साधिकार झोली में भर
शुष्क खंडहरों को, शून्य में
ताकती रही अ-क्षण, जैसे
कोई अक्षत रिश्ता रहा हो
उन चिर निन्द्रित पाषाणों से
एक पुरानी कतरन
और बेकार पड़े उबड-खाबड़
ब्रश से उन प्रक्षिप्त रंध्रों की
सदियों से, छीजती पीड़ा पर
स्नेह लेप करती जाती थी
कुछ क्षणों की उधेड़-बुन
हथेलियों के आरोह-अवरोह
सर्जना के अभिसार से, वह
बन गए थे एक कलाकृति
किन्तु अनिमेष, मौन !
सहसा, पाकर संवेदन-स्पर्श
मेरे अलसाये अधबिम्बों से
धीमे-धीमे सिसकती झील का
वह कलाकृति मुस्कुरा दी, किसी
महाकाव्य की श्लील नायिका की तरह
चंद्रकांता
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