चरण सिंह पथिक : दो बहनें
चरण सिंह पथिक : दो बहनें : स्वर चंद्रकांता
वे दोनों बहनें थीं, सगी बहनें। बचपन में दोनों दिनभर लड़ती रहतीं। बात-बात में लड़ाई तो बात-बात में गुत्थम-गुत्था। एक बहन से दूसरी बहन मेले-ठेले में एक रुपया उधार ले भी लेती, तो कुछ दिन बाद दूसरी सूद सहित दो रुपया माँगती। देने-लेने में आनाकानी होती तो दोनों की चोटी एक-दूसरे के हाथ में होती। बड़ी होने पर दोनों एक ही घर में सगे भाइयों के साथ ब्याही गई तो युद्ध का मोर्चा ससुराल में भी दोनों ने खुला ही रखा।
बड़ा भाई दूरसंचार विभाग में अफसर तो छोटा भाई मिलिट्री के पैराशूट ग्रुप में हवलदार था। ससुर था नहीं। घर में बुजुर्गों के नाम पर एकमात्र बूढ़ी सास थी, जो उन्हें समझाती रहती। वे नहीं मानतीं तो थककर चारपाई पकड़ लेती। वक़्त के साथ-साथ दोनों बहनें ने आधा दर्जन बच्चे पैदा किए। दूरसंचार क्षेत्र में भी अभूतपूर्व क्रांति का दौर चल रहा था। हर एक को जेब में एक अदद मोबाइल नजर आने लगा।
बड़की का पति दूरसंचार का अ$फसर ठहरा, सो उसके यहाँ दो मोबाइल आए। एक हर वक़्त बड़की के ब्लाउज में पालतू कबूतर-सा दुबका रहता। दूसरा उसके पति के पास रहता। गाँव से पचास-साठ किलोमीटर दूर शहर में उसकी नौकरी थी, इसलिए दस-पंद्रह दिन में ही घर का एकाध चक्कर लग पाता।
बड़की के ब्लाउज में छुपे मोबाइल पर जब घंटी घनघनाती तो उसकी छाती में मीठी-सी हिलोर उठती। उसने मोबाइल चालू और बंद करने की प्राइमरी क्लास अपने पति के सान्निध्य में पास कर रखी थी।
वह बड़े ठसक से मोबाइल निकालती। टिक्कऽऽऽ से बटन दबाती और अपना मुँह छुटकी की तर$फ करके बात करती, ”हल्लूऽऽऽ आप कौण जी!…अच्छा…अच्छा…गोलू के पापा हैं…जब ईऽऽऽ मैं सोचूँ…आधी रात…को…नींद $खराब…!ÓÓ फिर वह आश्र्च भरे स्वर में कहती, ”कीऽऽऽ अब ईऽऽऽ आठ बजे हैं…।…तो मैं काऽऽऽ जाणूं…मुबाल में टैम…देखबौ।ÓÓ वह बात करते-करते कभी मकान के ऊपर चढ़ती तो कभी नीचे आकर चबूतरे पर मोरनी का-सा नाच चाचते हुए इधर से उधर दौड़-सी लगाती। छुटकी देख-सुन जल-भुनकर राख हो जाती।
बड़की उसी टूम-ठसक से मोबाइल ब्लाउज़ में खोंसकर छुटकी को सुनाकर अपनी सास से कहती, ”अ$फसरी का जेऽऽ ईऽऽ तो $फायदा है। फौरंट समंचार ले लो।ÓÓ
सास बेचारी टुकुर-टुकुर आसमान की तर$फ देखती।
छुटकी बहन बड़बड़ाती, ”हूँऽऽहऽऽ बड़ी आई ओ$िफसर की लुगाई। ऐसे मुबाल और ऐसे धणी तो टिंडे टमाटरों की तरह खेतों में पड़े रहते हैं।ÓÓ
बड़की टीवी एंटीना की तरह छुटकी के बड़बड़ाने को ज्यों-का-त्यों जीवंत पकड़कर गरजती, ”नाशगई, तेरा $खसम होगा टिंडा! तू होगी टमाटर की लुगाई। तेरे दीदे चौड़े-फट्ट में फूट गए काऽऽ! गोरमेंट में मेरा धणी अ$फसर और या घर में मेरी जूती अ$फसर। समझी…।ÓÓ
छुटकी जूती का नाम सुनकर पैट्रोल की तरह भक्क से लौ पकड़ लेती, ”तेरी-सी जूती तो मेरे पाँवों में पड़ी रहती है। नज़दीक तो आऽऽऽ !ÓÓ छुटकी चुनौती देती।
सास चारपाई से उतरकर गरियाती, ”अरी, $खसमखाणियो! शरम करो, शरम!ÓÓ लेकिन उस बेचारी की आवाज़ नक़्$कारखाने में तूती की आवाज़ होकर रह जाती। पड़ोसी दीवारों से कान लगाकर लगभग रोज़ होने वाले बिना पैसों के इस नाटक का ख़ूब आनंद लेते।
बड़की चुनौती भरे स्वर में ही चुनौत्ी स्वीकार कर कहती, ”आने दे अबकी…गोलू के पप्पााऽऽऽ को…। तेरे पाँवों की जूती देखणी है।ÓÓ
छुटकी कहाँ पीछे रहती, ”बुला…बुला…उस टेली$फोनिया को…! पिल्लूड़ी का पप्पा भी आने वाला है छुट्टी…! असल बाप की हो तो अब अइयो मैदान में…।ÓÓ
दोनों बहनों की लड़ाई इसी तरह दूरसंचार उपकरण के बहाने शुरू होकर
मसालों से औरतों का संबंध केवल रसोईघर तक का नहीं होता. पढ़िए केतन मेहता की शानदार फिल्काम ‘मिर्लच मसाला’ की समीक्षा https://matineebox.com/mirch-masala-1987/
जीवन के हर दबे ढँके पहलू को छूते हुए समाप्त होती। गाहे-बगाहे गुत्थम-गुत्था भी हो जातीं। पटका-पछाड़ी भी हो जाती। सास बचाते-बचाते थक जाती तो उन्हें उनके हाल पर छोड़कर हाँ$फने लगती और वे थोड़ी देर बाद अपने आप रुक जाती। आधा दर्जन भर बच्चे चौक में एक-दूसरे का पीछा करते रहते या काँय-कूँ करते हुए ठिनकते रहते। शाम होने पर $खूब शोर मचाते। टाल-टिल्ली, छुआन-छुई तथा मियाँजी की घोड़ी का खेल खेलते हुए हँसते रहते। झगड़ते रहते।
उन दोनों बहनों को देश-दुनिया की $खबरों और राजनीति से कोई सरोकार नहीं था। जो चुनाव चिह्न खोपड़ी मेें बैठ जाता या कोई कार्यकर्ता बीच रास्ते बहका देता, उसी पर ठप्पा लगा आतीं। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के नामों में सर्वथा अनजान वे अपने देश-प्रदेश का नाम तक भूल जातीं। गाँव के सरपंच का नाम उनकी जुबान पर चढ़ चुका था। वो भी इसलिए कि उससे यदा-कदा कोई-न-कोई निकल ही आता। बुश, ओसामा, मुशर्र$फ, मनमोहन सिंह आदि होंगे कोई अपने-अपने घरों में तीसमार $खाँ। उनके घर में तो सि$र्फ उन्हीं दोनों की तूती बोलती है और बोलती रहेगी।
न वैट का नाम सुना और न ही शेयर बाज़ार के घटने-बढऩे वाले सेंसेक्स से उन्हें कोई काम। चाय, साबुन, सोडा, कॉलगेट, चीनी, चावल आदि कभी $फौजी तो कभी दूरसंचार वाला इकट्ठा $खरीदकर रख देते। भैंसों की खली तथा बच्चों और स्वयं के कपड़े, तेल, नमक व मिर्च-मसाले गाँव का दुकानदार घर बैठे दे जाता और मनमाना वसूलता। उन्हें इन सबकी कोई परवाह नहीं थी। हाँ, रसोई गैस इस्तेमाल करना दोनों ने जरूर सीख लिया था। वो भी इस कारण कि गैस का सिलेंडर अब घर बैठे सप्लाई होने लगा था।
छुटकी ने अपने कमरे में $फौजी द्वारा खरीदा टीवी लगा रखा था। छत पर डिश-एंटीना भी $फौजी ने लाकर लगा दिया था। कभी-कभार बिजली आती, तो टीवी चलता। बच्चे बार-बार चैनल बदलते। देश-विदेश के समाचारों से उन्हें कोई मतलब नहीं रहता। सदी का महानायक उनके खेतों में काम करने आ नहीं जाएगा और न ही आमिर, सलमान, शाहरु$ख उनकी भैंसों को चराने तालाब की तर$फ जाएँगे।
सो उनका गठीला और कसा बदन देखकर उनके शरीर में कोई सनसनी नहीं दौड़ती और न ही ऐश्वर्या राय, करीना कपूर और मल्लिका शेरावत की अदाएँ चूल्हे में फूँक देने और कंडे थापने के काम आएंगी। इसलिए जब किसी $िफल्म में अधनंगी नायिका नायक से लिपटा-झिपटी और चूमा-चाटी करती तो दोनों बहनें ऐन आगे-पीछे कहतीं, ”बेशरम! बेहयादारी!!ÓÓ
छुटकी जान-बुझकर पूछती, ”देखने वाले की टीवी वाले?ÓÓ
”दोनों…!ÓÓ और बड़की फटाक से टीवी बंद कर छुटकी को घूरने लगती। फिर तो वे देश-दुनिया की तमाम चिंताओं-आपदाओं और हीरो-हीरोइन की अदाओं को धता बताकर आधी रात तक जमकर लड़तीं। बूढ़ी सास हमेशा की तरह रात का वास्ता देकर टोकती हुई खाँसती जाती, हाँ$फती जाती और बच्चे जहाँ वश चलता, वहीं खा-पीकर मौसमानुसार सो जाते। उनका अलग-अलग चूल्हा था, इसलिए वे अपनी सेंकतीं और अपनी खातीं। थक-हारकर दोनों बहनें रात की ब्याल कर अपनी-अपनी चारपाइयों पर बेसुध गहरी नींद में सो जातीं। बड़की के सपनों में हर वक़्त मोबाइल घनघनाता रहता तो छुटकी सपनों में चीलगाड़ी में बैठकर मौजी खाती रहती।
प्रसिद्द कथाकार और मैथिली साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर डा शेफ़ालिका वर्मा की कहानी ‘मुक्ति’ https://gajagamini.in/mukti-shefalika-verma/
दिन निकलने पर वे पशुओं के लिए खेतों से हरा चारा लातीं। फिर गोबर इकट्ठा कर कंडे थापतीं। रोटियाँ थेपतीं और लडऩे के लिए रोज़ वक़्त भी निकाल लेतीं। खेती आधे-बाँटे पर उठा ही रखी थी।
दोनों का भैंस-गाय बाँधने और भूसा-चारा रखने का बाड़ा इकट्ठा ही था। बाजरे की कड़वी की कुट्टी बाहर ही बाड़े में रखी हुई थी। बड़की अपनी भैंस को सुबह सानी कराने के लिए कुट्टी लेने गई तो उसे कुट्टी के ऐन $करीब पा$खाना नज़र आया। वह ढकोला वहीं फेंककर उलटे पाँव मकान में आकर छुटकी से गुस्से में बोली, ”अपने चीकलेटों के गू-मूत नहीं सँभलते तो काय कू पैदा किए?ÓÓ
छुटकी सुबह-सुबह अचानक हुए इस हमले से बौखला गई। वह पलटकर बोली, ”दर्द तो मैंने झेला…! तेरी…फोकट…में…सुबह-सुबह…क्यों…?ÓÓ
”नकटी…!ÓÓ बेहया…!! तेरे जैसे दर्द तो भौत झेले हैं मैंने…। पर कुट्टी के ढिंग से अपने सपूत की टट्टी तो सा$फ कर देती…! बड़की एक पाँव चारपाई पर रखते हुए दनदनाकर बोली।
छुटकी बिफरी, ”क्यों करूँ? तेरे बच्चों ने की होगी।ÓÓ
”झूँठी! चलकर देख। उसमें अमरूद के बीज पड़े हैं। शाम कू मेरे छोरा-छोरियों ने अंगूर खाए थे, अमरूद नहीं…।ÓÓ बड़की ने सफाई दी।
”और मेरे चीकलेटों ने केले खाए थे। समझी…।ÓÓ छुटकी ने नहले पर दहला मारा।
”तेरे बाप-दादों ने खााय है कभी केला…?ÓÓ बड़की ने ताना मारा।
”और तेरों ने खाए कभी अंगूर…?ÓÓ छुटकी ने हाथ नचाकर कहा।
”बाप-दादों तक पहुँचने की हिम्मत कैसे की तैंने…?ÓÓ बड़की की आँखें सु$र्ख हो उठीं।
”और…तैं…ने…?ÓÓ छुटकी ने कमर पर हाथ रखकर जवाब दिया।
”ठहर तो बापखाणी…!ÓÓ बड़की छुटकी की ओर लपकने को हुई।
”आऽऽ ऽऽ मैं बणाउँ तोय वीरौठनी।ÓÓ छुटकी ने चाय के बर्तन एक तर$फ हटाकर पास रखी झझरी तलवार की तरह ऊपर तानकर कहा।
बड़की सहमकर पीछे हटते हुए यह कहकर वापस बाड़े की तर$फ चल पड़ी, ”असल बाप की होय तो यहीं ठाड़ी रहियो। अभी आती हूँ हाथ-मुँह धोकर…!ÓÓ
वे दोनों हर बार यह भूल जातीं कि उनके माँ-बाप अलग-अलग हैं या एक…? दोनों एक बाप की माँ जायी औलाद। लेकिन अक्सर लड़ाई के अंत में दोनों ही इस जुमले का प्रयोग करने से नहीं चूकतीं।
तब दो दिन तक ढ़ोर भूखे बाड़े में रँभाते रहे। कुट्टी के पास पड़ी हुई टट्टी दोनों में से किसी ने भी सा$फ नहीं की। छोटे बाप की कौन-सी बने…? आ$िखर में जब बूढ़ी सास से नहीं देखा गया तो खुरपी और झाड़ू लेकर उसने स$फाई की।
दोनों के बच्चे इन सबसे बेपरवाह रहते। एक के यहां देर-सवेर रोटी बनती तो दूसरी के यहाँ बे$खौफ-बेझिझक जबरन खा जाते। दस-पंद्रह दिन में बड़की का पति जब घर आया तो बड़की पति को बताने के लिए जी-जान से सास की सेवा करने लगती। छुटकी के बच्चों को जी-प्राण से रखती। तब $खुश होकर उसका पति अपनी माँ से कहता, ”माँ बहुत सेवा करती हे तेरी ये…! छुटकी के बच्चों को भी बड़े प्यार से रखती है।ÓÓ
यह सुनकर बूढ़ी दमे से हाँफती-काँपती कहती, ”हाँ बेटा, मेरी तो दोनों बहुएँ लाखों में एक हैं। दोनों बड़े प्यार से रहती हैं। माँ जायी बहनें जो ठहरीं…!ÓÓ
यह कहकर सास मन ही मन सोचती अगर रोज़-रोज़ का तमाशा बेटे से बखानने लगूँ तो महाभारत हो जाएगा। मगर वह दस-पंद्रह दिन में एक बार घर आनेे वाले बेटे का दिल छोटा नहीं करना चाहतीं। माँ के मुँह से दोनों की प्रशंसा सुनकर बड़की का पति कहता, ”मिलकर रहने में $फायदा ही $फायदा है। दूरियाँ कम होती हैं। मैं भी इससे यही कहता हूँ और फिर हमारे तो विभाग का काम ही दूरियाँ कम करना है।ÓÓ
वह रातभर घर रुकता और सुबह पहली बस से अपनी ड्यूटी पर रवाना हो जाता। सुबह बड़की जान-बूझकर अंगड़ाई लेकर छुटकी के सामने से छम…छम करती निकलती तो छुटकी जल-भुनकर, मुँह बिदकाकर मन ही मन बड़बड़ाती, ”ऊँ…हूँऽऽ…ये भी कोई आना हुआ कि आप आए और होंठों पर बु$खार की तरह पिसाब-सा करके भाग लिया। परसों पिल्लूड़ी का पप्पा आ रहा है छुट्टी। तब देखूँगी इसका उसका!ÓÓ फिर कुछ सोचकर उसकी छाती में गुलगुली-सी उठने लगती।
बस एक फागुन का महीना ऐसा आता कि लडऩे-झगडऩे की फुरसत नहीं मिलती। दोनों बहनें मुहल्ले की औरतों की अगुवाई करतीं। रात के तीसरे पहर तक होली का नाच-गान चलता रहता। दोनों को अगर लडऩे की हुलहुली छुटती तो होली के नाच और गीतों के माध्यम से कसर कर पूरी डालतीं। औरतों के घेरदार झुंड के बीच छुटकी घूमर-दे-देकर नाचती गाती जाती-
ओऽऽऽ मैया मेरे एकलो बलम हो गौ भरतीऽऽऽ
कुण जोत गौ अठारह बीघे धरतीऽऽऽ
ओऽऽऽ मैया मेरी…।
औरतें ताली बजा-बजाकर गीत के बोल मस्ती में दोहरातीं। बड़की भी कहाँ पीछे रहती। अपनी बारी आने पर कोयल की तरह कूक उठती-
होरी मौ से खेल लै बसंती गौ फगुनाऽऽ
ठाड़ी-ठाड़ी को उमग रहयौ जुबनाऽऽ
ओ…होरी…।
फिर एक के बाद एक…छुटकी को चिढ़ाने की $गरज़ से गातीं-
चना में आ गई घेघरिया
रमझोल गढ़ा दै देवरियाऽऽऽ
चना में…।
नाचते-गाते रात का तीसरा पहर बीत जाता। दोनों बहनें मिलकर हर दिन अलग-अलग तरह का स्वाँग भरतीं। कभी लोहपीटा-लोहपीटन, कभी $फौजी तो कभी सिपाही और कभी लखेरा-लखेरिन। देखने वालों के मुँह से ‘वाह छुटकी, वाह बड़कीÓ निकलता तो वे आपस में गुर्राकर अपनी $खुशी ज़ाहिर करतीं। धुलंडी के दिन पानी से तर-बतर हुए कपड़े एक हाथ से सँभालकर एक हाथ में लट्ठ थामे जब अपने मुहल्ले के देवर-जेठों के पीछे दौड़ लगातीं तो दौडऩे वाले को गिड़गिड़ाने पर मजबूर कर देतीं।
ज्य़ादातर $फौजी या तो होली पर छुट्टी आते या होली के तुरंत बाद। छुटकी का हवलदार होली बाद ही छुट्टी पर आ सका। छुटकी होली पर उम्मीद लगाए बैठी थी। हवलदार एक महीने की छुट्टी पर आया तो घर में चहल-पहल बढऩी ही थी।
हवलदार को दोनों के बच्चे चॉकलेट और मिठाई के लालच में हर वक़्त घेरे रहते। छुटकी की ऐंठ-ठसक देखने लायक थी। $फौजी की उपस्थिति के कारण दोनों के पेट में आ$फरा जैसा कुछ महसूस होता तो आँखों-ही-आँखों में तथा हाथों के अपने ईजाद किए गए अजीब इशारों से लड़ लेतीं। मकान की पौड़ी से संयोगवश जब कभी दोनों एक साथ बाहर निकलतीं या अंदर आतीं तो छुटकी कोहनी या मस्का लगाकर धीमे स्वर में चुनौती देती, ”अब बोलकर देख…! तेरा टेंटुआ दबा दूँगी।ÓÓ
बड़की मन ही मन जहर का घूँट पीकर कहती, ”एक महीना बाद तेरी घाघरी की लीर-लीर नीं करीं तो मैं अपनी माँ जायी नहीं।ÓÓ खुलकर लड़े हुए और गुत्थम-गुत्था हुए $फौजी के कारण कई रोज़ हो चुके थे। एक दिन जब हवलदार रम की बोतलें, शैंपू, क्रीम, साबुन-सोडा व$गैरह लेने शहर की मिलिट्री कैंटीन को गया, तो मैदान $खाली मिला।
अचानक आकाश में एक का$फी नीचे उड़ते हवाई जहाज को देखकर छुटकी अपने बच्चे से बड़की को सुनाकर बोली, ”तेरे पापा इसी चीलगाड़ी में बैठकर रोज़ अपने मकान के ऊपर से जाते हैं। एक दिन तो मेरे पापा ने झाला देकर मुझे भी बुलाया था।ÓÓ
बड़की ने सुना।
सुनकर बहुत गुस्सा आया। झूठ की भी हद होती है। बड़ी अँग्रेज़ी झाडऩे लगी है। अगर-मगर, क्या, मुझे जैसे शब्द उसे अँग्रेज़ी के लगते। वह जीभ निकालकर बोली, ”कब्बी बाइसकल भी देखी…? बिड़ला की महतारी…चीलगाड़ी की धिराणी…!ÓÓ
”बिड़ला की महतारी होगी तू…! तौ कू मतलब…काऽऽऽ?ÓÓ
”बिड़ला काऽऽ बीमारी है मेरे आगे!ÓÓ बड़की अपने अ$फसर पति का रौब दिखाती। फिर दाँत पीसकर त$कादा करती, ”पर साल के मेरे सौ रुपये ब्याज समेत चुका दे पहले नाकदार…। चीलगाड़ी में तो पीछे बैठियो…।ÓÓ
”काय के सौ रुपये…? सौ का नोट चीन्हती भी है…? दस दिन तो ठसककर तू दूध और सब्जी माँगकर ले गई। सो तेरा कुछ भूल-चूक में लिया गया होगा तो चुक्कम-चुक्का।ÓÓ छुटकी सा$फ पलट गई।
उस दिन से जमकर लड़ीं। कसर यह रही कि $फौजी के डर से पटका-पछाड़ी नहीं हुई। दोपहर में दोनों ने थकान की वजह से आई नींद की पूर्ति भी की। बूढ़ी सास समझ गई कि आज उसकी रोटियों का रामजी ही धणी है। दोनों अनपढ़ होने के कारण पैसों का हिसाब इस ढंग से करतीं कि सामने वाला माथा पीटता रह जाता। दोनों में $करीबन रोज़ हिसाब होता। लेकिन कमबख़्त हिसाब का ओर-छोर दोनों को ही नहीं मिलता, इसलिए हिसाब फिर अधूरा रह जाता।
बड़की हमेशा अपना मोबाइल ब्लाउज में खोंसे रहती। कोई दूसरी इस बाबत पूछती तो चिंता भरी ठसक में बताती, ”ज़माना $खराब है भैंणा। जाने कब्ब…गोलू के पापा का फून आ टपके… सो मैं तो हगते-मूतते भी इसे संग राखूँ भैंणा। अब कोई जले तो $खूब जलै…।ÓÓ
छुटकी दूसरी के जरिए ऐसा सुनती तो वह भी कहाँ पीछे रहती…।
शाम को चार-पाँच अपनी मन-मिलताऊ औरतों के सामने छुटकी शुरू हो जाती, ”अबकी तो मैं भी हवलदार के संग जाऊँगी। जिंदगी में घूम ले सो है। देख ले सो है। मैं भी चीलगाड़ी में बैठकर मौजी खाऊँगी।ÓÓ कोई छुटकी की बात को बड़े ध्यान से सुनती तो कोई इस कान से सुनकर उस कान से निकालकर नित्य कर्म में ध्यान देने लगती।
हवलदार की छुट्टी पूरी हो चुकी थी। सामान जमाया जाने लगा तो छुटकी ने साथ चलने की जिद पकड़कर कहा, ”मैं भी चलूँगी। कुछ भी हो।ÓÓ
”और बच्चे…?ÓÓ हवलदार ने पूछा।
”माँजी संभाल लेंगी। एक महीना आगरा घूमकर वापस आ जाऊँगी।ÓÓ
हवलदार आगरा में तैनात था। उसने का$फी समझाया कि क्वार्टर की दिक़्$कत होगी। घुमाने के लिए वक़्त मिल भी सकता है और नहीं भी। सास ने भी टोका।
बच्चे भी साथ चलने को मचले, लेकिन छुट्टी नहीं मिली। $फौजी चाहे अ$फसर के हुक्म में टाल-मटोल कर दे, मगर बीवी के हुक्म में कोताही नहीं कर सकता। हारकर उसने शाम को अवध एक्सप्रेस से चलने को तैयार हो जाने के लिए कह दिया।
छुटकी को गए हुए अभी मुश्किल से दस दिन ही गुज़रे थे कि बड़की बीमार हो गई। गाँव के झोला छाप डॉक्टर और नीम-हकीमों से दवाई ली, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। भैंरो-भुमिया भी ढ़ोकती रही। पति को मोबाइल से $खबर की तो वह दौड़ा आया। शहर ले गया। बड़े अस्पताल के डॉक्टर को दिखाया- वो भी घर पर।
डॉक्टर ने मजऱ् की सामान्य जानकारी मरीज़ से ली। बड़की ने बीमार आवाज़ में बताया, ”भूख नीं लगै। खोपड़ी में धाँय-धाँय होती रहती है। रात को नींद गायब। पेट हर वक़्त फूला-फूला रहता है। वायु उतरे सात दिन हो गए।ÓÓडॉक्टर ने कहा, ”जीभ निकालो।ÓÓ बड़की ने तुरंत अपनी चिकनी जीभ बाहर निकाली।
”ज़ोर से मुँह फाड़ो।ÓÓ
बड़की ने सुरसा की तरह मुँह फाड़ा, तो डॉक्टर को कहना पड़ा, ”बस-बसऽऽÓÓ फिर डॉक्टर ने आला लगाकर धड़कनें सुनीं, नब्ज़ देख और कहा, ”हाज़मा $खराब है। इसी वजह से अन्य बीमारियाँ पनप रही है।ÓÓ उसने अपनी $फीस लेकर पर्चा में दवाइयाँ लिखीं और साथ में यह हिदायत भी दी कि तीन दिन बाद मरीज़ को एक बार और दिखा दें। दवाइयाँ $खरीदकर बड़की को उसका पति गाँव छोड़ आया।
बड़की सुबह-शाम बताए गए तरी$के से नियमित दवाइयाँ लेने लगी। तीन दिन हो चुके थे, मगर उसे आराम नहीं मिला। तीन दिन बाद बड़की का पति उसे लेकर फिर शहर आया। अबकी बार स्पेशलिस्ट $िफजीशियन को दिखाया। सारे ज़रूरी चैकअप करवाए गए।
$िफजीशियन ने जाँच रिपोर्ट देखकर कहा, ”मुझे कोई $खराबी कहीं भी नज़र नहीं आती। फिर भी कुछ दवाइयाँ लिख देता हूँ। पाँच दिन बाद फिर आ जाना।ÓÓ बड़की ने सुना तो वह तमककर डॉक्टर के केबिन से बाहर निकल आई। डॉक्टर मरीज़ के इस अजीब व्यवहार से हतप्रभ रह गया। पति उसे पीछे-पीछे लपका।वह अपने पति से आँखें तरेरकर बोली, ”कौण के पास ले आया? ये दो कक्का की पूँछ भी नहीं जाणता। इलाज काऽऽ भट्टी की राख करेगा।ÓÓ और वह वापस घर आ गई।
रात को उसने अपने बड़े बेटे से कहा, ”बच्चा कू फून लगा आगरा। तेरी मौसी से बात करूँगी।ÓÓ
बेटे ने फोन लगाया। हवलदार ड्यूटी से ऑ$फ होकर क्वार्टर पर आ चुका था। $फोन उसने ही उठाया, ”हैल्लो, कौन?ÓÓ
”मैं…गोलू…।ÓÓ
”हाँ गोलू, बोल …क्या समाचार है घर के?ÓÓ
”सब ठीक है।ÓÓ
”बूढ़ी माँ ठीक है!ÓÓ
”हाँ, ठीक है बच्चा। मौसी को $फोन दो मम्मी बात करेगी।ÓÓ
हवलदार ने छुटकी के हाथ में $फोन देकर बताया, ”घर से $फोन है।ÓÓ
छुटकी ने झपटकर $फोन कान से लगाया। छूटते ही बोली, ”मैं छुटकी। तू कौण?ÓÓ
”मैं बड़की बोलती।ÓÓ
”नकटी! मौ सू बोलवै की जुर्रत का है।ÓÓ
”लाल किला , ताजमहल देखा?ÓÓ
”तेरा हड्डा, दारी।ÓÓ
”मैं तो पहले ही बीमार हूँ।ÓÓ
”घुट-घुटकर मरेगी।ÓÓ
”चीलगाड़ी में बैठी?ÓÓ
”बोल मत दे भूतनी। मैं भी बीमार हूँ। आगरे का पानी नीं लगा।ÓÓ
”मुझे अकेली छोड़कर $खसम संग मौज करने गई थी। भुगतेगी-भुगत…।ÓÓ
”तू तो बिल्ली है दारी, पिछले जन्म की…।ÓÓ
”दूर से शेरनी बनती है छछूँदर! असल बाप की बेटी है तो गाँव में आकर लड़…।ÓÓ बड़की ने फिर ललकारा, ”बणती है $फौजी की लुगाई।ÓÓ
”दो दिन बाद आ रही हूँ दारी…। तेरी चुटिया पकड़ फिरा-फिरा के नीं फेंका तो असल बाप की बेटी मत कहियो।ÓÓ छुटकी ने फोन पर ताल ठोंकी।
$फौजी उजबक की तरह बस सुने जा रहा था। उसकी बौद्धिक पहुँच से दूर छुटकी उसे पहले सी नज़र आ रही थी। बड़की ने छुटकी के दो दिन बाद आने की बात सुनकर अपने मोबाइल का स्विच तुरंत ऑफ कर दिया।
उस रात उसने एक बालिश्त रोटियाँ डकारी। थाली भरकर दूध और रबड़ी गटकी। दूसरे दिन दवाइयों की पोटली उठाकर बाहर घूरे पर फेंक आई। बोली, ”कल रात जैसी नींद मुझे पिछले बारह-पंद्रह दिनों में कभी नहीं आई।ÓÓ
-चरण सिंह पथिक-
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