पत्रिका के संपादक डॉ. प्रेम जनमेजय उन्हें ‘व्यंग्य मार्ग का अति सावधान संकोची यात्री’ कहकर संबोधित करते हैं तो रमेश तिवारी जी ‘एक मौन साधक’ कहकर। डॉ. जनमेजय के लेख में, रमेश जी को उनके बहुप्रतीक्षित व्यंग्य उपन्यास बक्से में कुछ है’ की कछुआ गति के लिए अधिकारपूर्वक डाँट लगाने का प्रसंग उनकी पीढ़ी की प्रतिबद्धताओं और सरोकारों को बताता है। ऐसा ही एक प्रसंग पहले भी आया है जब हिमाचल अकादमी के ‘साहित्य कला संवाद’ कार्यक्रम में पुस्तक संस्कृति पर चर्चा करते हुए डॉ. दिविक रमेश ने यह बताया की वे कार्यक्रम में तनिक देरी से इसलिए उपस्थित हुए क्योंकि प्रेम जनमेजय की किताब पढ़ रहे थे। ऐसे साहित्यिक संस्कारों पर किसी भी पीढ़ी को गर्व करना चाहिए।
रमेश सैनी जी के विभागीय मित्र रहे बी. एस. स्वर्णकार ने उन्हें स्मरण करते हुए आत्मीय लेख लिखा है। जयप्रकाश पांडेय जी के लेख से व्यंग्ययात्रा के संवर्द्धन में रमेश जी के रचनात्मक सहयोग व सक्रियता की जानकारी मिलना सुखद लगा। जयप्रकाश जी के लेख के मध्यांतर से वाक्य संरचना कुछ बिगड़ सी गई जो अंत तक जारी रही। कुछ एक शब्द भी गुमशुदा हैं। इससे लेख का प्रवाह बाधित होता रहा।
Dr. Ramesh Saini
व्यंग्यकार रमेश निशिकर,महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा शुरू की गई ‘व्यंग्यम’ पत्रिका को चार दशक पश्चात मिले पुनर्जीवन में रमेश सैनी जी की सक्रिय भूमिका उनके संकल्पवान और दृढ़ निश्चयी व्यक्तित्व का परिचय देती है।
रमेश तिवारी जी ने रमेश सैनी जी पर ‘एक मौन साधक’ शीर्षक से बढ़िया और सुरुचिपूर्ण आलेख लिखा है। उन्होंने रमेश जी की हास्य-व्यंग्य की गुम्फित शैली, आत्मव्यंग्य की प्रवृत्ति, संवाद संरचना, प्रसंगानुकूल भाषिक विन्यास आदि पर सोदाहरण चर्चा की है। जिस तरह उन्होंने रमेश जी की व्यंग्य रचना ‘क्रेडिट कार्ड’ को संदर्भित किया है आप उसे पढ़ने का मोह नहीं त्याग सकेंगे। रमेश तिवारी जी बताते हैं की सैनी जी स्वयं को भी व्यंग्य का विषय बनाने से पीछे नहीं हटते। दरअसल आत्मव्यंग्य को व्यंग्यकारों की कसौटी समझा जाना चाहिए। सच्चा व्यंग्यकर्मी वही है जिसमें स्वयं से भिड़ंत और उपहास का भी शऊर हो। पिछली मर्तबा यह प्रवृत्ति हमने बुलाकी जी के व्यंग्य संग्रह ‘5वां कबीर’ में देखी थी। यह आलेख पढ़ते हुए कभी-कभी इसके सैनी जी की किसी पुस्तक की भूमिका(नुमा) होने का अहसास होने लगता है। यहाँ हमें एक नया शब्द भी सीखने को मिला-धत्कर्मों (सम्भवतः सत्कर्मों का विपर्यय)।
व्यंग्ययात्रा में ‘हॉर्स ट्रेडिंग प्रायवेट लिमिटेड’ और ‘छूमंतर, काली कंतर’ शीर्षक से रमेश सैनी जी की दो रचनाएं और ‘अभी काफी कुछ शेष है’ नाम से उनका लिखा एक लेख भी है; जिसमें उन्होंने अपनी रचनात्मक यात्रा और व्यंग्य सरोकारों को लेकर मन की बात जाहिर की है। रमेश तिवारी,अरुण अर्नब खरे और जयप्रकाश पांडेय जी ने रमेश जी का साक्षात्कार लिया है। प्रश्न विविधतापूर्ण हैं और बेहद सधे हुए हैं जिसके लिए साक्षातकर्ता तिकड़ी बधाई की पात्र है । रमेश जी की रचना प्रक्रिया और जीवन अनुभवों को जानने के लिए इसे अवश्य ही पढ़ा जाना चाहिए। इसमें उनके व्यक्तित्व से जुड़ी कई खास बातें पढ़ने को मिली। एक प्रतिउत्तर में रमेश जी यह खुलासा करते हैं की ‘मेरी प्रवृत्ति आवेश की है। मुझे अन्याय बर्दाश्त नहीं होता।’ वे आगे बताते हैं की कोरोना व लॉक डाउन के समय विचलित कर देने वाली स्थितियों और अवसाद से बचने के लिए उन्होंने परसाई और रविंद्र नाथ त्यागी की रचनाओं का पुनर्पाठ किया। Harishankar Parsai
आप सहज अनुमान लगा सकते हैं कि साहित्य किस तरह अवसाद रोधक की भूमिका भी निभाता है। लॉकडाउन में पुस्तकों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।लॉकडाउन ने फिर से व्यक्ति की सबसे सच्ची मित्र कही जाने वाली पुस्तकों से पुन: जुड़ने का समय दिया । पुस्तकों ने ऐसे समय में न केवल अकेलेपन को कम किया बल्कि मानसिक खुराक का कार्य भी किया ।
व्यंग्य में उपजी अराजकता की स्थिति का समाधान डॉ. सैनी ‘पाठकों की सत्ता’ में देखते हैं। उनका स्पष्ट मानना है की व्यंग्यकार को मानवीय और सामाजिक सरोकार को केंद्र में रखकर लिंखना चाहिए। व्यंग्य के समक्ष वर्तमान चुनौती पर बात करते हुए वे कहते हैं की आज के व्यंग्यकार व्यंग्य के सत्व को नहीं पकड़ पा रहे हैं जिसे परसाई की पीढ़ी ने पकड़ा था। व्यंग्य मूल्यों के संकट से जूझ रहा है।
लिखने को बहुत कुछ है। बाकी जानने के लिए आपको व्यंग्ययात्रा को खँगालना होगा। डॉ. रमेश सैनी पर ज्ञानवर्द्धक अंक के लिए व्यंग्ययात्रा के संपादक निश्चय ही साधुवाद के पात्र हैं।
इस अंक के रेखांकन सुन्दर हैं । रेखांकन मनोभावों के मानचित्र हैं। रेखांकन स्वयं में एक सम्पूर्ण कविता, कहानी, निबंध , व्यंग्य या संस्मरण है। कलम, कूची और स्याही से मनोभावों, स्मृतियों या अवचेतन मन को कोरे पृष्ठों पर बड़ी ही सुघड़ता से बिखेर देना हमें हमेशा से आकर्षित करता रहा है।
संदीप राशिनकर इतने अर्थपूर्ण चित्रों के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं। रेखांकन चित्र की छपाई और अधिक स्पष्ट होती तो सोने पर सुहागा होता। प्रेम जनमेजय जी का व्यंग्य यात्रा का संकल्प अद्भुत है। मात्र बीस रुपये में, लगभग डेढ़ सौ पृष्ठ की पत्रिका जो साहित्यिक मनीषा के प्रबुद्ध लेखों से लाबलब भी हो, उसे अबाध निकाल सकना प्रेम जी सरीखी जिजीविषा से ही संभव हो सकता है। बाकी पक्षों की बात करें तो अनुक्रम तालिका में इस दफ़ा बहुत सारा व्यंग्य गद्य सजा हुआ है। पाथेय में हजारी प्रसाद द्विवेदी, नूतन पांडेय,सूर्यकांत व्यास,धर्मवीर भारती, निराला और दिनकर सोनवलकर की अभिव्यक्तियाँ हैं।
व्यंग्ययात्रा पिछले डेढ़ दशक से व्यंग्य विमर्श की उर्वर जमीन तैयार करने में महती भूमिका निभा रही है। व्यंग्य इतर साहित्यकारों का सहयोग भी व्यंग्ययात्रा को समृद्ध करता रहा है। इस संग्रहणीय अंक की प्राप्ति के लिए आप प्रेम जनमेजय जी से संपर्क कर सकते हैं। premjanmejai@gmail.com
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