गुब्बारे वाली
चपला की भांति कौंधती
उस पथिका की आँखों पर
मेरी आँखें टिक गयीं
जो भादों की उमस भरी दुपहरी में
मोतीबाग फ़्लाईओवर के नीचे
एयरपोर्ट की तरफ जाने वाली सड़क पर
अपने सहोदर का हाथ पकड़
ट्रैफिक से बेफिक्र, गुब्बारे बेच रही थी
सहोदर , जिसकी नाक लिसढ़ रही थी …
लाल बत्ती के रुकते ही वह स्टार्ट हो गयी
और हमारी चौपहिया गाड़ी के शीशे पर
अपना माथा सटाकर बोली – ‘ले लो !’
मैंने इशारा किया -‘दो पिंक वाले ‘
उसने झटपट गुब्बारे निकाले
और मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली -‘ आंटी बत्ती छूट रही है ! ‘
सोचिए ! जिस लाल बत्ती पर
एक मिनट भी काटना मुश्किल होता है
कुछ लोगों का पूरा जीवन उसी पर भागते-दौड़ते
ट्रैफिक की तरह गुजर जाता है …
मैंने देखा, उसके दरदरे चेहरे पर
दो खूबसूरत आँखें सुस्ता रहीं थी
जिन्हें देखकर लगता था
मेपल की सुर्ख लाल पत्तियों ने
उसकी आइरिस से ही वह रंग सोखा होगा
हफ्तों के गंदे उसके बाल
एक लाल और दूसरे हरे रिब्बन में खोंसे हुए
और उसके हाथों की वो मैल भरी पपड़ियां
जो छूटने की तैयारी कर रही थीं
जैसे गुब्बारे छूट जाना चाहते हैं मुक्ताकाश में …
हरी बत्ती होते ही वह लड़की
कहीं पीछे छूट गई
लेकिन वह छूटना तो कोई भ्रम था
उसकी आँखों में तैरता वह बरगंडी रंग मेरी आँखों में जम चुका था ।
चंद्रकांता