चंद्रकांता कविता आलाप

आलाप
दिमाग में घने अंधेरों नें
कसकर पाँव जमा रखे हैं
एक भी सुराख़ नहीं है
जो छटांक भर रोशनी को भीतर आने दे
सांसे लगभग जम चुकी हैं
आत्मा ठि-ठ-की हुई है
आशाओं पर धूल की मोटी परत उग आई है
और फेफड़ों का मेकेनिज्म धीमा पड़ रहा है
कोई अनचाहा कलाकार
जिसकी उलझी हुई सी सूरत
किसी घुसपैठिये की तरह मालूम होती है
मेरी समस्त संवेदनाओं की सूची बनाकर
उनपर बहोत बेफिक्री से कूची चला रहा है
वह मेरे मस्तिष्क के शून्य का पोर-पोर
अपने संवेदनहीन शुष्क रंगों से
ता-ब-ड़-तो-ड़ रंगता जा रहा है
बचपन वाले सिनेमास्कोप के काले डिब्बे में
एक चलचित्र घिसट रहा है
जहां एक अजनबी के खुरदरे हाथ
मेरा ‘फाहे सा मन’ कुतर रहे हैं
मेरी देह किसी खुरदरी सड़क पर
लगातार रगड़ खा रही है
आह! मैं एक टूटी हुई जल-तरंग की भांति
अपने अंतर्मन में सिसक रही हूँ..
यह कौन है ?
जो मेरे प्रेम भरे हृदय में आलाप कर रहा है ??
 © पिंक रोज़ (चंद्रकांता) PINK ROSE ( CHANDRAKANTA)
चित्र साभार : गूगल