सांझी/ संझी /संजा / झांझी आपमें से बहुत से लोग इस नाम से परिचित होंगे। संझा उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान और मध्यप्रदेश की लोकपरंपरा है. मालवा की संझी तो खासी प्रसिद्द है. इसमें गोबर, मिटटी , फूल-पत्तियों और रंग बिरंगी पन्नियों की मदद से संझी को दीवार पर बनाया जाता है. शाम को संझी की आरती की जाती है और गीत गाये जाते हैं. सामान्यतः प्रतिदिन एक नई संझा बनाई जाती है. यह श्राद्ध पक्ष से आरम्भ होकर अमावस्या पर पूर्ण होती है. हालांकि अब यह उत्सव सीमित होकर रह गया है. ऐसी धारणा है कि संझा गीतों के माध्यम से युवतियां अपने ससुराल जाने की मनभावन कल्पनाएँ करती हैं.संस्कृति
टेसू क्या है – टेसू लकड़ियों का एक तिकोना स्टेंड होता जिसके बीचों बीच दिया या दीपक रखा जाता है .अधिकाँश जगहों पर टेसू का केवल सिर बनाया जाता है और बांस के जिस ढाँचे पर वह खड़ा होता है उसमें चमकीली पन्नियों से फूल पत्तियों की सजावट की जाती है . कहीं कहीं टेसू को राजसी मराठा के रूप में भी सुसज्जित किया जाता है . टेसू के आँख नाक कान मुंह कोडियों के बनाए जाते हैं . आमतौर पर बांस के स्टैंड में मिट्टी की तीन आकृतियाँ या पुतले बना दिए जाते हैं जिनमें एक टेसू राजा, और बाकी दो उनके सेवक होते हैं.
संझा लोक उत्सव की योजना कितनी खूबसूरत हैं जहां लड़कियाँ सांझी और लड़के टेसू बन जाते हैं. सांझी और टेसू के गीतों की तुकबंदी और कल्पना लोक रचनात्मकता का अप्रतिम उदाहरण है. संझी खेलना पित्र पक्ष से ही आरभ हो जाता है उसके बाद लडकियां नवरात्रों में सुअटा की प्रतिमा बनाकर सुअटा खेलती हैं.
चित्र साभार गूगल
संझा लोक उत्सव की योजना कितनी खूबसूरत हैं जहां लड़कियाँ सांझी और लड़के टेसू बन जाते हैं. सांझी और टेसू के गीतों की तुकबंदी और कल्पना लोक रचनात्मकता का अप्रतिम उदाहरण है. संझी खेलना पित्र पक्ष से ही आरभ हो जाता है उसके बाद लडकियां नवरात्रों में सुअटा की प्रतिमा बनाकर सुअटा खेलती हैं. टेसू खेलना महानवमी से आरंभ होता है दशहरे से पूर्णिमा तक लड़को की टोलियां टेसू और लड़कियों की टोलियां सांझी लिये घर घर घूमकर गीत गाते और पैसे मांगते है।
टेसू के गीत विशेष किस्म की तुकबन्दियाँ हैं जबकि संझा के गीतों में एक विषय होता है . टोली में कोई एक लड़का टेसू बनता है और सभी लडकियां सांझी होती हैं. लड़कियों ने संझी को एक मटके नुमा बर्तन या भगोने में ढककर रखा होता है . मटकी के भीतर थोडा रेत या अनाज भरा होता है जिसके ऊपर दीपक जला हुआ होता है. इस रंगीन मटकी में कुछ छेद होते हैं उसके अंदर रखे दीपक से प्रकाश बाहर झाँकता प्रकाश बेहद खुबसूरत छटा बनाता है .
लड़कियों की टोली घेरा बनाकर बैठ जाती है और गीत गाते हुए वे बारी बारी संझी को हाथ में लेकर नृत्य करती हैं . ब्रज, बुंदेलखण्ड और ग्वालियर के टेसू विशेष रुप से प्रसिद्ध है। टेसू और झांझी का विवाह भी होता है। लेकिन उससे पहले सुअटा के बारे में जान लेते हैं।
सुअटा – टेसू-झेंझी के विवाह से एक किंवदंती और भी जुड़ी हुई है कि सुआटा नामक एक राक्षस कुंवारी कन्याओं को परेशान करता था. एक दिन उसने झेंझी का अपहरण कर लिया जिसका वध कर टेसू ने झेंझी के साथ विवाह किया . इस वजह से बुन्देलखण्ड में लडकियां नवरात्रों में दीवार पर गोबर से सुआटा राक्षस की आकृति बनाती हैं जिसका वध टेसू द्वारा किया जाता है और तत्पश्चात टेसू और झेंझी का विवाह संपन्न होता है.
लड़के थाली पर चम्मच बजाकार संगीत निकालते हैं और टेसू की बरात लेकर आते हैं. लडकियां झेंझी को मंडप में लाती हैं टेसू और झेंझी के गीत गाये जाते हैं दोनों का विवाह करवाया जाता है किन्तु सात फेरे पूरे होने से पूर्व ही लड़के टेसू का सर धड से अलग कर देते हैं .
तो कौन थे ये टेसू और झांझी? विवाह के दौरान टेसू का सर धड़ से क्यूँ अलग कर दिया जाता है ? टेसू और झांझी के साथ कई लोककथाएं या किवदंतियां भी जुडी हैं. स्थान और रवायत के अनुसार इसमें थोड़ी बहोत भिन्नता भी पाई जाती है. किसी कथा में उसे पांडवों की माता कुंती का पुत्र बब्बरवाहन बताया गया है तो किसी में भीम का पुत्र या प्रपोत्र बर्बरीक . कुछ लोग खाटू श्याम जी को बबरवाहन का ही रूपांतरण.
पहली किवदंती के अनुसार – बबरवाहन या टेसू पांडवों की माता कुंती का पुत्र था कंवारी होने की वजह से जिसे वह जंगल में छोड़ आई थी. बबरवाहन बाकी बालकों से अलग था उसका शरीर बहोत जल्दी बढ़ गया था और वह खूब उत्पाती किस्म का था. सुभद्रा ने जब प्रभु कृष्ण से उसका आतंक खत्म करने की विनती की तो कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया और उसे जंगल में छेकुर के एक पेड़ पर लटका दिया . कुछ लोगों का मानना है की कृष्ण ने उसका सिर बांस के एक तिकोने स्टैंड पर रख दिया था . इसलिये आज भी टेसू बनाते वक्त उसे तिकोने स्टैंड पर ही रखा जाता है . कृष्ण ने ही अपनी माया से झेंझी को उत्पन्न किया और उसका विवाह टेसू के साथ करवाया.
दूसरी किवदंती के अनुसार – टेसू अर्थात बर्बरीक घटोत्कच और अहलावती का पुत्र और भीम का पौत्र था| टेसू ने कठोर तप करके भगवान् शिव और अग्निदेवता को प्रसन्न करके अभेद्य बाण और धनुष की प्राप्ति कर ली थी . जिससे वह अजेय हो गया था| जिस भी पक्ष से टेसू युद्ध लड़ता उस पक्ष का जीतना निश्चित था क्योकि टेसू का एक बाण शत्रु की सारी सेना का नाश करने की क्षमता रखता था| टेसू का संकल्प था की वह सदैव कमजोर पक्ष की तरफ से युद्ध करेगा| महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण यह तथ्य जानते थे की यदि टेसू ने कौरवो की सेना के साथ मिलकर युद्ध लड़ा तो पांडवो की विजय असंभव हो जाएगी|
इसलिये श्रीकृष्ण ने एक युक्ति निकाल और ब्राहम्ण का भेष धारण कर बर्बरीक को ललकारा. उन्होंने उसे एक ही बाण से एक वृक्ष की सभी पत्तियों में छेद करने के लिये कहा . बर्बरीक के बाण चलाने से पूर्व श्रीकृष्ण ने एक पत्ती को अपने पैर के नीचे दबा लिया. इधर जैसे ही बर्बरीक ने बाण चलाया वृक्ष की सभी पत्तियों में छेद हो गया. किन्तु जो पत्ती कृष्ण के पैर के नीचे दबी थी वह रह जाती है . शर्त पूरी नहीं कर पाने के कारण बर्बरीक उन्हें अपनी देह ही अर्पित कर देता है हैं| कृष्ण पल भर में ही सुदर्शन चक्र से उसका सर धड से अलग कर देते हैं. कृष्ण बर्बरीक से बहोत प्रभावित होते हैं और उसे कोई वरदान मांगने के लिये कहते हैं बर्बरीक प्रसन्न होकर कहता है की उसे महाभारत का सम्पूर्ण युद्ध अपनी आँखों से देखना है . इसलिये कृष्ण उसका सर के पेड़ पर ऊंचे टांग देते हैं जहा से वह युद्ध को देख सके. ऐसा माना जाता है की जब कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण ने अर्जुन की गीता का उपदेश दिया था तो अर्जुन और संजय के साथ साथ बर्बरीक को भी उसे सुनने का सौभाग्य मिला था. कृष्ण ने ही बर्बरीक को खाटू श्याम का नाम दिया .
एक और कथा के अनुसार महाभारत युद्ध के समय जब भी जब भी कौरवों व पाण्डवों की सेनाएं युद्ध क्षेत्र में लड़ने के लिये आगे आती थीं बर्बरीक का सिर यह सोचकर कि कैसे-कैसे महान योद्धा मैदान में है पर मैं इन से लड़ न सका, वह जोर से अट्टहास करता था जिसे सुनकर दोनों सेनाएं भयभीत हो जाती थीं और युद्द नहीं हो पाता था कृष्ण से इससे बचने के लिये उस पेड़ पर दीमक लगा दी जिस पर बर्बरीक का सर रखा था दीमक लगने से वृक्ष का क्षय हुआ और उसका सर नीचे गिर गया जिससे उसके लिये महाभारत का युद्ध देख पाना असंभव हो गया . इसके बाद ही महाभारत का युद्ध शुरू हो सका.
एक अन्य किवदंती के अनुसार बबरवाहन को पूर्वजन्म में एक ऋषि का श्राप मिला था जिसकी वजह से उसे एक राक्षस का जन्म मिला.
टेसू और संझा के वर्तमान स्वरुप से सबसे अधिक मेल खाती हुई एक किवदंती यह भी है की बर्बरीक (टेसू) ने जंगल में एक ब्राह्मण कन्या को पानी भरते हुए देखा और वह उस पर मोहित हो गया कन्या भी उसके सौष्ठव पर मोहित हुई और उसने मन में ही बर्बरीक को अपना वर मान लिया . कन्या का मन पाकर वह उसके पिता से मिलने गया किन्तु कन्या ब्राह्मण कुल की थी और बर्बरीक राक्षसी कुल का था इसलिये कन्या के पिता को यह विवाह प्रस्ताव स्वीकार नहीं हुआ . बर्बरीक की हठ और उसका बल देखकर लड़की के पिता ने उससे कहा की विवाह के लिये सोलह दिन का समय लगेगा इन सोलह दिनों में लड़की गोबर की थपलियाँ बनाएगी. पिता की यह बात मानकर बर्बरीक वहाँ से चला गया. इस दौरान लड़की के पिता ने अपने परिवार व सम्बन्धियों को सहायता के लिये बुलावा भेजा दिया. कंवार महीने के ये सोलह दिन पितृ पक्ष या श्राद्ध मने जाते हैं.
सोलह दिन निकल गये ब्राह्मण का परिवार नहीं आया लेकिन बर्कीबरीक आ पहुंचा. पिता ने उसे नौ दिन बाद आने के लिये कहा और कहा की उसकी पुत्री इन नौ दिनों में मिट्टी के गौर बनाकर खेलेगी उसके बाद आना. इन्ही नौ दिनों को नवरात्र की पूजा के नाम से जाना जाता है इन दिनों में लडकियां सुअटा की प्रतिमा बनाकर सुअटा खेलती हैं. आखिरकार नौ दिन भी बीत गये और बारबरिक फिर आ गया. अब पिता ने अपनी पुत्री व बर्बरीक को पांच दिन भिक्षा मांगने के लिये मनाया. और पूर्णिमा को उनका विवाह निश्चित किया. ऐसा माना जाता है की नवमी से पूर्णिमा तक इन पांच दिनों में टेसू और झांझी मांगने की प्रथा की शुरुआत हुई होगी .
ये पांच दिन भी निकल गये और पूर्णिमा का दिन आ गया . हताश होकर पिता को टेसू और संझी का विवाह करवाना पड़ा. लेकिन अभी सात फेरे पूरे नहीं हुए थे की ब्राह्मण का परिवार वहां आ पहुंचा उन्होंने विवाह रोककर टेसू से युद्ध किया और उसे हरा दिया . टेसू झांझी से फिर से आने का वादा कर नदी में कूद गये और वहां से चले गये . परिवार वालों ने झांझी को अशुद्ध मानकर उसकी हत्या कर दी .
संभवतः इसी कारण टेसू और संझी का विवाह आज भी संपन्न नहीं होने दिया जाता . टेसू और झांजी का विवाह बीच में ही भंग कर संझी की मटकी फोड़ दी जाती है और टेसू को नदी में सिरा दिया जाता है .ऐसी मान्यता हैं कि टेसू का सिर तोड़कर या उसके मुंह पर लगी कौड़ियों को तोड़कर यदि अपने पास रख लिया जाए तो वह भाग्य का प्रतीक होता है .
झेंझी और टेसू का विवाह कराने के बाद इनका विसर्जन कर दिया जाता है. राजस्थान के सीकर में उनका मंदिर भी है. उत्तर भारतीय परंपरा में विवाहों का आरंभ होने से पहले टेसू और सांझी का विवाह रचाया जाता है ताकि जो शकुन-अपशकुन और विघ्न बाधाऐं आनी हैं वो प्रतीकात्मक तौर पर टेसू और संझी के विवाह में ही आ जाएँ और उनके बच्चों का विवाह हंसी ख़ुशी संपन्न हो सके. कुछ लोग मानते हैं की टेसू और संझी का विवाह उनकी विवाह की वर्षगाँठ के रूप में मनाया जाता है और विवाह की वर्षगाँठ का चलन यहीं से आया.
संझा का प्रसिद्द गीत
मेरा टेसू यहीं अड़ा
खानें को माँगे दही बड़ा
दही बड़ें में मिर्चें भोत
आगे देखो गली की गोक
गली की गोक में पड़ी थी झंडी
आगे देखो पीपल मंडी
पीपल मण्डी में बजा नगाड़ा
आगे देखो रावत पाड़ा
रावतपाड़े में पड़ी थी केसर
आगे देखो मनकामेश्वर
मनकामेश्वर में पड़ा था पहिया
आगे देखो यमुना मैया
यमुना मैया में पड़े थे फूल
ऊपर देखो रेल का पुल
टेसू रे टेसू
घंटार बजईयो
दस नगरी दस गाँव बसईयो
बस गये तीतर बस गये मोर
सड़ी डुकरिया ए लै गये चोर
चोरन के घर खेती
खाय डुकरिया मोटी
मोटी है के दिल्ली गयी
दिल्ली ते दो बिल्ली लाई
एक बिल्ली कानी
सब बच्चों की नानी।
टेसू भैया बड़े कसाई
आंख फोड़ बन्दूक चलाई
सब बच्चन से भीख मंगाई
दौनों मर गए लोग लुगाई।
टेसू के भई टेसू के
पान पसेरी के
उड़ गए तीतर रह गए मोर
सड़ी डुकरिया लै गए चोर
चोरन के जब खेती भई
खाय डुकटटो मोटी भई।
हमारे लिए संझा लोक कि सौंधी महक और लड़कियों की कल्पनाशीलता को आकर देता एक महा-उत्सव है.प्रकृति को यह किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाता। इसलिए यह एक प्रकृति सम्मत त्यौहार है ।
चंद्रकांता
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