तुमको! हर बार गढूँगी, खुद में..
जानती हूँ !
कि, दफ़न कर दिए जाएंगे
मेरी चाहतों के रोमानी सि-ल-सि-ले
इतिहास के पन्नों में, एक दिन
और बुझा दी जाएंगी कोमल स्मृतियाँ प्रेम की
और बुझा दी जाएंगी कोमल स्मृतियाँ प्रेम की
मन की अ-ठ-खे-लि-याँ सतरंगी
जिन्हें कभी लिखा था, मैंने
तुम्हारी गुलाबी-.नरम बाहों में
मिटटी के खुरदरे बिछोने पर
सुला दीं जायेंगी, सदा के लिए
लेकिन, करवटें बदलता ये मौसम
लिखेगा उनका भी गुनाह, जिन्होंने
लिखेगा उनका भी गुनाह, जिन्होंने
धरम-जात और बिरादरी के गणित में उलझा कर
मेरी मासूम हसरतों को रौंदा, कुचला … मार डाला
मेरी मासूम हसरतों को रौंदा, कुचला … मार डाला
और जीवित गाड़ दिया रसम – ओ – रिवाज़ के ताबूत में
किंतु, सुनो ! प्रियतम
वक्त की इन सरहदों से पार
इतिहास की इन बेढंगी लकीरों के परे
घुन चुके इन रिवाजों की सलाखों को तोड़ कर
मैं तुमको जिऊँगी .. हर बार
और गढूँगी तुमको हर बार, खुद में..
और गढूँगी तुमको हर बार, खुद में..
चंद्रकांता