कलाकृति..

कलाकृति..

आज कुछ टूटे-फूटे, विस्मृत 
कंकड़-पत्थर साफ़ किये 
जो मुंडेर पर बिखरे पड़े थे 
बेफिक्र, बेतरतीब से 
अनमने यहाँ-वहाँ.. 

मैंनें, निर्भीक चुन लिया 
सभ्यता के अधि-शेष सूत्रों 

इतिहास का श्रृंगार करते उन 
निष्प्राण, बासी फूलों को 
प्रकृति की स्नेहिल गोद से 

साधिकार झोली में भर
शुष्क खंडहरों को, शून्य में 
ताकती रही अ-क्षण, जैसे 
कोई अक्षत रिश्ता रहा हो 
उन चिर निन्द्रित पाषाणों से 

एक पुरानी कतरन 
और बेकार पड़े उबड-खाबड़ 
ब्रश से उन प्रक्षिप्त रंध्रों की 
सदियों से, छीजती पीड़ा पर 
स्नेह लेप करती जाती थी 

कुछ क्षणों की उधेड़-बुन 
हथेलियों के आरोह-अवरोह 
सर्जना के अभिसार से, वह 
बन गए थे एक कलाकृति 
किन्तु अनिमेष, मौन !

सहसा, पाकर संवेदन-स्पर्श 
मेरे अलसाये अधबिम्बों से 
धीमे-धीमे सिसकती झील का 
वह कलाकृति मुस्कुरा दी, किसी 
महाकाव्य की श्लील नायिका की तरह 




प्रक्षिप्त: समय के साथ जुड़ते गए अंश
अनिमेष: अपलक
श्लील: नैतिक
छीजती: कराहती
….. 

चंद्रकांता