street vendors पटरीवाले, चंद्रकांता

street vendors पटरीवाले, चंद्रकांता  

 
 
 

आज कई हफ़्तों के पश्चात् 
हाट से खरीदी गुलाबी टोकरी हाथ में पकड़
एकदम पक्कावाला इरादा कर
आफ़िस और घर-बार की व्यस्तताओं से मुक्त होकर 
साप्ताहिक बाज़ार गयी थी, कुछ सामान लाने 
आज दिवाली या कोई त्यौहार तो नहीं था 
प्रत्येक पखवाड़े रविवार को 
मोहल्ले में होने वाली किट्टी पार्टी भी नहीं थी 
फिर भी, मैंने माथे पर बड़ी सी बिंदी सजा ली थी 
और ओठों पर गहरी लाली
मालूम नहीं क्यूँ !

बाज़ार भीड़ से पटा हुआ था 

प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से सटा हुआ था
अभी जरुरत का कुछ एक सामान खरीदा ही था 
अचानक ! मोटी-मोटी बूंदों वाली
झ-मा-झ-म बारिश शुरू हो गयी, मतवाली
मैं किसी तरह खुद को संभालती 
गिरती-पड़ती, सैंडल की नोक से बूंदों को उछालती 
स्ट्रीट-लाईट की रोशनी के नीचे सुस्ता रही 
चार-पहियाँ गाड़ी में जा बैठी – खुद से बोली  
उफ्फ ! अब बरसात भी बे-मौसम आ जाया करती है
कमबख्त, बेवक्त आ गए महमान की तरह लगती है

 

खुद को बरसात से महफूज़ पाकर
गाड़ी की अगली सीट पर, भीतर आकर

मैंने एक गहरी लम्बी सांस ली और मुंह पौंछा
फिर अ-ना-या-स ही, छोटी सी खिड़की से बाहर झाँका 
मेरी चार-पहियाँ से कोई तीन फीट आगा  
देखा एक पटरीवाला सड़क फलांग कर भागा
वह भीजी हुई सड़क के उस पार
स्टेशनरी की दुकान के नीचे खड़ा हो गया 
उसकी क-ठ-पु-त-लि-यों का दायरा कुछ बड़ा हो गया
क्योंकि उसे सामान के भीज जाने की फ़िक्र थी  

मेरे सीधे हाथ पर लकड़ी के फाटक के पास 
एक सब्जी वाली बाई सहमी खड़ी थी उ-दा-स  
मेह के जोर से, किंकड़ी सी देह उसकी अकड़ी पड़ी थी
इधर, रेहड़ी पर सजी सब्जियां धुल रही थी
और उधर बाई के मन में कोई आशंका घुल रही था
माई की राह देखते बाल-बच्चे भूखे होंगे 
बे-सबरी में आँखों से ढुलकते आंसू पीते होंगे 
हे विधना ! कब होगा यह मेह खत्म ? 
शायद , यही सोचती होगी !!

इसके बाद मन कोई और इ-मे-जि-ने-श-न नहीं कर पाया 

 

बरसात की ब-ड़-ब-ड़ा-ती बूंदों के बीच 
मैंने खुद को बेहद छोटा पाया
तुरंत-फुरंत चाबी घुमाई, सायरन बजाया 
और चार-पहियाँ लेकर धीमी रफ़्तार से चल दी
बीच-बीच में कौंधती नीली बिजुरिया चमकती रही
रास्ते भर मेरे दिल-दिमाग में धमकती रही 
बारिश की नरम बूँदें किसी के लिए सख्त भी हो सकती थीं
यही आ-वा-जा-ही विचारों में फुदकती रही 
पटरीवालों की ठहरी हुई जिंदगी की वह पिक्चर रात भर 
मेरी गीली आँखों में करवटें बदलती रही 

सुबह-सवेरे आफ़िस जाने से पहले, नहाते हुए 
बारिश की बूँदें कानों के अंदरूनी कोनों तलक ग्रामोफ़ोन की तरह बजती रहीं

 

(ज़ारी …)

चंद्रकांता