित by shri Ravana श्री शिवताण्डवस्तोत्रम् Shri Shivatandava…

5 months ago

बोल गोरी बोल तेरा कौन पिया / Bol gori bol tera kaun piya

बोल गोरी बोल तेरा कौन पिया / Bol gori bol tera kaun piya, मिलन/ Milan,…

6 months ago

तोहे संवरिया नाहि खबरिया / Tohe sanwariya nahi khabariya

तोहे संवरिया नाहि खबरिया / Tohe sanwariya nahi khabariya, मिलन/ Milan, 1967 Movies गीत/ Title:…

6 months ago

आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहीं / Aaj dil pe koi zor chalta nahin

आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहीं / Aaj dil pe koi zor chalta nahin,…

6 months ago

हम तुम युग युग से ये गीत मिलन के / hum tum yug yug se ye geet milan ke

हम तुम युग युग से ये गीत मिलन के / hum tum yug yug se…

6 months ago

मुबारक हो सब को समा ये सुहाना / Mubarak ho sabko sama ye suhana

मुबारक हो सब को समा ये सुहाना / Mubarak ho sabko sama ye suhana, मिलन/…

6 months ago

This website uses cookies.