क्या ऐसी महिलाएँ जो कुशल और सफल मेनेजमेंट की उदाहरण है को राजनीति में आकर देश की तरक्की का हिस्सा बनना चाहिए ?

नारी, तुम केवल श्रद्धा हो !
नारी तेरी यही कहानी आंचल में दूध आंखों में पानी ! !
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ; ये सब ताड़न के अधिकारी ! ! !

यह साहित्य की कुछ बेहद प्रशंसनीय पंक्तियाँ मात्र नहीं है, यह किसी भारतीय महिला का सर्वसम्मत आदर्श चरित्र है जिसे हमारे समाज और साहित्य नें स्थापित किया है. स्त्री को इस प्रकार एक ख़ास तरह के फ्रेम में गढ़ा जाना अचंभित करता है. अपने स्वभाविक गुणों के कारण नारी श्रद्धा तो है लेकिन वह केवल श्रद्धा ही नहीं है; बुद्धि, विवेक, प्रबंधन, नेतृत्व और निर्णयन का गुण भी उसके भीतर है. चूंकि आज भी हमारे समाज और सांस्कृतिक आचार-व्यवहार का बहुल भाग पितृसत्तात्मकता के ताने-बाने के अनुकूल बुना हुआ है जो एक निश्चित दायरे के बाहर महिलाओं की भूमिका को अस्वीकार करता है. इसलिए महिलाओं के अन्य गुणों को मुक्त कंठ से स्वीकारने में मितव्ययता ही बरती जाती है. 
            हमारी सामाजिक संरचना में लिंग भूमिकाओं का एक स्पष्ट विभाजन है जहाँ सुरक्षा और अर्थ का दायित्व पुरुषों को सौंपा गया है वहीं महिलाओं की भूमिका परिवार और रसोई के घेरे तक सीमित मानी गयी है. राजनीति का क्षेत्र भी कमोबेश ऐसा ही है जहां महिलाओं की प्रभावपूर्ण स्वीकार्यता आज 21 वी शताब्दी में भी एक टैबू बनी हुई है.
             राजनीति एक ऐसा फ्रेमवर्क है जिसके तहत नागरिक समुदायों को शासित करने के लिए ‘पब्लिक पालिसी’ का निर्माण किया जाता है. सरल अर्थों में यह आचार–व्यवहार, अवसर और निर्णयन में भागीदारी की एक ऐसी व्यवस्था है जो कुछ निश्चित प्रक्रियाओं के माध्यम से एक राजनितिक क्षेत्र अथवा जनसँख्या के किसी समूह के हितों के सम्बन्ध में निर्णय लेती है. राजनीति का वर्तमान विमर्श ‘लोकतंत्र’ और ‘जनता व राज्य के बीच बाधारहित संवाद’ पर केन्द्रित है और महिलायें अपने मूल स्वभाव तथा अपने प्रोफेशनल गुणों की वजह से इस संवाद की एक महत्वपूर्ण कड़ी साबित हो सकती हैं. चूंकि, कुशल प्रशासन या प्रबंधन से जुडी महिलायें अनुभव की पाठशाला के अतिरिक्त एक ‘पब्लिक फेस’ भी हैं इसलिए आम जनता के लिए इनका नेतृत्व स्वयं में एक मार्गदर्शक हो सकता है.
           

भारतीय राजनीति के वर्तमान आंकड़े महिलाओं की भागीदारी के सम्बन्ध में कोई सुविधाजनक तस्वीर पेश नहीं करते. महिलाओं की उपस्थिति लोकसभा में लगभग 11 % और राज्य सभा में लगभग 10.7 % है और निर्णायक पदों में उनका हस्तक्षेप नहीं के बराबर है. एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था अंतर-संसदीय संघ( इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन ) नें महिला प्रतिनिधित्व में भारत को 105 वां स्थान दिया है जबकि इसी सर्वे में हमारे पड़ोसी राष्ट्र चीन को 60 वां और बांग्लादेश को 65 वां स्थान मिला है. ऐसे में आप सहज अनुमान लगा सकते हैं की राजनीति में जमीनी स्थितियां महिलाओं के कितने अननूकूल हैं.

                हमें यह भी मालूम होना चाहिए की महिलायें और ऐसे अन्य वंचित वर्ग जिनकी राजनीति, प्रशासन एवं सत्ता में आनुपातिक भागीदारी किन्ही ऐतिहासिक या सामाजिक कारणों से संभव नहीं हो पायी थी उन्हें राजनीति की मुख्यधारा में समायोजित करने के लिए भारतीय संविधान में विशेष प्रावधान किये गए हैं. और स्व-शासन की स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है वहां उन्हें 50% तक आरक्षण दिया गया है. इस बात के लिए महिलाओं की पीठ ठोकी जानी चाहिए की उन्हें उपलब्ध विकल्पों के सीमित होने के बावजूद उन्होंने स्थानीय निकायों और पंचायत में मिलने वाली जमीनी चुनौतियों को सुनहरे अवसरों में बदला है.

राष्ट्रीय राजनीति में आखिर समस्या कहाँ है ? क्या महिलाएं राजनीति के लिए पर्याप्त योग्यता नहीं रखतीं ? या कोई और छिपा हुआ कारण है जिसने महिलाओं के लिए राजनीति में संभावनाओं को कमजोर किया हुआ है ? आप पायेंगे की हमारी सभी राजनीतिक पार्टियाँ ‘मेल क्लब’ बनी हुई हैं ऐसे में वहां महिलाओं के लिए बेहद सीमित स्पेस है. उस पर स्वतंत्र और प्रगतिशील सोच रखने वाली महिलायें इनके लिए ‘ एक सहयोगी से कहीं अधिक उनकी सत्ता के लिए एक चुनौती हैं ’. इसलिए ये ‘मेल क्लब’ नहीं चाहते की महिलायें राजनीति में आयें, फिर धन-बल की राजनीति नें महिलाओं का राजनीति से एक अंतराल बना रखा हैं. राजनीति को लेकर एक आम धारणा बनी हुई है की ‘राजनीति गन्दी होती है’ और यह क्षेत्र महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं है.      
                

किरण बेदी (प्रथम महिला IPS), चंदा कोचर (सी.ई.ओ, ICICI), विनीता बाली (एम्. डी, BRITANNIA), किरण मजूमदार शॉ (एम्. डी,  BIOCON), इला भट्ट (संस्थापिका, SEWA), चित्रा रामकृष्णा (पहली महिला सी..ओ, NSE), निशि वासुदेवा (एम्. डी, HPCL) आदि महिलाओं के अनगिनत उदाहरण हैं जिन्होंने अपनी क्षमता का लोहा मनवाया है तथा भारतीय स्त्री की पारंपरिक और ठस छवि को तोडा है. इन सभी का मानना है की ‘ग्लास सीलिंग’ की प्रचलित मान्यता जिसके तहत यह समझ जाता है की महिलाओं का क्षेत्र सीमित है और कुछ चुनौतीपूर्ण और जोखिम से भरे कार्य-क्षेत्र महिलाओं के लिए नहीं हैं, एक मिथक से अधिक कुछ नहीं है. विकल्पहीन राजनीतिक परिदृश्य में और गुणवत्तापरक नेतृत्व के अभाव में इन महिलाओं का राजनीति के क्षेत्र में आना देश और समाज के विकास के लिए संजीवनी हो सकता है. अभी कुछ समय पहले किरण बेदी नें भी कहा था की ‘महिलाओं को भी पुरुषों की तरह राजनीति में समान अवसर मिलने चाहिए’. इससे शान्ति, प्रगति और समृद्धि के अवसर अधिक होंगे.


प्रश्न यह उठता है की ऐसी महिलाओं को जो एक कुशल और सफल मेनेजमेंट का उदाहरण रही हैं , क्या राजनीति में आना चाहिए ? भारत एक लोकतांत्रिक राज्य है यहाँ प्रत्येक व्यक्ति को जाति, लिंग अथवा क्षेत्रीयता के भेदभाव के बिना राजनीति में भागीदारी का अधिकार है. इसलिए प्रबंधन या प्रशासन के क्षेत्र का कोई भी व्यक्ति यहाँ आने के लिए स्वतंत्र है. पुनः किसी सफल प्रबंधक का राजनीति में आना ‘इन्क्ल्यूसिव विकास’ के अतिरिक्त महिलाओं के अधिकारों और ‘राजनितिक अवसरों’ के लाभ का भी प्रश्न है. महिलायें ‘परिवर्तन की महत्वपूर्ण एजेंट है‘ चूंकि प्रबंधन क्षेत्र से जुडी महिलायें ‘पब्लिक फेस’ भी हैं और इनके पास अपने कार्यक्षेत्र का शानदार अनुभव भी है जिस वजह से वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में इनकी उपस्थिति स्वयं में परिवर्तन का पर्यायवाची होगी. पुनः इनकी पोलिटिकल मार्केटिंग, चुनाव क्षेत्र प्रबंधन, प्रभावपूर्ण नेतृत्व, डिजिटल प्रेसेंस, वर्क कल्चर, टीम वर्क, मोबीलाइजेशन, रिसोर्स व रिस्क मेनेजमेंट में विशेषज्ञता और कुशल वक्ता होने की सम्भावना अधिक रहने से महिला व बाल विकास के मुद्दों पर लाबिंग एवं ‘मीडिया प्रबंधन’ अपेक्षाकृत आसान होगा.
                अपने जिन विशेष गुणों के आधार पर इन महिलाओं नें अपनी सफलता की कहानी अपने कार्य क्षेत्र में लिखी थी उन्ही का सकारात्मक इस्तेमाल कर ये राजनीति में भी एक स्फूर्त और नवाचार का माहौल तैयार कर सकने में मददगार होगी और ‘मेनस्ट्रीम पोलिटिक्स’ में अपना स्वतंत्र स्थान बना पाना इनके लिए अपेक्षाकृत सहज होगा. यदि ऐसी महिलायें राजनीति में प्रभावशाली स्थिति में आती हैं तब समाज के इस माइंड सेट को तोड़ने में भी मदद मिलेगी की महिलायें ‘डिसीजन मेकिंग’ में कमजोर होती हैं और वे देश की जिम्मेदारियों को नहीं संभाल सकती.
                महिलाओं की राजनीति में सक्रीय उपस्थिति एक ‘गरिमापूर्ण राजनीतिक संस्कृति’ के लिए भी अधिक उपयुक्त हैं. संसद या विधायिका में होने वाला शोर-शराबा या ठप्प करना आम जनता के पैसे का दुरुपयोग तो है ही समयबद्द कानून निर्माण की प्रक्रिया में भी बड़ी बाधा है. आमतौर पर महिला राजनीतिज्ञों में ऐसे आचार का चलन नहीं है. इसका एक परिणाम यह होगा की लिंग-भेद, अशिक्षा, कुपोषण, सैनिटेशन, वैश्यावृति, रोजगार, जेंडर फ्रेंडली तथा सेपटोजेनेरियन (एल्डरली) और चिल्ड्रन फ्रेंडली एनवायरमेंट से सम्बंधित कानूनों को अधिक विवेकपूर्ण और प्रभावी तरीके से बना सकने में सहयोग मिलेगा.
                इसके अतिरिक्त सम्प्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार और वंशवाद के कम होने की सम्भावना अधिक होगी क्यूंकि, आम तौर पर महिलाये ऐसी कु- प्रवृत्तियों की सहज संवाहक नहीं होती. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय गांवों की स्थानीय महिला प्रमुखों के नेतृत्व में रिश्वत का प्रचलन पुरुषों मुखिया के नेतृत्व की तुलना में 2.7-3.2 फीसदी कम पाया गया है. पुन; प्रबंधन के क्षेत्र से आने वाली महिलाएं (कुछ अपवादों के अतिरिक्त) वंशवाद का अच्छा उदाहरण नहीं हैं. इसका एक कारण यह भी है की राजनीतिक परिवार लोकतंत्र की स्थापना के साठ वर्ष बाद भी अपना उत्तराधिकार महिलाओं को हस्तांतरित करने में संकोच करते हैं. इसलिए ऐसी महिलाओं के राजनीति में आने से ‘राजनीतिक भागीदारी का संकट’ तो कम होगा ही एक ऐसी ‘वैकल्पिक राजनीति’ के उद्भव की संभावनाएं भी अधिक होंगी जिसका लक्ष्य सामाजिक न्याय, देश का विकास और एक अच्छा शासन देना होगा.

महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को लेकर शुरू हुई इस चर्चा का एक ख़ास बिंदु यह भी है कि क्या प्रबंधन अथवा प्रशासन के क्षेत्र की अनुभवी महिलायें राजनीति में सफल साबित होंगी ? पिछले कई सालों से प्रबंधन और नेतृत्व का सम्बन्ध इतना निकट का रहा है कि अब लोग इन्हें एक दूसरे का पर्याय मानने लगे हैं. किन्तु एक सफल प्रबंधक का गुण एक सफल राजनीतिज्ञ का संकेतक नहीं है. सफल प्रबंधन का आशय आयबढाना या परिसंपत्तियों का निर्माण करना है जबकि राजनीति का कार्य अपने मौलिक चरित्र में लोगों को जोडना होता है। एक प्रबंधक के पास अल्पकालिक परिप्रेक्ष्य होते हैं जबकि एक  नेता को दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में देखना होता है. किरण बेदी, चंदा कोचर, विनीता बाली, किरण मजूमदार, इला भट्ट … सभी अपने क्षेत्र की महारथी महिलायें है; लेकिन ये ज़रूरी नही कि जो सफलता उन्हें वहाँ मिली वही राजनीति में आने पर भी मिले. क्योंकि प्रबंधन में तकनीकी शिक्षा, अनुभव, कार्य में दक्षता और योग्यता मायने रखती है लेकिन राजनीति में सबसे ज़रूरी है अनुभव, वाकपटुता, आम आदमी की नब्ज़ पर पकड़ और अवसरों का फायदा उठाने की बारीक समझ का होना.

कुछ लोगों की चिंता यह भी है की राजनीति में कार्पोरेट क्षेत्र की महिलाओं का प्रभावशाली भूमिकाओं में आना व्यवस्था के लिए एक शुभ संकेतक नहीं होगा. क्यूंकि, महिलाओं का एक ऐसा समूह जो अपने करिअर में जीवन की उन चुनौतियों से कभी रूबरू नहीं हुआ जिनका सामना एक आम तबके के व्यक्ति को करना पड़ता है, और जिन्हें देश और समाज की वास्तविक स्थितियों का आनुभविक ज्ञान नहीं है क्या वे आम जनता की समस्याओं को समझ पायेगा ! दूसरा यह की स्थानीय स्तर पर जो महिलायें समाज को पहले से नेतृत्व दे रही थीं मीडिया और इमेज प्रबंधन तथा आधुनिक तकनीक से परिचय के अभाव में कहीं वे मुख्यधारा की राजनीति से अलग-थलग न पड़ जाएँ. 
                 यह दोनों ही चिंताएं बेहद स्वाभाविक है. किन्तु, पहली बात यह है की राजनीतिज्ञों का यह नया वर्ग अपने चरित्र में पहले से कार्यरत जन समूहों का विरोधी नहीं है; दूसरा इस दुविधा से बचने के लिए प्रशिक्षण के स्तर पर प्रभावी उपाय किये जा सकते हैं और स्थानीय नेतृत्व को मीडिया के सहयोग से इस तरह से उभारा जा सकता है जहाँ वे अपने किये गए कार्यों के आधार पर जनता में पैठ बना सकें. प्रबंधन क्षेत्र से आने वाली महिलाओं के भी स्थानीय नेतृत्व को उभारने में एक सकारात्मक भूमिका निभानी होगी. 
                  तमाम प्रस्तावों के बावजूद ‘महिला उद्यमिता’ निसंदेह देश की आर्थिक प्रगति, नवीन अवसरों के सृजन और सामाजिक संपत्ति में उनके दावे का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की इन महिलाओं को भी अक्सर अपने व्यवसाय शुरू करने और उसे बढ़ाने में लिंग-भेद आधारित बाधाओं, विवाह एवं उत्तराधिकार कानून, सामाजिक मानसिकता, औपचारिक वित्त प्रणाली सूचना एवं नेटवर्क तक सीमित पहुँच व सीमित गतिशीलता आदि का सामना करना पड़ता है. इस रूप में महिला उद्यमी/प्रबंधक राजनीति के क्षेत्र में आकर अपने अनुभवों और गुणों से समुदाय व परिवार की आर्थिक समृद्धि, महिला सशक्तीकरण एवं संपत्ति पर उनके अधिकार, निर्णयन, विशेषज्ञयता, रिस्क मेनेजमेंट तथा ‘सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों’ के सन्दर्भ में विशेष रूप से कारगर सिद्ध हो सकती हैं. 

                 वस्तुत; राजनीति का क्षेत्र महिलाओं के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण जरूर है लेकिन हमें इस रेडीमेड सोच से बाहर आना होगा की ‘राजनीति का क्षेत्र गन्दा है’ और इसलिए महिलायें इस क्षेत्र के लिए मिसफिट है. यह सोच ‘राजनीति में महिलाओं को नहीं आने देने की सोच’ का एक हिस्सा भी हो सकता है क्यूंकि यदि महिलाए राजनीति में आ गयी तब आधी आबादी के साथ निर्णायक भूमिकाओं को साझा करना पड़ेगा जो सत्तासीन लोगों को मंजूर नहीं होगा. वर्तमान सामाजिक संरचना को महिलाओं और सर्वजन विकास के अनुकूल बनाने के लिए परिवर्तन का होना बेहद आवश्यक है. राजनीति शक्ति-सत्ता और धन-बल का गठजोड़ मात्र नहीं है बल्कि परिवर्तन का सबसे कारगार स्रोत है, यह एक ‘सोशल इन्वेस्टमेंट’ है.

अंत में, हमें यह स्वीकारने में किसी भी प्रकार का सामाजिक-सांस्कृतिक भय महसूस नहीं होनी चाहिए की ‘महिलायें परिवर्तन की महत्वपूर्ण एजेंट हैं’. राजनीतिक भागीदारी का प्रश्न अवसरों के साथ-साथ महिला की आईडेंटिटी, जेंडर जस्टिस और नागरिकता के उनके सामान दावों से भी जुडा है और इसे इसी रूप में देखा-समझा भी जाना चाहिए. प्रबंधन या किसी भी क्षेत्र की महिलाओं का राजनीति में आना एक क्रान्ति सरीखा होगा जहां से वे स्वयं की जीवन परिस्थितियों, महिलाओं की यथास्थिति और देश के निर्माण में महत्वपूर्ण बदलाव की शुरुआत कर सकती हैं. प्रबंधन महिलाओं की एक नैसर्गिक क्षमता है इसलिए घरेलू महिलायें जो की ‘पब्लिक फेस’ नहीं है उनकी राजनीति में नेता/ विधायक/ सांसद/ मतदाता किसी भी रूप में भागीदारी का होना देश के विकास के लिए मील का पत्थर सिद्ध होगा.


चंद्रकांता