क्यूंकि, बेहूदा मानसिकता की कोई हद नहीं..
क्यूंकि, बेहूदा मानसिकता की कोई हद नहीं..
स्त्री का श्रृंगार से रिश्ता एक कभी न ख़त्म होने वाले उत्सव की तरह रहा है.श्रृंगार का हमारा अर्थ यहाँ प्रसाधन से नहीं होकर ‘री-प्रेसेनटेशन ऑफ़ हर इनर सब्सटेन्स‘ से है.जहां वह अपने अस्तित्व को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्तियों के माध्यम से गढ़ती है.उसकी सोच-विचार,आचार-व्यवहार,अनुरक्ति- अभिसार आदि सब कलाएं इसी श्रृंगारिकता से जुड़े हैं. यही सौन्दर्य है.
किन्तु, स्त्री के रूपक को सामंतिक सामजिक बिम्बों और बाज़ार के दवाब नें विपक्ष बनकर इस हद तक कचरा किया है की उसके स्फटिक नैन-नक्शों और कटि-प्रदेशों के अतिरिक्त उसकी कोई अन्य छवि जेहन में बनती ही नहीं.और उसके सौन्दर्य को ‘प्रसाधनों के उजाले‘ तलक सीमित कर दिया जाता है.लेकिन, यह बात यहीं खत्म नहीं होती इसके बाद हमारे समाज के कुछ ठेकेदार तत्व ‘प्रसाधन युक्त स्त्री‘ को हीन दृष्टि से देखते हैं और उस पर तरह तरह के प्रबुद्ध लेख लिखकर अपनी माननीय बुद्धि पर बलिहारी जाते हैं.फिर इसके बाद बारी आती है बाज़ार की.तो चलिए अब बाज़ार पर एक नजर डालते हैं ..
‘मर्दों‘ वाली क्रीम!!!
कुछ दिन पहले एक विज्ञापन देखा जिसमें एक तरफ एक पहलवान को लिपस्टिक और नेल-पेंट लगाते हुए दिखाया जा रहा था और साथ में हमारे बादशाह अभिनेता शाहरुख़ खान ‘मर्दों वाली फेयरनेस क्रीम‘ को प्रचारित कर रहे थे.समस्या न मर्दों से है ना शाहरुख़ से और ना ही मर्दों वाली फेयरनेस क्रीम से.लेकिन आपत्ति इस बात से है की क्या पुरुषों के किसी सौन्दर्य प्रसाधन के लिए महिलाओं के श्रृंगार का भद्दा मजाक बनाया जाना जरुरी था?
भारी भरकम फीस पाने वाले विज्ञापन आर्टिस्टों की तमाम क्रिएटिविटी ऐसा कोई क्रीएटिव विचार नहीं बुझा पायी जहाँ उन्हें महिलाओं को एक विपक्ष की तरह इस्तेमाल नहीं करना पड़ता!बाजारीकरण की बैसाखियों नें हमारे निर्माता-निर्देशकों को तो अपाहिज बना ही दिया है लेकिन हमारे सेंसर बोर्ड के सेंस को क्या हुआ है??सत्ता प्रशासन और राजनीति में प्रतिष्ठित महिलायें क्यूँ अपनी ही बिरादरी के मुद्दों पर उदासीन हैं???इससे तो यही आभास मिलता है की महिलाओं को संसद में आरक्षण का कोई सार्थक लाभ नहीं मिलने वाला..
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चंद्रकांता
विचारणीय पोस्ट !
क्रिएटिविटी कई और तरह से भी दिखाई जा सकती है भले ही उत्पाद या रचना कोई भी हो। लेकिन क्रिएटिविटी का अर्थ भद्दापन तो बिलकुल भी नहीं होना चाहिये लेकिन बाजरवाद इसे ही स्वीकार्य बनाने का प्रयास कर रहा है और काफी हद तक कामयाब भी दिख रहा है।
ज़रूरत परंपरागत मूल्यों की विरासत को संरक्षित करने की है।
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कृपया इस पोस्ट के शीर्षक पर ध्यान देने का कष्ट करें। संभवतः शब्द 'मानसिकता' है।