दामिनी , काश ! उसी दिन मैंने उसकी आँखें नोच ली होती जब पुरुष की तरह दिखने वाली उस काली ब-ह-रू-पि-या आकृति ने मुझे छुआ…
हे! पीताम्बर अब तुम चमत्कृत नहीं करते अनावृत हो चली है तुम्हारे अधरों पर खेलती वह कुटिल मुस्कान तुम्हारे मस्तक…
कलाकृति..आज कुछ टूटे-फूटे, विस्मृत कंकड़-पत्थर साफ़ किये जो मुंडेर पर बिखरे पड़े थे बेफिक्र, बेतरतीब से अनमने यहाँ-वहाँ.. मैंनें, निर्भीक चुन लिया सभ्यता के अधि-शेष सूत्रों इतिहास…
मैं भीख हूँ धूल से लबरेज़ खुरदरे हाथ-पाँव सूखे मटियाले होंठ, निस्तेज अपनी निर्ल्लज ख-ट-म-ली देह को जिंदगी की कटी-फटी-छंटी …
कुछ भूल गए हैं हम..चिट्ठी लिखना .. बातें खट्टी हों कड़वी या बताशा चिठ्ठी, मिटटी सी लगती थी आँखें…
प्रकृति की संपूर्ण रचनात्मकता जिस एक अनंत भाव में सिमट आती हों ब्रह्माण्ड का समस्त सौंदर्य और मन की सभी अभिलाषाएं जिस एक प्रेरणा से…
कभी-कभी आपको भी नहीं लगता कि हम केवल वह नोट बनकर रह गए है जिसे बाज़ार अक्सर अपनी सुविधा के…
जानती हूँ ! कि, दफ़न कर दिए जाएंगे मेरी चाहतों के रोमानी सि-ल-सि-ले इतिहास के पन्नों में, एक दिन और…
कितने धागों में ..जो ये जान पाती तो बाँध लेती तुम्हे ..जाने नहीं देतीतुम कहते हो की मन का कोई ओर…
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