Dr. Harish Naval डॉ. हरीश नवल से साक्षात्कार

Dr. Harish Naval – लेखक, संपादक, पत्रकार, विजिटिंग व्याख्याता व वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ. हरीश नवल जी पिछले करीब पाँच दशकों से हिंदी साहित्य को अपने विविधतापूर्ण लेखन से समृद्ध कर रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से परास्नातक व पी.एच.डी. डॉ. नवल का जन्मस्थान पंजाब (जालंधर, नकोदर) है, वे मूल रूप से दिल्ली निवासी हैं। प्रस्तुत है, युवा लेखिका व संपादक चंद्रकांता के साथ डॉ. हरीश नवल का साक्षात्कार- 

Dr. Harish Naval
Dr. Harish Naval

चंद्रकांता: ऐसा माना जाता है की आमतौर पर लेखन की शुरुआत पद्य या कविता से होती है! आपकी कथा क्या रही? एक ऐसे समय में जब हास्य और व्यंग्य को लगभग गुम्फित समझा जाता रहा होगा आप व्यंग्य लेखन की तरफ कैसे आकृष्ट हुए? आपकी प्रथम व्यंग्य पुस्तक ‘बागपत के खरबूजे’ को युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया था। देसी खरबूजे तो अब संकर (हाइब्रिड) हो गये हैं। आपकी पुस्तक के बारे में बताइये?

डॉ. हरीश नवल: सब की भाँति मेरी शुरुआत भी तुकबंदी से हुई और स्कूल में मुख्य अतिथि के रुप में पधारे प्रख्यात साहित्यकार जैनेंद्र कुमार को प्रिंसिपल के कहने से कविता सुनाई तो उन्होंने कहा – ‘व्यंग्य अच्छा लिख सकते हो, इसमें खूब व्यंग्य है।’ तबसे अब तक व्यंग्य है क्या पता करने में लगा हूँ और व्यंग्य लिख रहा हूँ। यूं मैं कहानी बनाता था, रात को सोने से पूर्व मैं अपने दादा जी व माताजी से पूछता था कि बताएं किस पर कहानी सुनाऊँ!

जहाँ तक मेरी प्रथम पुस्तक ‘बागपत के खरबूजे’ का प्रश्न है,  भारतीय ज्ञानपीठ ने ‘नई पीढ़ी व्यंग्य प्रतियोगिता’ आयोजित की थी जिसमें पांडुलिपि भेजनी थी। देश भर से 48 पांडुलिपियों में मेरी पांडुलिपि को चुना गया। निर्णायकों में शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल भी थे। ‘बागपत के खरबूजे’ को, जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने ही प्रकाशित किया, 1987 अक्टूबर के अंतिम दिन श्रीलाल शुक्ल ने लोकार्पित किया और शरद जोशी जी ने वक्तव्य दिया। ऐतिहासिक क्षण था। बहुत प्रचार भी हुआ, गोष्ठियां हुईं। सबसे बड़ी बात यह रही की ‘टाइम्स सर्वे’ ने बीसवीं सदी की जिन सौ पुस्तकों को चुना उनमें ‘बागपत के खरबूजे’ भी एक थी। आलोचकों ने इस पुस्तक को ‘नई पीढ़ी की प्रतीक पुस्तक’ कहा। 

आज भी जब मेरा नाम लिया जाता है तब ‘बागपत के खरबूजे’ को मुझसे पहले याद किया जाता है। आज तैंतीस वर्ष बाद भी उस पुस्तक को सम्मान प्राप्त होता है।

चंद्रकांता: हाल ही में ‘साहित्य अमृत’ पत्रिका के रजत जयंती विशेषांक में आपके व्यंग्य उपन्यास ‘बोगी नं. 2003’ का एक अंश प्रकाशित हुआ है। उपन्यास के बारे में कुछ बताइये? यह उपन्यास लिखने के पीछे कोई ख़ास प्रेरणा रही? 

डॉ. हरीश नवल: ‘बोगी नंबर 2003’ व्यंग्य उपन्यास के अंश साहित्य अमृत के अतिरिक्त व्यंग्य यात्रा, कादंबिनी, अमर उजाला, इंद्रप्रस्थ भारती व साहित्य गंधा में भी प्रकाशित हुए हैं। लेखक के रूप में मेरा प्रसन्न होना स्वभाविक है। इस उपन्यास के लिखने की प्रेरणा मुझे अपने ही कॉलेज से मिली जिसके विद्यार्थियों का एक टूर मेरे संरक्षण में गया था। यह चालीस वर्ष पहले की बात है मैंने इस व्यंग्य उपन्यास के माध्यम से उस समय की युवा पीढ़ी और अपनी पीढ़ी का समाज विज्ञान संदर्भित अवलोकन या अध्ययन किया। 

इसमें मैंने स्वतंत्रता से पूर्व की पीढ़ी और स्वतंत्रता के बाद की दो पीढ़ियों का अंतर बताने या कहूं जताने की कोशिश की है। एक कॉलेज यात्रा के माध्यम से उपन्यास का ताना-बाना बुना गया। कॉलेज टूर में एक रेलवे की यात्रा बोगी नंबर दो हजार तीन बुक की गयी थी। दिल्ली से गोवा की जो यात्रा आयोजित की गयी थी उसी में मुख्य घटनाक्रम की भूमिकाएं बनती चली गयीं। 

चंद्रकांता: अंग्रेजी का सटायर और हिंदी का व्यंग्य क्या एक ही है? मानव जीवन की विसंगतियों की खिल्ली उड़ाना एक भौंड़ा कर्म है, करुणा और विवेक रहित व्यंग्य से फूहड़ता उपजती है; आप इस बात से कितनी सहमति रखते हैं?  व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति को लेकर आपका क्या मत है?

डॉ. हरीश नवल: हिंदी व्यंग्य का उजला पक्ष वही है जहाँ उसकी परिणिति करुणा में हुई है। विसंगति, विडंबना, विद्रूपता और पाखंड व्यंग्य के मुख्य कारक हैं। व्यंग्य में शैली के रूप में हास्य की उपस्थिति को मैं परहेज नहीं मानता। हाँ, रचना में हास्य की अनावश्यक (अधिक) मात्रा व्यंग्य को भोथरा बना देती है। व्यंग रूक्ष ना हो, अरोचकता से बचें, उसके लिए ‘हास्य’ की उपस्थिति व्यंग्य रचना में ऐसी ही हो जैसे भोजन में चटनी। ऐसा ना हो कि भोजन में चटनी ही चटनी हो जाए।

चंद्रकांता: व्यंग्य में आलोचना कर्म की क्या स्थिति है? वर्तमान में व्यंग्य बहुलता में लिखा जा रहा है, व्यंग्य रचना के शिल्प, भाषा-शैली और विचार पक्ष पर कितना विमर्श किया जा रहा है?  क्या व्यंग्य आलोचना की कोई शास्त्रीय रूपरेखा तैयार हो सकी है? व्यंग्य का सौंदर्यशास्त्र क्या है ?

डॉ. हरीश नवल: व्यंग्य में आलोचना कर्म उतना नहीं हुआ है जितना अन्य विधाओं में। व्यंग्य का आलोचना कर्म प्रायः व्यंग्यकारों ने ही अधिक (प्रारंभ) किया। डॉक्टर बालेंदु शेखर तिवारी, श्यामसुंदर घोष, मधुसूदन पाटिल, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल आदि ने व्यंग्य आलोचना को जरूरी समझ उसमें कदम रखे। साथ ही ऐसे विद्वान भी व्यंग्य आलोचना के क्षेत्र में आए जिन्होंने विशुद्ध रूप से गंभीर आलोचना कर्म इस विद्या के लिए किया। जिनमें डॉक्टर बरसाने लाल चतुर्वेदी, डॉक्टर शेरजंग गर्ग, डॉक्टर नंदलाल कल्ला, डॉ भगीरथ, डॉक्टर सुरेश महेश्वरी, डॉक्टर बापूराव देसाई, डॉक्टर मलय, तेजपाल चौधरी, गौतम सान्याल, डॉक्टर रमेश तिवारी और एम.एम. चंद्रा के नाम मुझे ध्यान आ रहे हैं। कुछ विद्वान आलोचक ऐसे भी रहे जिन्होंने व्यंग्य को स्वीकृति दी जैसे डॉ विजेंद्र स्नातक, डॉक्टर धनंजय वर्मा और कुछ वर्षों से ‘व्यंग्य यात्रा’ और डॉ. प्रेम जनमेजय के प्रयास से डॉक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ निर्मला जैन और डॉ नित्यानंद जैसे प्रगतिशील आलोचकों ने भी व्यंग्य की सुधि ली है।

जहाँ तक व्यंग्य के सौंदर्य शास्त्र का प्रश्न है वह नहीं बना है। रचना का वैभव पहले होता है, उसी से शास्त्र बनता है जैसे श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी ने व्यंग्य उपन्यास को स्थापित किया जबकि उनसे पूर्व भी कितने ही व्यंग्य उपन्यास लिखे जा चुके थे।

चंद्रकांता: आज, लेखन के इस पड़ाव पर आपका अनुभव क्या कहता है – व्यंग्य एक विधा है या शैली?

डॉ. हरीश नवल: मेरा अनुभव क्या कहेगा। हमने (मैंने और प्रेम जनमेजय) 1976 में एक गोष्ठी दिल्ली के कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज में आयोजित की थी। जिसका विषय ही था- ‘क्या व्यंग्य एक स्वतंत्र साहित्यिक विधा है’। उसमें रवींद्रनाथ त्यागी, विजयेंद्र स्नातक, अजित कुमार, नरेंद्र कोहली, रमेश उपाध्याय, सुधीश पचौरी, कन्हैयालाल नंदन आदि प्रतिभागी थे। और यह लगभग तय हो गया था कि ‘गद्य व्यंग्य’ एक विद्या है। 

यह प्रश्न अब बेमानी है। यह बात ‘गद्य व्यंग्य’ के साथ है, जिसके विद्या होने के कारण ही परसाई जी को ‘व्यंग्यकार’ कहा जाता था, जो इसे विद्या नहीं मानते थे। 

जब कथात्मक, निबंधात्मक या किसी भी प्रकार की मूल रचना व्यंग्य प्रतिपादित हो, तब व्यंग्य विधा के रूप में है। यदि किसी अन्य विद्या के रूप में जैसे कहानी या नाटक तब व्यंग्य शैली है। जहाँ तक ‘व्यंग्य उपन्यास’ की बात है, वह एक विद्या ही माना जाता है। दिक्कत यह है कि विद्या का नाम ‘व्यंग्य’ होने से भ्रांति होती है। यदि इसे (विनम्र निवेदन) ‘व्यंग्य आलेख’ जैसा नाम दे दिया जाता, तब यह भ्रांति नहीं होती।

चंद्रकांता: हाफ़लाईनर क्या हैं, यह लघु कथा से किस तरह भिन्न है? क्या वनलाईनर भी होते हैं? हाल ही में सोशल मीडिया पर मल्टीलाईनर भी सुनने को मिला। क्या हमारा लेखन अखबारों व पत्रिकाओं के स्तंभ की तरह सिकुड़ता जा रहा है?

डॉ. हरीश नवल: हाफलाईनर और लघु कथा में वही अंतर है जो व्यंग्य और कहानी में होता है। व्यंग्य रचना चाहे निबंधात्मक हो, कथात्मक हो या किसी भी और शैली में हो हम उस गद्य रचना को व्यंग्य कहते हैं। तीन चार पृष्ठों वाले व्यंग्य वन लाइनर भी कहे जाते हैं और एक दो पृष्ठों वाले हाफ लाइनर कहे जाते हैं। मल्टीलाइनर नहीं होते।

चंद्रकांता: बी.एल.आच्छा जी ने ‘हाफ़लाईनर’ के लिये ‘अर्धाली व्यंग्य’ शब्द का प्रयोग किया है। हिंदी शब्दकोष के लिये यह शब्द कितना उपयुक्त है?  हिंदी में हाफ़लाईनर का उद्भव कब हुआ?  पाठकों में इसकी स्वीकार्यता की क्या स्थिति है?    

डॉ. हरीश नवल: हाफलाईनर के लिए आलोचकप्रवर बी.एल. आच्छा जी ने ‘अर्थाली व्यंग्य’  शब्द का प्रयोग किया। किंतु ‘हाफलाईनर’ चूँकि स्वीकृत हो रहा है, यही हिंदी शब्दकोश में आ जाएगा। हिंदी व्यंग्य में इसका प्रयोग, बहुत विनम्रता से कहना चाहता हूँ, कि सर्वप्रथम मैंने ही किया। फेसबुक पर डेढ़ वर्ष से मैं ‘हाफ लाईनर’ दे रहा हूँ जो काफी पसंद किए गए हैं। अब ‘सोशल मीडिया’ पर इतना कुछ पढ़ने, सुनने या देखने को होता है कि लंबी रचनाओं को बहुत कम पढ़ा जाता है। भले ही ‘लाईक’ बिन पढ़े कितने ही दे दिए जाते हैं। छोटी रचनाओं को पढ़ा जाता है, उन पर ‘कमेंट्स’ अधिक आते हैं। समाचार पत्र और पत्रिकाओं में जो प्रकाशित होता है, उसका एक बहुत बड़ा भाग पुनः सोशल मीडिया पर आकर विश्वव्यापी हो जाता है। इसलिए ‘हाफ लाईनर’ की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है।

चंद्रकांता: उड़िया के प्रख्यात लेखक और अनुवादक श्री ग़ौरहरि पांडा जी ने आपकी व्यंग्य कथा का उड़िया अनुवाद किया। वे अब आपकी ‘51 व्यंग्य रचनाओं’ का भी अनुवाद कर रहे हैं। आपकी रचनाओं का अनुवाद उड़िया के अतिरिक्त और भी भाषाओं में हुआ है?

डॉ. हरीश नवल: मेरी रचनाओं का अनुवाद उड़िया के अतिरिक्त अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी, मराठी, तमिल, तेलुगू, बांग्ला और बुल्गारियन में भी हुआ है। उड़िया अनुवाद मेरे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि उड़िया के प्रख्यात लेखक गौर हरि पांडा मेरे व्यंग्य के अतिरिक्त पुस्तकों का भी अनुवाद करने में रुचि ले रहे हैं। एक सूचना आपको दे दूं की ‘बोगी नंबर 2003’ का अंग्रेजी अनुवाद भी हो रहा है।

चंद्रकांता: भाषाओं का आदान-प्रदान साहित्य और संस्कृति दोनों के लिये सुखद है। द्विभाषी साहित्यकारों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये। यह पाठक वर्ग का भी विस्तार करता है। भाषाई समरसता की दृष्टि से अनुवाद के विषय में आपका क्या मत है? 

डॉ. हरीश नवल: भाषाओं और साहित्य के उत्थान तथा विस्तार-प्रसार के लिए अनुवाद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमने बांग्ला,असमिया, गुजराती, तमिल आदि हिंदी इतर भारतीय भाषाओं के अनुवाद हिंदी में पढ़े हैं वरना रवींद्रनाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र, शरतचंद्र, प्रतिभा रॉय, मामा वरेरकर, विजय तेंदुलकर, गिरीश कर्नाड, शंकर कुरुप, ताराशंकर बंधोपाध्याय, उमाशंकर जोशी, शिवराम कारंत, आशापूर्णा देवी, अखिलंदम, वीरेंद्र कु. भट्टाचार्य, नानक सिंह, अमृता प्रीतम, गोपीनाथ महंती, तकषी पिल्लै, कुसुमाग्रज, पन्नालाल पटेल आदि की कृतियों को कैसे पढ़ते?

हमने टॉलस्टॉय, गोर्की, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, ब्रेख़्त, शेक्सपियर हेमिंग्वे, लुशिन आदि अभारतीय भाषा के साहित्यकारों को अनुवाद से ही जाना। 

बचपन में ही गुलिवर की यात्राएं, ईसप की कथाएं, अलिफ लैला, एलिस इन वंडरलैंड, एच. जी. वेल्स, और एंडरसन को अनुवाद के माध्यम से जान लिया था। यही नहीं बाईबिल, कुरान शरीफ आदि धार्मिक ग्रंथ भी अनुवाद से ही हमारे समक्ष साकार हो सके। अनुवाद मेरे विचार से ‘विश्व संस्कृति का सेतु’ है।

चंद्रकांता: क्षेत्रीय या हिंदी इतर भारतीय भाषाओँ में व्यंग्य लेखन की सक्रियता हिंदी से कितनी अलग है? क्या क्षेत्रीय भाषाओँ में व्यंग्य बहुतायात में रचा जा रहा है? क्या हिंदी पट्टी के लेखक भी अन्य भाषाओं की रचनाओं (व्यंग्य के विशेष सन्दर्भ में) के अनुवाद में सक्रिय रूचि दिखाते हैं?

डॉ. हरीश नवल: हिंदीतर भारतीय भाषाओं में व्यंग्य लेखन प्रचुर मात्रा में है किंतु बहुतायत में नहीं है, जैसा आजकल हिंदी में है। हिंदी के कलमजीवी भी दूसरी भाषाओं के व्यंग्य लेखन के अनुवाद करते हैं। उर्दू के शौकत थानवी, फिक्र तौंसवी, मुज़तवा हुसैन और कृश्न चंदर के खूब अनुवाद हुए हैं। हिंदी व्यंग्यकार सुरजीत ने बहुत अनुवाद किए हैं। गुजराती के विनोद भट्ट, आबिद सुरति, पंजाबी के संसारचंद्र, प्रीतम सिद्धू, बांग्ला के परशुराम, मराठी के जी. एन. देशपांडे, गंगाधर गाडगिल, तेलुगू के चंद्रशेखर रेड्डी, डोगरी के रमेश मेहता, कन्नड़ के एम. शिवराम आदि ऐसे व्यंग्यकार रहे हैं जिनके हिंदी अनुवाद बहुत हुए हैं। अभी मेरी व्यंग्य रचनाओं और पुस्तकों का अनुवाद आप जानती ही है उड़िया के प्रख्यात लेखक गौर हरि पांडा कर रहे हैं। मेरी रचनाओं के अनुवाद अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी, बांग्ला, तमिल, डोगरी, मराठी और गुजराती में हुए हैं। मेरा अपना संबंध उर्दू के बड़े व्यंग्यकारों फिक्र तौंसवी और कन्हैयालाल कपूर से, डोगरी के रमेश मेहता से, गुजराती के दिग्गज व्यंग्यकार विनोद भट्ट, समकालीन निर्मिश ठकार और पंजाबी के जसविंदर से अच्छा रहा है।

चंद्रकांता: व्यंग्य को लेकर वैश्विक साहित्य की स्थिति क्या है? क्या अन्य देशों के अकादमिक साहित्य में भी व्यंग्य स्वतंत्र विधा के रूप में संघर्षरत है? विदेशी भाषा के आपके प्रिय व्यंग्यकार के बारे में बताएं।

डॉ. हरीश नवल: व्यंग्य अन्य देशों में स्वतंत्र साहित्यिक विद्या है। हमारे यहाँ अभी तक ‘हास्य-व्यंग्य’ कहा जाता है, जो भ्रामक है। दूसरे देशों में ‘सटायर’ और ‘ह्यूमर’ दोनों ही स्वतंत्र साहित्यिक विधाएं हैं, वहाँ कोई संघर्ष विद्या-स्थापना का नहीं है। मेरी पसंद के विदेशी भाषाओं के व्यंग्यकारों में पी.जी. वुडहाउस और जॉर्ज बर्नार्ड शॉ है। जोनाथन स्विफ्ट की ‘गुलिवर की यात्राओं’ में घना व्यंग्य है। मार्क टवेन और अंतोन चेखव की रचनाओं के निहितार्थ व्यंग्य भी मुझे पसंद है।

चंद्रकांता: भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की पत्रिका ‘गगनांचल’ के संपादन का अनुभव कैसा रहा? क्या पत्र-पत्रिकाएं वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत बना सकने में सक्षम रही हैं? 

डॉ. हरीश नवल: ‘गगनांचल’ (द्वैमासिक) के संपादन का अनुभव बहुत समृद्ध रहा। यूं मैं इस पत्रिका के साथ वर्षों से जुड़ा हुआ था। पहले कन्हैयालाल नंदन जी के साथ उनके सहायक के रूप में, फिर संपादन समिति के साथ जिसमें डॉ. राम दरश मिश्र, ममता कालिया, बालशौरि रेड्डी, अशोक चक्रधर, अनामिका और मैं सदस्य थे। अब सवा तीन वर्ष मुख्य संपादक के रूप में चार विशेषांक निकाले जिनमें एक महाविशेषांक था जो ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन मॉरीशस के अवसर पर वहाँ लोकार्पित हुआ। यह भारतीय संस्कृति संदर्भित विशेषांक था जिसमें अनेक देशों से रचनाकारों व विद्वानों ने लेख भेजे जिनमें उन देशों में भारतीय संस्कृति के प्रभाव को लक्षित किया गया था। पहला विशेषांक गिरमिटिया संदर्भित विशेषांक था, यह भी बहुत पसंद किया गया। ‘भारतीय स्वतंत्रता के सत्तर वर्ष’ विशेषांक में समाज, साहित्य, कला, मीडिया आदि के सत्तर साल के विकास पर विशेषज्ञों के लेख थे।

चौथा विशेषांक अमेरिका और कनाडा के हिंदी लेखन पर केंद्रित था। पहली बार किसी पत्रिका में एक साथ इतने लेखक अमेरिका-कनाडा से संकलित हुए थे-60 लेखक। इस विशेषांक का लोकार्पण हमने बिना किसी सरकारी सहायता के अपने व्यय और साधनों से अमरीका के न्यूयॉर्क नगर में भारतीय कौंसलावास में किया। हमें अमेरिका के प्रवासी लेखक अनूप भार्गव का सहयोग मिला और बहुत से बड़े साहित्यकार जैसे वेद प्रकाश बटुक व सुषमा बेदी भी उस में सम्मिलित हुए। इस प्रकार स्वतंत्र रूप से ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद’ के अधिकारियों के साथ मिलकर ‘गगनांचल’ का जो रूप और स्तर गिर गया था, उसे ऊपर उठाने में सफलता प्राप्त हुई। यह संतोष का विषय था। मेरा एक स्तंभ ‘अंततोगत्वा’ भी था जिसमें मैंने ‘हाफलाईनर’ देने आरंभ किए। ‘गगनांचल’ जैसे पत्र-पत्रिकाएं अभिव्यक्ति का माध्यम और अंतरराष्ट्रीय संस्कृति को बंधुत्व के माध्यम से ‘वसुधैव कुटुंबकम’ को साकार करने में सहायक होते हैं।

चंद्रकांता: आपने हरिशंकर परसाई जी के पत्र का जिक्र किया था। यदि असुविधा न हो तो उस रोचक पत्र- व्यवहार और संदर्भ से पाठकों को भी लाभान्वित कीजिये। साहित्यिक विमर्श के पत्र निजी स्मृतियों के अतिरिक्त साहित्य की भी अमूल्य थाती भी हैं। एक लेखक के तौर पर देश-विदेश का आपका अनुभव वृहद है। डिजिटल संवाद के दौर में, साहित्य में पत्र-व्यवहार की वर्तमान स्थिति क्या है? 

डॉ. हरीश नवल: हरिशंकर परसाई का मेरे नाम का पत्र वह पत्र है जिसमें परसाई जी ने व्यंग्य को विद्या नहीं ‘स्पिरिट’ कहा था। जिस युग में उनके साथ पत्र व्यवहार होता था, तब ‘डिजिटल संसार’ नहीं था। मेरा सौभाग्य है कि मेरे पास श्रीलाल शुक्ल और रवींद्रनाथ त्यागी के भी पत्र हैं। व्यंग्यकारों के अतिरिक्त हरिवंश राय बच्चन, विष्णु प्रभाकर, धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त आदि साहित्य मनीषियों के भी पत्र हैं। 

विदेशी हिंदी विद्वानों में मेरा पत्र व्यवहार जर्मनी के लोथार लुत्ज़े, फिजी के विवेकानंद शर्मा, मॉरीशस के अभिमन्यु अनत, रामदेव धुरंधर और राज हीरामन से रहा है। अब देश-विदेश के विद्वानों साहित्यकारों से संपर्क और पत्राचार डिजिटल होता है जो मुख्यतः मैसेंजर और व्हाट्सएप से होता है जिनमें जापान के तोशियो मिजोकामी, यू.के. के तेजेंद्र शर्मा, दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, ज़किया जुबेरी, जया वर्मा, अचला शर्मा, अमेरिका के अनूप भार्गव, सुधा ओम ढींगरा, गुलशन मधुर, नरेंद्र टंडन व धनंजय कुमार, कनाडा की शैलजा सक्सेना व सरन घई, ऑस्ट्रेलिया की रेखा राजवंशी, शारजाह की पूर्णिमा बर्मन, ओमान की परमजीत ओबेरॉय, अर्चना पेन्यूली, बलगारिया की योरदांका,  हंगरी की मारिया  न्याजेशी और हॉलैंड की पुष्पिता अवस्थी हैं।

किंतु जो संतुष्टि पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र आदि से होती थी वह डिजिटल से नहीं होती।

https://gajagamini.in/dr-ramesh-saini/

चंद्रकांता: आप प्रयोगधर्मी लेखक हैं। प्रयोग लेखक के वितान को समृद्ध करते हैं और साहित्य को परिष्कृत भी करते हैं। प्रयोगधर्मिता एकरसता को फलांगकर लेखन को पाठकों के लिये रुचिकर बनाये रखने में भी सहायक होती है। हाफ़लाईनर के बाद आपका बिंदु-बिंदु (बिंदुवार) व्यंग्य पढने को मिला। साहित्यकारों के दस दुःख आपने बड़ी रोचक शैली में प्रस्तुत किये। भविष्य में क्या योजना है?

डॉ. हरीश नवल: धन्यवाद आपने मेरे प्रयोग धर्मी लेखन को पहचाना और स्वीकृति दी। ‘हाफलाईनर’, ‘बिंदु-बिंदु व्यंग्य’  के बाद देखिए समय के साथ क्या नया प्रयोग होगा! अभी तो यही है। मैंने एक पत्रिका ‘कल्पांत’ (संपादक:बालस्वरूप राही) में स्तंभ लेखन किया था। इस स्तंभ में केवल दिल्ली परिस्थितियों पर व्यंग्य लिखने थे। मैंने एक प्रयोग किया कि इस बहाने दिल्ली के विगत पचास वर्षों (तत्कालीन) का इतिहास एक व्यंग्यकार की दृष्टि से व्यंग्य आलेखों के रूप में किया, जो कालांतर में ‘दिल्ली चढ़ी पहाड़’ नाम से संकलित हुआ और ‘बागपत के खरबूजे’ के बाद सबसे चर्चित हुआ। 

प्रयोग नई जमीन तलाशने का अवसर देते हैं।

चंद्रकांता: साहित्य प्रत्येक देश और काल में परिवर्तित होता रहा है। साहित्य में युवा पीढ़ी को अक्सर आत्ममुग्ध, छपास पीड़ित, धैर्यविहीन, उथला और पुरस्कार लोभी कहकर नवाज़ा जाता है। व्यंग्य में भी ठीक यही स्थिति है। आत्ममुग्धता,छपास का रोग और पुरस्कृत होने की लालसा किस कालखंड में नहीं थी? जो आचरण साहित्यिक विरासत में मिला है वही युवा पीढ़ी बरत रही है। आप इस बात से कितना सरोकार रखते हैं?

डॉ. हरीश नवल: मैं व्यंग्य ही नहीं समस्त युवा पीढ़ी से आश्वस्त हूँ। कॉलेजों में इकतालीस वर्ष युवाओं को पढ़ा कर उन्हें पढ़ा और समझा है। हिंदी गद्य व्यंग्य लेखन की हमारे बाद की दोनों पीढ़ियों ने बहुत विकास किया है।  युग धर्म के अनुसार ही चलना अभीष्ट होता है। जेनरेशन गैप वहीं होता है जहाँ पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को नकारती है। हमारा लक्ष्य और अभिमान जैसे हमसे पहले की पीढ़ी का था, वैसे ही अगली पीढ़ी होगी, हम युगानुसार उसके अनुकूल और उन्हें अपने अनुकूल बनाने की कोशिश करेंगे तो यह गैप नहीं होगा या कम होगा।

चंद्रकांता: युवा पीढ़ी को अपने वरिष्ठ लेखकों के अनुभवों से सीख लेते रहना चाहिए, लेखकीय कर्म के साथ उन्हें उन्हें पाठक के तौर पर भी सक्रिय रहना चाहिए। यह आचरण रचनात्मकता का विस्तार करता है। युवा पीढ़ी के लेखकों और व्यंग्य रचनाकारों के लिये आप और क्या संदेश देना चाहेंगे?

डॉ. हरीश नवल: युवा पीढ़ी को मेरा संदेश यही है कि ‘जल्दी में ना रहें’, जीवन में परिणाम से अधिक महत्व गुणवत्ता का है, सो चिंतन करें, फिर लिखें, ऊर्जा को बचा कर रखें तथा विनम्रता और और औदात्य को अपना संस्कार बनाएं।

चंद्रकांता: आपसे बातचीत बेहद रोचक और ज्ञानवर्द्धक रही। जिस वैचारिक स्पष्टता और बेबाकी के साथ आपने अपना पक्ष रखा वह सराहनीय है। हम आशा करते हैं की साहित्य और युवा पीढ़ी आपके अनुभवों से समृद्ध और लाभान्वित होते रहेंगे। आपका बहुत-बहुत आभार। अभिनन्दन।

xx    यह साक्षात्कार सितम्बर 2020 में लिया गया था। यह डॉ. नवल द्वारा हस्तलिखित है। जिसकी एक मूल प्रति पाठकों के लिए आरम्भ में संलग्न है । xx