हे! पीताम्बर
अब तुम चमत्कृत नहीं करते
अनावृत हो चली है
तुम्हारे अधरों पर खेलती
वह कुटिल मुस्कान
तुम्हारे मस्तक पर, शोभित
यह पंख-मयूर
आत्मा में
शूल की तरह चुभता है
कहो! कृष्ण
तुम केवल पुरुष ही थे ना
जो छलते रहे
स्त्री का तन-मन-वचन
बहरूपिया बनकर
अरे! निर्लज्ज निष्कामी
देखो उस स्त्री को
जो छ-ट-प-टा-ती रही
तुम्हारी दूषित मर्यादा के(द्वारा)
नोच लिए जाने पर
गुनाहों के देव!
तुम्हारा पीत वस्त्र
बिकता है रात-दिवस
गली-मोहल्ले हर नुक्कड़
कौड़ी के भाव जिस्म बनकर
सच कहो!
तुम्हारा हिय नहीं फट पड़ता
मधुबन के माली..
( पीताम्बर कृष्ण का संकेत यहाँ केवल ‘छलना’ के अर्थ में किया गया है )
चंद्रकांता
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आपके फेसबुक पेज से आपके ब्लॉग के बारे मे पता चला।
आप बहुत अच्छा लिखती हैं। यह कविता भी अच्छी लगी।
सादर
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अगर कुछ दे सको तो ........
एक निवेदन
कृपया निम्नानुसार कमेंट बॉक्स मे से वर्ड वैरिफिकेशन को हटा लें।
इससे आपके पाठकों को कमेन्ट देते समय असुविधा नहीं होगी।
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http://www.youtube.com/watch?v=L0nCfXRY5dk
धन्यवाद!
आभार यश जी हमें पहले भी इस और किसी नें संकेत किया लेकिन हमें तकनिकी रूप से समझ नहीं आया।
आपसे निवेदन है की अब सेटिंग चेक कीजिये शायद सुधार हो गया है।
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A social concern in lyrical form. Beautiful. I again appreciate you to take the poetry beyond the limits of art.