वे हरे खेत याद हैं तुम्हें ?
मैंने जोता तुमने बोया,
धीरे धीरे अंकुर जाए,
फिर और बढ़े, हमने तुमने मिलकर सींचा ।
फिल्म की कहानी एक औसत निम्न मध्यम वर्गीय परिवार की है जिसकी जड़ता मौजी और ममता को अपने संबंधों में निजता का स्पेस नहीं देती । परिवार में एक असंतुष्ट पिता हैं जो रिटायर हो चुके हैं बात-बात में मौजी पर अपना गुस्सा जाहीर करते हैं; जिसकी भूमिका रघुवीर यादव ने निभाई है । खानदानी कपड़ा सिलाई के काम में उनकी कोई रूचि नहीं । एक छोटा भाई और उसकी पत्नी है जो परिवार से अलग रहते हैं लेकिन मिलने जुलने आते रहते हैं। एक ठेठ निम्न मध्यमवर्गीय माँ हैं जिसे बीमारी के समय भी चूल्हे-चौके और खाली बर्तनों को पानी से भरे जाने की फिक्र रहती है और जिनकी दिनचर्या का कोई भी प्रसंग अपनी बड़ी बहू ममता के बगैर पूरा नहीं होता । फिल्म के कहानीकार और निर्देशक शरत कटारिया ने एक बेहतरीन भूमिका माँ के रूप में गढ़ी है जिसे पर्दे पर यामिनी दास ने बखूबी निभाया है । सास-बहू के संबंध सहज भी हो सकते हैं ‘सुई धागा’ हमें यह याद दिलाती चलती है । वरना परिवार नाम की संस्था का जो विकृत रूप अमूमन हमें छोटे पर्दे देखने को मिलता रहा है उसने यह बात भुला ही दी थी कि रिश्ते अपने कलेवर में सहज भी हुआ करते हैं। निर्देशक ने कई छोटी बारीकियों का खयाल रखा है और अपनी इस सजगता के चलते वे औसत भारतीय परिवार का मनोविज्ञान पकड़ने में सफल रहे हैं। पिता की भूमिका के लिए अभिनेता का चयन ‘पटाखा’ ( विजय राज ) और ‘सुई धागा'( रघुवीर यादव ) दोनों ही फिल्मों में अच्छा है । पटाखा का अपना स्वाद था लेकिन हर मायने में सुई धागा एक बेहतर सिनेमा है।
परिवार में एक और खास सदस्य है – ऊषा कंपनी की एक पुरानी सिलाई मशीन जो पड़ोसी परिवार ने मौजी के पास रख छोड़ी है। मौजी उस पर अपने परिवारके कपड़े सिलता है । आप पहले ही दृश्य से आप खुद को फ़िल्म से जुड़ा हुआ पाएंगे। शरत के निर्देशन में देसीपन की जो सौंधी खुशबू ‘दम लगा के हईशा’ में थी वह यहाँ भी है । भाषाई सहजता की दृष्टि से भी फिल्म अच्छी बन पड़ी है । मध्यांतर से पहले कुछ लोगों को कहानी की गति धीमी लग सकती है लेकिन कहानी में रिदम है।
मौजी के रूप में वरुण धवन और ममता के रूप में अनुष्का दोनों नें अपने किरदारों को साधने की अच्छी कोशिश की है । हालांकि किसी किसी संवाद में दोनों पर शहरी टोन हावी रहा है फिर भी उनकी तारीफ करनी होगी। वरुण धवन हमारे पसंदीदा नहीं रहे लेकिन उनकी तारीफ करनी होगी कि बगैर लाउड हुए वे वैविध्य भरी भूमिकाएँ चुन रहे हैं और बखूबी उन्हें निभा भी रहे हैं। उन्होने इस साल दो बेहतरीन परफ़ार्मेंस दिये हैं । ‘अक्टूबर’ में भी उन्होने अपने किरदार को बेहद संजीदगी से निभाया था । अपने समकालीनों में वे अधिक सहज हैं।
इस दशक की अच्छी बात यह रही कि सिनेमा में भूमिकाएँ लिखे जाते वक़्त अभिनेत्रियों को अधिक स्पेस मिला। ‘सुई धागा’ एक खूबसूरती से बुनी गयी फिल्म है । फिल्म में कई लमहें हैं जो हमें छू गए । शादी हुए कुछ एक बरस बीत गए लेकिन इतने बरसों में पति-पत्नी ‘पहली बार साथ बैठकर खा रहे हैं’ , ‘पहली बार पति नें पत्नी कि तारीफ की’ , ‘पहली बार एक दूसरे का हाथ पकड़ा’ … । हम खुद भी एक संयुक्त परिवार से रहे हैं अपने माता-पिता को अलग-अलग कमरों में सोते हुए देखा है । संयुक्त परिवार की तमाम अच्छी बातें हैं लेकिन पति-पत्नी के संबंधों में निजता का अभाव भी उसका एक सच है।
‘सुई धागा’ आपको पति-पत्नी के रिश्ते के ऐसे स्निग्ध संसार में ले जाती है जहां जीवन से संघर्ष में साथ निभाने का नाम ही प्यार है; प्यार जताने के लिए जहां मौजी और ममता को ‘आई लव यू’ नहीं कहना पड़ा; एक दूसरे की आत्मा तक पहुंचने के लिए शरीर से होकर नहीं गुजरना पड़ा। हमें हमेशा से प्यार में यही स्वाद चाहिए था इसलिए भी हमें यह फिल्म खास लगी। ममता और मौजी के दृश्य लम्हों की तरह मन के कैनवास पर अंकित हो गए हैं।
फिल्म सुई धागा : मेड इन इंडिया, दों स्तरों पर आपसे संवाद करती है वैवाहिक जीवनसाथी से संबंधों की खूबसूरती और नष्ट हो चुके हस्तशिल्प ( हथकरघा ) उद्योग।फिल्म संकेत करती हुई चलती है कि उम्दा कारीगरी के लिए फैशन डिजाइनिंग के व्यावसायिक पाठ्यक्रमों से कहीं अधिक लगन और मेहनत की जरूरत अधिक होती है । फिल्म इस समस्या को भी सामनेरखती है की ‘कैसे अपनी ही बनाई चीज पर अपना हक नहीं रहा’। स्वदेशी परंपरागत उद्योग बाजार के सयानेपन और अनदेखी के चलते खत्म होने लगे। हस्तशिल्प (हथकरघा ) एक हुनर है लेकिन व्यावसायिकता के चलते उसका जो हाल हुआ उसने एक पूरे गाँव को अपना परंपरागत शिल्प छोड़ने को मजबूर कर दिया। ममता और मौजी फिर से गाँव / कस्बे को अपनी जड़ों से जोड़ते हैं और पूरे समूह की भागीदारी से हथकरघा कारीगरी को वह सम्मान दिलाते हैं जिसका वह हकदार है।
फिल्म का निर्देशन अच्छा और चुस्त है। गीत अर्थपूर्ण लेकिन सामान्य प्रभाव के हैं ।स्क्रीनप्ले औसत से अच्छा है। फिल्म का पार्श्व संगीत सामान्य है इस साल देखी फिल्मों में ‘पटाखा’ में विशाल भारद्वाज का और ‘अक्टूबर ‘ में शांतनु मोइत्रा का पार्श्व संगीत काफी उम्दा रहा ।
चंद्रकांता