ध्रुवस्वामिनी नाटक : प्रियंका शर्मा

अगर तुम स्त्री की रक्षा नहीं कर सकते तो उसे बेच भी नहीं सकते…’प्रेम करने वाले ह्रदय को खो देना इस संसार की सबसे बड़ी हानि है ‘.

यह प्रसाद लिखित ध्रुवस्वामिनी नाटक के संवाद है . प्रियंका शर्मा द्वारा निर्देशित नाटक ध्रुवस्वामिनी का मंचन हाल ही में मंडी हाउस, दिल्ली में हुआ .नाटक देखते हुए बार-बार यही चेतना बनी रही की स्त्री के लिए परिस्थितियां आज भी नहीं बदली हैं. आज भी स्त्री कमोबेश समान परिस्थितियों से जूझ रही है स्त्री को लेकर समाज की सोच में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है वह आज भी सबकी संपत्ति है .उसकी सोच ,उसका हँसना – रोना, लिखना – गाना सब परिधि पर है .
ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त से प्रेम करती हैं लेकिन उनका विवाह चंद्र के भाई रामगुप्त से कर दिया जाता है जो एक पति और राष्ट्र के दायित्वों से विमुख मधुपान में डूब रहता है .ध्रुवस्वामिनी में एक संवाद है जहाँ अमात्य का विचार है की ‘राजा और राष्ट्र की रक्षा होनी चाहिए’ फिर नारी को किसी और को ही क्यों ना सौंपना पड़े . यह संवाद स्त्री के प्रति समाज और सत्ता के चरित्र और उसकी अमानवीयता को चिन्हित करता है . रामगुप्त की उदासीनता को देख ध्रुवस्वामिनी कहती है “मैं अपनी रक्षा स्वयं करुँगी’. इस तरह का महिला चरित्र हमारे समाज और सिनेमा में बहोत काम देखने को मिलता है .हाल ही में आयी फिल्म ‘अनारकली आफ आरा ‘ एक ऐसी ही फिल्म है जहाँ नायिका सिस्टम और समाज से अपनी लड़ाई खुद लड़ती है .
हालांकि इस नाटक का टेक्स्ट हमने पढ़ा नहीं है लेकिन एक सुकून मिलता है समाज और साहित्य में प्रसाद जैसे लेखकों के होने से जहां स्त्री को एक स्वतंत्र विचार के रूप में गढ़े जाने की चुनौती लेखक नें स्वीकार की हो .जहाँ अपने परिवेश की स्थापित मान्यताओं को ध्वस्त कर वह प्रेम और पुनर्विवाह करने का निर्णय ले सकती हो .
इस नाटक में एक स्त्री पात्रों का ह्रदय दूसरी स्त्री और प्रकृति दोनों के लिए संवेदना से भरा है .जैसे कोमा शुकराज को ध्रुवस्वामिनी की अस्मिता भंग ना करने को कहती है .मिहिरदेव का अपनी तन्या कोमा को बहोत प्रेम से उसके शुकराज से सम्बन्ध की अ-अनिवार्यता को लेकर समझाना नाटक का एक बेहतर बिंदु था.एक दृश्य है जहाँ शुकराज आने वाली विपदा को लेकर आशंकित हो उठता है इस आशंका और भय का दृश्यांकन बहोत बेहतर तरीके से किया गया है .ध्रुवस्वामिनी – चंद्रगुप्त और शुकराज के मध्य लड़ाई का मंचन भी शानदार रहा .रामगुप्त के किरदार के माध्यम से लगातार हास्य रास की योजना की गयी है .रामगुप्त के महल में पीतल के बर्तनों की सज्जा और शुक के दुर्ग में मिटटी के बर्तनों का होना दोनों ही दरबारों के भौतिक परिवेश की और संकेत करता है . कम संसाधनों में स्टेज का अच्छा इस्तेमाल किया गया है .कॉस्ट्यूम अच्छे हैं . नाटक मंचन में भाषा की ऑथेंटिसिटी बनी हुई है .
प्रियंका नें एक सधा हुआ प्रयास किया है .केवल कुछ बातें खटकी पहला बेकग्राउंड म्यूजिक पर थोड़ा और मेहनत होनी चाहिए थी , दूसरा एक दृश्य है जहाँ कोमा प्रकृति से बातें कर रही है, पौधों को बुहार रही है और उन्हें पानी दे रही है वहां दृश्य को इंटेस बनाने के लिये वास्तविक पौधों का प्रयोग किया जा सकता था. हिजड़ा शब्द का बार बार प्रयोग कुछ जँचा नहीं समय और काल के लिहाज़ से यदि इसका प्रयोग किया गया है तब यह छूट निर्देशिका को दी जा सकती है .हालांकि उस समय थर्ड जेंडर के लिए इसी संबोधन का प्रयोग किया जाता होगा इस पर हमें संदेह है .
प्रियंका अपने अभिनय को लेकर स्टेज पर काफी सहज हैं .उनके अभिनय का सबसे बेहतर पक्ष उनकी आवाज़ का आरोह – अवरोह है .शुकराज और मिहिरदेव का चरित्र जिन कलाकारों से निभाया है उनका अभिनय भी अच्छा लगा. एक बार फिर से प्रियंका को थियेटर में स्थापित वर्चस्व को तोड़ने के लिए बहोत बधाई. उम्मीद है आप भविष्य में होने वाले मंचन में और अधिक एक्सपेरिमेंट करेंगी .शाबास प्रियंका .
Chandrakanta

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