कुछ बिखरी हुई संवेदनाएं -2
परीक्षित..
सुनों भद्रे ! तुम हो
वह स्त्री परीक्षित, जिसे ढूँढा
मैंने क्षितिज के उस पार
जिसे मैंने खोया पाया
अपने स्त्री होने की अकेली
अथक, अनवरत यात्रा में
वो तुम्हीं थी, प्रबोध
प्रज्ज्वलित पलकों के अधबीच
जिसका स्पंदन आह्नाद
मुझे हारने नहीं देता था
तुम्ही नें जब तब
अक्सर प्रेरणा दी है
अपने भीतर सुलगते सूरज को
गुनगुनी नरम धूप बन जाने की
तुम कल थीं जहाँ
वहाँ मैं हूँ आज, छानती
सानती परिभाषित करती खुद को
अपने ही राग-विराग-अनुराग से
तुम हो
तुम रहोगी ..सदा के लिए ..
सुनों भद्रे ! तुम हो
वह स्त्री परीक्षित, जिसे ढूँढा
मैंने क्षितिज के उस पार
जिसे मैंने खोया पाया
अपने स्त्री होने की अकेली
अथक, अनवरत यात्रा में
वो तुम्हीं थी, प्रबोध
प्रज्ज्वलित पलकों के अधबीच
जिसका स्पंदन आह्नाद
मुझे हारने नहीं देता था
तुम्ही नें जब तब
अक्सर प्रेरणा दी है
अपने भीतर सुलगते सूरज को
गुनगुनी नरम धूप बन जाने की
तुम कल थीं जहाँ
वहाँ मैं हूँ आज, छानती
सानती परिभाषित करती खुद को
अपने ही राग-विराग-अनुराग से
तुम हो
तुम रहोगी ..सदा के लिए ..
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‘सुमन केशरी अग्रवाल’ मैम के लिए उनकी सालगिरह पर 15 जुलाई , 2012
चंद्रकांता
बहुत भावपूर्ण रचना के माध्यम से मन के उद्गारों को अभिव्यक्त किया है ! आपकी मैम इस अनमोल उपहार को पाकर अवश्य पुलकित हुई होंगी ! सुन्दर रचना !
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 07-02 -2013 को यहाँ भी है
….
आज की हलचल में …. गलतियों को मान लेना चाहिए ….. संगीता स्वरूप
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