दो टुकड़ा चाँद sPlit mOOn










मैं भीख हूँ 
धूल से लबरेज़ 
खुरदरे हाथ-पाँव 
सूखे मटियाले होंठ, निस्तेज 
अपनी निर्ल्लज ख-ट-म-ली देह को 
जिंदगी की कटी-फटी-छंटी 
चादर में छिपाती हूँ
 
मैं भीख हूँ
अपनी बे-कौड़ी किस्मत
खाली कटोरे में आजमाती हूँ 
कूड़े करकट के रैन-बसेरों में 
मैली-कुचली कतरनों को 
गर्द पसीनें में सुखाती 
ओढती और बिछाती हूँ 


मैं भीख हूँ
आम आदमी की दुत्कार 
पाती हूँ घृणा-तिरस्कार 
फांकों में मिलता है बचपन 
और चिथड़ों में लिपटा आलिंगन 
मैं नहीं जानती सभ्यता के 
आचार-व्यापार, व्याभिचार 


मैं भीख हूँ
ढीठ, फिर मुस्कराते हुए  
बांधकर कोई अदृश्य शक्ति पाँव में 
निकल पड़ती हूँ  हर रोज 
भीड़ भरी सड़क पर अकेली, मांगने  
मेरे हिस्से के ‘दो टुकड़े चाँद के’ .. 


  –   चंद्रकांता –