झमाकड़ा लोकनृत्य को कौन नहीं जानता ? सब जानते हैं । सैंतालीस वर्ष पहले डा. व्यथित के प्रयासों से राजकीय कन्या माध्यमिक पाठशाला नेरटी के प्रांगण से शुरु हुआ यह लोकनृत्य उसी वर्ष शिमला के गेयटी थियेटर में प्रदर्शित हुआ और उसके बाद कांगड़ा लोकसाहित्य परिषद के सांस्कृतिक दल द्वारा देश के विभिन्न मंचों पर प्रदर्शित किया गया ।
कालान्तर राजकीय महाविद्यालय धर्मशाला की छात्रायें और परिषद के लोकवादक इसके प्रदर्शन के लिए जर्मनी और इंग्लैंड भी गये , जहाँ पर मीडिया में इस लोकनृत्य की खूब चर्चा हुई और इसकी कहानी ,गीत देश-विदेश में सुर्खियां बने । इन दिनों विभिन्न सांस्कृतिक दल इसकी प्रस्तुति कर रहे.हैं , खूब नाचा, गाया जा रहा है झमाकड़ा , पर समय के साथ कुछ बदलाव भी आ गये हैं इसमें । बदलते समय के साथ बदलाव आना संभव है लेकिन हां बदलाव के साथ- साथ हमें यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि बदलाव में कहीं मूल नष्ट न हो जाये । Culture of Himachal Pradesh
आज मैं यह आर्टिकल इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि पिछले दिनों मुझे दो तीन जगह झमाकड़ा देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ , नृत्य देखते ही मैं पुरानी यादों में डूब गया , और याद आया कि इस नृत्य से वो गाना तो गायब ही.हो गया जो इसका मूल आधार है , जो इस नृत्य के पीछे छिपी कहानी को कहता है बयां करता है, गाता है । किस समय नाचा जाता है झमाकड़ा –शादी के वक्त जिस समय तेलसांद, शांति हवन के बाद जब परसाही के लिए लड़के या लड़की को स्नान करवाकर ,आंगन में चौकी रखकर बिठाया जाता है तो उस समय एक लोकरीति का निर्बाहन मां द्वारा किया जाता है जिसमें वह माटी की बनी मल्ली में अंगारे रखकर उसमें सफेद सरसों डालती है और उसके धुयें से लड़के या लड़की को अपराशक्तियों, भूत प्रेतों से बचाने का उपक्रम करती है और उसी समय कुल की गोत्रणें पत्ते के डूने लेकर तोरणद्वार पर जाती हैं.
कालान्तर राजकीय महाविद्यालय धर्मशाला की छात्रायें और परिषद के लोकवादक इसके प्रदर्शन के लिए जर्मनी और इंग्लैंड भी गये , जहाँ पर मीडिया में इस लोकनृत्य की खूब चर्चा हुई और इसकी कहानी ,गीत देश-विदेश में सुर्खियां बने । इन दिनों विभिन्न सांस्कृतिक दल इसकी प्रस्तुति कर रहे.हैं
तस्वीर साभार गूगल
जहाँ मामा औल़ी में पानी लेकर खड़ा होता है , उस औल़ी वो पानी होता है जिसे मामे द्वारा तड़के भरा गया होता है , गोत्रने उस पानी को डूने में भरकर लाती हैं और उसे लड़के या लड़की के पैरों में उंडेलती हैं उसी समय दादकिये पक्ष की औरतें आटे का एक मानवनुमा छोटा सा बुत बनाकर उसे नानकियों पक्ष की औरतों को दिखाती, चिढ़ाती गाना शुरू करती हैं – नानू गोरे आया वो ,झमाकड़ेया- झमाकड़ेया नंगा नाल़ा आया वो ,झमाकड़ेया – झमाकड़ेया इन्हां धीयां जो शरम नीं आई वो झमाकड़ेया – झमाकड़ेया आगे नाम लेकर गाया जाता है –दिख वो दुर्गेशा नानू तेरा आयाधरती जो मूछां , आसमाने जो दाढ़ीरेही जांदियां मूछां , ता उडी जांदी दाढ़ी नानू गोहरे आया वो झमाकड़ेया -झमाकड़ेया.
नानकिये पक्ष की महिलाएं यह सब सुनकर मैदान में आ जाती हैं , आटे के बने नानू को छीनने का प्रयास करती हैं और शुरु होता है झमाकड़ा –झमाकड़ा वे , झमाकड़ा बोल्दा नचणे जो , नचाणे जो लेई जाणे जो ., नीं बसने जो —–झमाकड़ा वे —-खूब नृत्य होता है । नानकियों, दादकियों ,पक्ष की औरतें अपने अपने गीत, अपना अपना नृत्य दिखाती हैं , नानू के लिये छीना झपटी भी चली रहती है, अंत में जिस पक्ष का पलड़ा भारी रहता है, जिसके हाथ आटे का बुतड़ू जाता है , वो गाता है -जित्तेया, जित्तेया वेनानकियां दा दुध जित्तेया वेहरी गईयां गवारां दीयां,जित्ति गईया़ सरदारां दीयां ।
आजकल मंचों पर जब झमाकड़ा नाचा जाता है तो इससे यह नानू वाला प्रसंग गायब दिखता है जो कि सही नहीं है क्योंकि इस गीत के न रहने से दैत्य की वो कहानी, वो मिथक गायब हो जाता है ,जिससे चलते झमाकड़ा लोकनृत्य अस्तित्व में आया ।
तस्वीर साभार गूगल
जैसा कि मैंने पहले लिखा कि आजकल मंचों पर जब झमाकड़ा नाचा जाता है तो इससे यह नानू वाला प्रसंग गायब दिखता है जो कि सही नहीं है क्योंकि इस गीत के न रहने से दैत्य की वो कहानी, वो मिथक गायब हो जाता है ,जिससे चलते झमाकड़ा लोकनृत्य अस्तित्व में आया । क्या कहानी है दैत्य की ? इस मिथक के संबंध में बाणेश्वरी पत्रिका के लोकनृत्य विशेषांक में डा. व्यथित यूं लिखते हैं ..किसी समय एक राज्य में एक विशाल दैत्य का बोलबाला हो गया । खूब तबाही मचाई उसने । अपनी भूख मिटाने के लिए वो जरूरत से ज्यादा नरसंहार करने लगा तो लोगों ने उससे बचने के लिए दूसरा कोई चारा न पाकर उससे गुहार की –हम तुम्हारी भूख शांत करने के लिए रोज एक व्यक्ति तुम्हारी मांद में भेज दिया करेंगे , तुम प्लीज़ गांव में आकर लोगों को मत मारा करो । कहते हैं दैत्य राजी हो गया , गांव वालों में रजामंदी हो गई और शर्त के अनुसार रोज एक घर से एक व्यक्ति उसका भोजन बनने लगा ।
इसी क्रम में एक दिन एक ऐसे घर की बारी आई , जिसमें केवल एक मां और बेटा ही थे । बेटा बोले मां जाऊंगा। मां बोले मैं जाऊंगी , अंत में फैसला हुआ कि दोनों जायेंगे । मां ने चलने से पहले खूब सारे नमकीन, मीठे पकवान बनाये और उन्हें टोकरी में सजाकर जंगल की ओर चल दी । फिर क्या हुआ ? होना क्या था । मां बुद्धिमान थी । उसने सारे पकवान उस जगह रख दिये जहां दैत्य को आना था और खुद बेटे के साथ झाड़ियों में छिप गई । दैत्य आया । पकवानों की सुगंध में इतना मस्त हुआ कि नर मांस भूलकर उन पकवानों को खाने लगा । जब वो पूरी तरह तृप्त हो गया तो बोला – जो भी यह स्वादिष्ट भोजन लाया है , वो सामने आये ।
ऐसा सुनते ही मां बेटे के साथ उसके सामने प्रकट हो गई । दैत्य बोला – “मैं तुम्हारे इस भोजन से तृप्त हो गया हूं । मुझे बहुत आनंद आया । मैं खुश हूं । मांगो क्या मांगना चाहती हो “। मां ने कुछ भी मांगने से पहले देने का वचन मांगा । दैत्य ने वचन दे दिया तो मां ने उससे नरसंहार छोड़ने का वचन मांगा जिसे दैत्य ने मान लिया लेकिन अपनी ओर से मां को बेटी मान एक शर्त रखी । दैत्य ने शर्त रखी ? हां उसने शर्त रखी कि जब भी विवाह जैसा शुभकार्य हो तो मुझे भी नियुंदरा जाये ,याद किया जाये ।
यह फोटू कांगड़ा लोकसहित्य परिषद के सांस्कृतिक दल की है जिसमें परिषद निदेशक डा. व्यथित सहित सभी कलाकार शिमला में राजभवन में राज्यपाल महोदय के साथ खड़े हैं । गले में ढोलकी लटकाये मैं भी हूं ।
कहते हैं उसी वचनवद्धता को को निभाते एक लोकरीति के रूप में आटे का नानू बनाकर, दैत्य को नियुंदरा जाता है, नानू विनायक नृत्य किया जाता है जो परंपरा के रूप में आज भी झमाकड़ा लोकनृत्य के रूप में लोकप्रचलित है , नाचा जा रहा है, नाचा जाता रहेगा ।
दुर्गेश नंदन – कांगड़ा लोक साहित्य परिषद
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