बलात्कार का हर एक केस ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ ही है।

बलात्कार साफ तौर पर बर्बरतापूर्ण की गई यौन हिंसा ही है। इस बर्बरता की डिग्री नापना एक अजीब सी बात है। निराश मन से लिखना पड़ रहा है कि कोर्ट का निर्णय जो भी हो ‘रेप की मानसिकता’ नहीं बदलने वाली। कारण, हम एक ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहां औरतों पर बल प्रयोग करना एक परंपरा है, जो छेड़खानी और मैरिटल रेप को लेकर बेहद सहज है, जहां 2 माह की नवजात बच्ची से लेकर सत्तर साल की बूढ़ी , गर्भवती व मृत महिलाओं का बलात्कार एक सोची समझी राजनीति के तहत किया जाता है , जहां महिलाओं के स्तन निचोड़कर उनके नक्सली होने की पुष्टि की जाती है, जहां धर्म यौनदासी (देवदासी) की इजाज़त देता है और जहां गर्भवती महिलाओं का पेट त्रिशूल से फाड़कर उनका गर्भ निकाल लिया जाता है।
यह एक उन्मांदी समाज की तस्वीर है ।जहां एक औसत नागरिक औरतों के प्रति ऐसे व्यवहार को लेकर सहज है। यहां बात केवल यौन तुष्टि की नहीं है उस सीख की है जो हर कदम पर परिवार समाज और धरम पुरुष को देता है कि ‘औरत तुम्हारे अधिकार की वस्तु है’ ;किसी देश को जीतना हो तो उसकी औरतों को जीत लो और किसी समाज को शर्मिंदा करना हो तो उसकी औरतों को नंगा कर दो।यह किसी व्यक्ति की नहीं व्यवस्था की सामूहिक सोच है जिसे कानून का भय दिखाकर बदल पाना मुश्किल होगा।
क्या यह हमारी परवरिश और समाज की मानसिकता का खोट नहीं है जहां महिलाओं को इंसान के रूप में कम ^इस्तेमाल की सामूहिक वस्तु^ के रूप में अधिक समझा जाता है।असंवेदनशीलता की हद देखिए जो भीड़ हर गली नुक्कड़ पर फ़क्र से औरतों की छातियाँ नापती फिरती है उसे ट्रेन में बच्चे को दूध पिलाती महिला अश्लील दिखाई पड़ती है और उसे एकजुट होकर ट्रेन से नीचे उतार दिया जाता है, लेकिन यही लोग अपने सामने की जा रही छेड़खानी का विरोध एकजुट होकर नहीं करते ।क्योंकि बच्चे को खुले में स्तनपान कराना समाज की सोच को असहज कर देता है, चुनौती देता है; लेकिन औरतों को छेड़ना ओर उन्हें छिड़ते हुए देखना समाज के लिए एक सहज बात है।
छेड़खानी को लेकर हमारी यह सहजता एक भयावह स्थिति है। प्रशासन को छेड़खानी पर भी बेहद सख्त होना चाहिए।क्योंकि छेड़खानी खुले तौर पर बलात्कारी होने का पहला कदम है।
—————