रचना पाठ

गीताश्री : अन्हरिया रात बैरनिया हो राजा

गीताश्री : अन्हरिया रात बैरनिया हो राजा : स्वर चंद्रकांता

अन्हरिया रात बैरनिया हो राजा ( एक अंश )

धीरे धीरे धूल दबने लगी थी। गाँव में खुसुर फुसुर कम होने लगी थी, पर आँखों ही आँखों में बात चल रही थी। कुछ बातें टूट रही थीं तो कुछ बन रही थीं। कुछ अधूरी थीं तो कुछ ने अभी ही जन्म लिया था। कामिनी माने कपरपूरावाली माने मुख्तार जी की बड़की पुतोह के कमरे का दरवाजा खुला पड़ा था, पीछे खेत में भी कुछ निशान थे, पैरों के! तो क्या ये कामिनी के पैरों के थे? या उसी जिन्न के पैरों के निशान थे जो उस पर आता था। सरकार जी तो अलग टेसुए बहा रही थी।


( तस्वीर साभार गूगल )

“कहाँ गई उनकी कामिनी दुल्हिनियाँ?” जब उस पर जिन्न चढ़ता था तब कितनी बार उसके तलवे और हाथ सहलाती थी!

“कुछ कहा सरकार जी?” किसी ने पूछा।

“कुछ नहीं”।

“सरकार जी, ई कामिनी कहाँ गई है?, जिन्न उठा ले गया क्या?”

“मैं तो उसे बहुत दुलार से रखती थी, न जाने कहाँ चली गई?”

“जी सरकार जी, हमने सबने देखा था, आप उसे बहुत प्यार से रखती थीं।” उधर बादलों का एक टुकड़ा सरकार जी की बातों की पोल खोलते हुए बरस पड़ा। जैसे वह उनके झूठ की परतें खोल रहा हो। “अरे… अभी तक तो ये बादल नहीं था, अब कहाँ से आ गया? मुख्तार जी की रोबीली आवाज गूँजी।” मुख्तार जी का बहुत रुतबा था। हाजीपुर के पास एक छोटे से गाँव में मुख्तार जी और उनकी बीवी सरकार जी का भरापूरा परिवार था।

कामकाजी महिलाओं को केवल जीवन की भागदौड़ से ही नहीं जूझना पड़ता भावनाओं की कशमकश में भी उलझना पड़ता है. सुनिये रणविजय राव की कहानी ‘दिनभर की बातें’ चंद्रकांता के स्वर में. https://gajagamini.in/din-bhar-ki-baat-ranvijay-rao/

तीन बेटे, एक कमाऊ था जो असम में नौकरी करता था, बाकी दो बेटों में से एक सबसे छोटा कस्बे के स्कूल में था और मँझला कॉलेज में। अभी तक उन्होंने अपने पूरे कुनबे को जोड़कर रखा हुआ था। संयुक्त परिवार का ठाठ था। विदाई की बेला के बाद भी वह दो साल मायके रही थी। गौना सरकार साहब ने तय किया था। जब तक वह अट्ठारह बरस की नहीं हो जाती उसका गौना नहीं कराया जाएगा। उन दो बरसों में कामिनी अपने अंदर न जाने कितने किस्से कहानियाँ बसाती रही। रसोई में गोबर लीपने से लेकर कुएँ से पानी भरने तक वह लगी रहती। दिदिया से ठिठोली होती।

“जाओगी जब दोंगे के बाद तब पता चलेगा कि क्या होता है फेरों और बिदाई के बाद” कामिनी की दिदिया उसे चिढ़ाती और उसे न जाने क्यों बहुत अच्छा लगता था। उसके जी में गुदगुदी होने लगती। और वह उस गुदगुदी को कुएँ से पानी निकालते हुए बाल्टी में उड़ेल देती। बाल्टी से लोटे में पानी भरती और मुँह ऊपर करके गटगट पीने लगती।

अपने पति का चेहरा भी नहीं देखा था उसने! बस जब सिंदूर डाला जा रहा था तो उसने जरूर देखा था हल्के से, पर याद नहीं रहा उस अजीब से माहौल में। दिदिया और चाची लोग अजीब से गाने गा रही थीं। और माई? माई तो व्यस्त थीं। शादी के बाद दो साल माई ने उसे घर के कामों में निपुण कर दिया था। और वह देह के तमाम रहस्यों को खुद में समेटकर अपने आप ही जवाब देती रही, सवाल उठते रहे कहीं से और वह अपना वकील बनकर पैरवी करती रही।

आखिर शादी के दो साल बाद वह दिन आ ही गया जब उसका दोंगा हुआ। घर में शादी तक तो माई ने राजकुमारी की तरह रखा था, पर जो दो साल में उसे ट्रेंड किया था, उसका फायदा उसे अपनी ससुराल में मिला। जैसे ही कामिनी का दोंगा हुआ वैसे ही यहाँ आते ही सास ने रसोई छुआ दिया। खाना बनाने से लेकर बर्तन धोने तक का काम अकेले सिर माथे पे उसके। वैसे तो घर में कई औरतें थी, पर घर की सारी औरतों ने अपने अपने हाथ पैर समेट लिए। अपने दसो हाथों से कामिनी उर्फ कपरपुरा वाली को रसोई में भिड़ जाना पड़ा।..

पढ़िए श्याम बेनेगल की यथार्थ को उघाड़ती फिल्म ‘अंकुर’ की समीक्षा https://matineebox.com/film-ankur-the-seedling-1974/

Chandrakanta

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