हम सबको आज़ादी बहोत मुबारक हो I
हम सबको आज़ादी बहोत मुबारक हो I
जब हमें आज़ादी मिली तब वह अपने साथ बहोत सारे अधिकारों को भी लेकर आयी I निजता का अधिकार, गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार और भी पता नहीं कौन-कौन से फलां अधिकार हैं जो संविधान ने हमें दिए हैं लेकिन ये हम जैसी कुछ महिलाओं तलक ही सीमित हैं शेष को तो शौचालय के लिए भी तमाम उम्र समझौता करना पड़ता है ।
क्या आप जानते हैं सार्वजनिक और निजी शौचालयों के अभाव में हमारे देश की करोड़ों महिलाओं को रेप और शारीरिक हिंसा के अतिरिक्त गर्भाशय व् पेट की बिमारियों और यूरिनल संक्रमण से जुडी हुई समस्याओं से जूझना पड़ता है ! मुल्क को आज़ाद हुए 70 बरस हो गए हैं लेकिन गांवों की लगभग 70 % आबादी के पास शौचालय नहीं है शहरों में भी यह स्थिति बेहद शोचनीय है. बरसात के दिनों मे, पीरियड्स में, बीमारीें में या गर्भवती होने पर ये महिलाएं किस तरह से ऐडज्स्ट करती होंगी ? शहरों में समस्या और भी विकट है, यहाँ तो खुली जगह भी नहीं है जहां ‘लोटा पार्टी’ की जा सके और घरेलू मसलों या पड़ोसी की बहू पर तानाकशी के पीछे अपने दुख- दर्द को छिपाया जा सके .
कल ‘टायलट – एक प्रेम कथा’ देखी ; फ़िल्म देखकर एक खास बात समझ आयी स्वच्छता को लेकर हर किसी की समझ अलग है। ऐसी ही एक सोच यह भी है कि घर-आंगन में टॉयलट का होना स्वच्छता की दृष्टि से सही नहीं है क्यूंकि; जिस घर में हम रसोई बनाते हैं और जिस आंगन में तुलसी स्थापित करते हैं वहां शौचाल्य का होना गंदगी और अधर्म का प्रतीक है । दूसरा, शौचालय का होना बहोत बड़ी जनसंख्या के लिए आज भी एक गैर जरुरी विषय है क्यूंकि पुरुष को खुले में शौच जाने से कोई दिक्कत नहीं और महिलाओं को ऐडज्स्ट करने की आदत डाल दी गयी है ।फिल्म का नायक भी यही सोच लेकर चलता है की नायिका को इतनी साधारण सी बात को एडजस्ट कर लेना चाहिए; लेकिन नायिका का घर छोड़ने का ठोस कदम और उनके मध्य का प्रेम नायक को अपनी सोच बदलने पर मजबूर कर देता है I
मालूम नहीं आपमें से कितनों को इस बात का अंदाज़ा है की महिलाएं यात्रा करते समय या फील्ड वर्क के समय पानी या तो नहीं पीती हैं या फिर कम पीती हैं ताकि शौच जाने की जरूरत न हो, क्यूंकी शौचालय हैं ही नहीं । तो घर या सार्वजनिक स्थानों पर शौचालय का नहीं होना अलग -अलग मायनों में हम सबकी समस्या है इसलिए हम महिलाओं को भी अपनी सहूलियत के ज़ोन से बाहर आना चाहिए और औरतों के मुद्दों पर जाति/ वर्ग/ धर्म की लकीर को लांघते हुए एकजुट होना चाहिए .
अंत में, देश की आज़ादी मुझे भी प्रिय है, मुझे भी आज़ादी का जश्न मानना अच्छा लगता है, आज़ादी के गीत सुनकर मेरे भी रोयें खड़े हो जाते हैं लेकिन ; एक मन यह भी कहता है कि ऐसी स्थितियों में अपनी आज़ादी का उत्सव कैसे मनाऊँ जहां शौचालय का अभाव देश की शत-प्रतिशत औरतों की समस्या है !!
चंद्रकांता The Moon