Mensural Hygene and Girls Education
‘सैनेटरी नैपकिन’ की लड़कियों की शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका है.
क्या आप जानते हैं मेंसुरल /मासिक धर्म/माहवारी प्राथमिक कक्षाओं के बाद लड़कियों की नामांकन दर के कम होते जाने का एक बड़ा महत्वपूर्ण कारण है ??? जी हाँ, उचित सैनिटरी और मेंसुरल केयर के अभाव में 12 -18 वर्ष की लड़कियों के स्कूल जाने की आवृति में तेज़ी से गिरावट आने लगती है और लगभग 23 % लड़कियों की शिक्षा इसके चलते रुक जाती है. जो लड़कियां स्कूल जाती भी हैं तो सैनिटरी असुरक्षा के चलते वर्ष भर में उनकी 50-60 दिन की की अनुपस्थिति रहती है जिसके चलते उन्हें मिड-डे मील के लाभों से भी वंचित रहना पड़ता है. इसलिए स्वास्थ्य सुरक्षा के लिहाज से लड़कियों में कुपोषण और माहवारी को menstrual hygiene के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए.
menstrual period मासिक धर्म 10-11 वर्ष से अधिक उम्र की लड़कियों में प्रत्येक महीने होने वाली वह जैविक प्रक्रिया है जिसमें तीन या अधिक दिनों तक उन्हें यौनिक रक्तस्राव की पीड़ादायक स्थिति से गुजरना पड़ता है.मासिक धर्म महिलाओं की बच्चे को जन्म दे सकने की क्षमता से जुड़ा हुआ है. भारत में आमतौर पर मासिक धर्म की समाप्ति की उम्र 45-50 वर्ष है जिसे मीनोपाज़ कहा जाता है. यह एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिस पर स्वयं घर की महिलायें भी आपस में बात करने से और अपने अनुभव साझा करने से झिझकती हैं. माहवारी को लेकर सही जानकारी और पर्याप्त सैनेटरी सुरक्षा के अभाव में महिलाओं को कई गंभीर बीमारियाँ घेर लेती हैं. भारतीय स्वास्थ्य सुरक्षा मिशन में भी महिलाओं की इस समस्या की अनदेखी की गयी है.
महिलाओं के सशक्तिकरण में सैनेटरी नैपकिन की क्या भूमिका हो सकती है हमारे-आपके लिए इसका अंदाज़ा भी लगा पाना मुश्किल है. आप चौंक जाएंगे की गांवों और आदिवासी इलाकों की बहोत सी महिलायें माहवारी के दिनों में सैनिटरी नैपकिन की अनुपलब्धता के चलते राख, मिट्टी, भूसी, पत्तियाँ या इस तरह की अन-हाइजेनिक कतरनों का इस्तेमाल करने के लिए बाध्य हैं जो उनमें गंभीर संक्रमण का प्रसार कर सकती हैं. ये महिलायें ऐसे कपड़ों का इस्तेमाल करने को बाध्य हैं जिन्हें हम और आप झाड़-पोंछ के काम में लाने से भी परहेज़ करेंगे.
गांवों के सीमान्त इलाकों में जहां गरीबी बहोत अधिक है और औरतों के पास शरीर को सही तरीके से ढकने के लिए कपड़े भी नहीं है ऐसे में माहवारी के दिनों में hygiene या स्वच्छ कपड़े का उपलब्ध हो पाना अधिक बड़ी चुनौती है. एक अनुमान के अनुसार गरीबी के चलते लगभग 70 % ग्रामीण महिलायें सैनिटरी नैपकिन खरीद पाने में असमर्थ होती हैं. जो महिलायें कपड़ा इस्तेमाल करती हैं उनमें 45 % उनका रीयूज करती हैं दिक्कत की बात यह है की सामाजिक टैबू के चलते इन कपड़ों को रीयूज़ करने के लिए वे इन्हें छाया में सुखाती हैं धूप के अभाव में ये असंक्रमित नहीं हो पाते. ऐसे में स्वच्छ कपडे का अभाव इन महिलाओं में यौनिक बीमारियों एवं प्रजनन सम्बन्धी संक्रमण ( RTI – Reproduction Tract Infections) की फ्रीक्वेंसी को बढ़ा देता है.
USAID के एक प्रोजेक्ट ” वाश ” ( WASH / WaSH – WATER SANITAION & HYGIENE ) के तहत वर्ष 2014 से 28 मई को विश्व भर में ‘मासिक ( धर्म ) स्वच्छता दिवस’ मानाने की एक अति अवाश्यक पहल की गयी है.इस पहल का मकसद दुनिया भर में मासिक धर्म से जुड़े टैबू, और प्रचलित अवैज्ञानिक धारणाओं को कम करने और उसके दौरान रखी जाने वाली साफ़-सफाई के बारे में महिलाओं व किशोरियों को जागरूक करना है.
सर्वाइकल कैंसर ऐसी ही बीमारियों में से एक है. इस दिशा में कोई सरकारी सर्वे किया गया है या नहीं हमें नहीं मालूम लेकिन नील्सन के सर्वे के मुताबिक भारत में 355 मिलियन महिलाओं में से केवल 12 % ही सैनिटरी नेपकिन का इस्तेमाल करती हैं .
पर्याप्त सैनेटरी सुरक्षा के अभाव में काम-काज में महिला भागीदारी नहीं हो पाने की वजह से उत्पादकता में प्रतिवर्ष लगभग 15 बिलियन $ का नुकसान हो जाता है.सैनिटरी पैड कि अनुपलब्धता, शोचालयों में स्वच्छता व पानी की कमी और माहवारी के कपड़ों के निस्तारण के लिए डस्टबीन का अभाव आदि कारणों से माहवारी के दिनों में लड़कियां अमूमन स्कूल जाने से बचती हैं . इस सन्दर्भ में उत्तर प्रदेश शासन कि ‘ किशोरी सुरक्षा योजना ‘ एक सराहनीय कदम है जिसके अंतर्गत कक्षा 6 से 12 तक की किशोरियों को निःशुल्क सेनेटरी नैपकिन्स का वितरण किया जायेगा। किशोरी सुरक्षा योजना के अन्तर्गत आशा वर्कर्स का दायित्व होगा कि वह निर्धारित दिवस पर विद्यालय में आकर सेनेटरी नैपकिन्स वितरित करने में सहयोग करेगी। साथ ही किशोरियों को महवारी प्रबन्धन के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान कर जागरूक करेगी और उनकी भ्रान्तियों को दूर करेगी।
आपमें से कम ही लोग जानते होंगे कि USAID के एक प्रोजेक्ट ” वाश ” ( WASH / WaSH – WATER SANITAION & HYGIENE ) के तहत वर्ष 2014 से 28 मई को विश्व भर में ‘मासिक ( धर्म ) स्वच्छता दिवस’ मानाने की एक अति अवाश्यक पहल की गयी है.इस पहल का मकसद दुनिया भर में मासिक धर्म से जुड़े टैबू, और प्रचलित अवैज्ञानिक धारणाओं को कम करने और उसके दौरान रखी जाने वाली साफ़-सफाई के बारे में महिलाओं व किशोरियों को जागरूक करना है. मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन ( Menstrual Hygiene Management ) के तहत माहवारी के दौरान स्वच्छ कपड़ों की उपलब्धता, इस्तेमाल कपड़ों का उचित निस्तारण ( Waste Disposal ), यौनांगो की साफ़-सफाई एवं महिलाओं की निजता बनाए रखने को जरुरी माना गया है .
WASH सुविधाओं तक महिलाओं कि पहुँच निश्चित ही शिक्षा में उनकी भागीदारी में इजाफ़ा करेगी.बांग्लादेश इसका एक अच्छा उदाहरण है जहाँ स्कूल में सैनिटेशन केन्द्रित कार्यक्रम के माध्यम से लड़कियों के नामांकन में 11 % तक बढ़ोतरी दर्ज कि गयी है. भारत में सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के लिए शौचालयों का नहीं होना और सैनिटरी सुरक्षा तक पहुँच का नहीं होना व्यवस्था के लिए एक शर्मनाक बात है. यह एक जेंडर और कल्चर सेंसिटिव विषय है क्यूंकि पुरुषों पर इस तरह का कोई सामाजिक टैबू नहीं है की वे खुले में शौच नहीं जा सकते.
गली-मोहल्ले-रोड़ की दीवारों को पुरुषों द्वारा गन्दा करना एक आम बात है. एक और वो राष्ट्रीय संपत्ति को गन्दा कर रहे होते हैं दूसरी और अपने सामाजिक प्रभुत्व का संकेत दे रहे होते हैं. वहीँ महिलाओं के लिए खुले में शौच और पर्याप्त सैनिटरी केयर का अभाव उनके अस्तित्व व जीवन की सुरक्षा का भी प्रश्न है. घर की परिपक्व महिलाओं को चाहिए की कम से कम वे मासिक धर्म और शारीरिक स्वच्छता के मसले पर किशोरियों को ‘सामाजिक टैबू’ कि आड़ में थोपी गयी इमेज से बाहर निकलने में मदद करें. चंद्रकांता जून 2014