Vyangya Kavita व्यंग्य कविता की चुनौतियाँ

Vyangya Kavita – व्यंग्य कविता हाशिए पर क्यों?

नागार्जुन की विख्यात कविता “प्रतिबद्ध” कि पंक्तियां. हैं-

प्रतिबद्ध हूं/
संबद्ध हूं/
आबद्ध हूं…जी हां,शतधा प्रतिबद्ध हूं
तुमसे क्या झगड़ा है/हमने तो रगड़ा है/इनको भी, उनको भी, उनको भी,और उनको भी!
उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति रही है .
उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि

‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको‘,अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन‘ और ‘तीन दिन, तीन रात आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओ पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है .

आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘
की ये पंक्तियाँ देखिए………….
यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,

व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी  बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं.  हिन्दी कविता में नागार्जुन जनकवि और  व्यंग्यकार के रूप में खड़े मिलते हैं .  नागार्जुन का काव्य व्यंग्यशब्द चित्रों का विशाल अलबम है. मंचीय कवि इनी गिनी रचनाओ के लिये ही प्रसिद्ध हुये हैं . जिस कवि ने जो छंद पकड़ा उसकी ज्यादातर रचनायें उसी छंद में हैं . महिला रचनाकारों ने सस्वर पाठ व प्रस्तुति के तरीको से मंचो पर पकड़ बनाई है . मंचो पर व्यंग की जगह फूहड़ हास्य ज्यादा लोकप्रिय हुआ। ओम व्यास सफल मंचीय कवि थे . ओम व्यास की रचना “मज़ा ही कुछ और है” –

दांतों से नाखून काटने का
छोटों को जबरदस्ती डांटने का
पैसे वालों को गाली बकने का
मूंगफली के ठेले से मूंगफली चखने का
कुर्सी पे बैठ कर कान में पैन डालने का
और डीटीसी की बस की सीट में से स्पंज निकालने का
मज़ा ही कुछ और है

काका हाथरसी छंद बद्ध हास्य रचनाओ के सुस्थापित नाम हैं उनकी किताबें काका की फुलझड़ियाँ , काका के प्रहसन , लूटनीति मंथन करि ,  खिलखिलाहट ,  काका तरंग ,जय बोलो बेईमान की , यार सप्तक , काका के व्यंग्य बाण आदि सभी किताबें मूलतः हास्य से भरपूर रचनायें हैं . प्रायः काका हाथरसी की कुण्डलियां बहुत चर्चित रही हैं –

कुत्ता बैठा कार में, मानव मांगे भीख।
मिस्टर दुर्जन दे रहे, सज्जनमल को सीख।।
सज्जनमल को सीख, दिल्लगी अच्छी खासी।
बगुला के बंगले पर, हंसराज चपरासी।।
हिंदी को प्रोत्साहन दे, किसका बलबुत्ता।
भौंक रहा इंगलिश में, मन्त्री जी का कुत्ता।।

हुल्लड़ मुरादाबादी देश के विभाजन पर पाकिस्तान से विस्थापित होकर मुरादाबाद आये . उनका मूल नाम  सुशील कुमार चड्ढा है . उनके लिए हास्य व्यंग्य की यह  कला बड़ी सहज है . भाषा ऐसी है कि हिन्दी उर्दू में भेदभाव नहीं,  भाव ऐसा है कि हृदय को छू जाए.  समय के साथ हुये तकनीकी परिवर्तनो को हास्य रचनाकारो द्वारा बड़ी सहजता से अपनाया गया . हुल्लड़ जी ने किताबें या मंचीय प्रस्तुतियां ही नही एच एम वी के माध्यम से ई पी , एल पी , कैसेट के माध्यम से भी उनकी हास्य रचनायें प्रस्तुत की और देश के सुदूर ग्रामीण अंचलो तक सुने व सराहे गये .  हुल्लड़ जी  पहले हास्य कवि हैं जिनका (L.P) रेकार्ड एच.एम.वी.कम्पनी ने तैयार किया .हुल्लड़ की एक रचना है-

चार बच्चों को बुलाते तो दुआएँ मिलतीं,

साँप को दूध पिलाने की जरूरत क्या थी ?

कविता का मूल उद्देश्य केवल हँसी या मनोरंजन ही नहीं होना चाहिए। यदि श्रोता या पाठक को हँसी के अतिरिक्त कुछ संदेश नहीं मिलता तो वह कविता बेमानी है .

अल्‍हड़ बीकानेरी भी उनके समकालीन हास्य व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं . छंद, गीत, गजल और ढ़ेरों पैरोडियों के रचयिता अल्‍हड़ जी ऐसे अनूठे कवि थे, जिन्‍होंने हास्‍य को गेय बनाने की परंपरा की भी शुरुआत की . अल्हड़ जी एक ऐसे छंद शिल्पी थे, जिन्हें छंद शास्त्र का व्यापक ज्ञान था। अपनी पुस्‍तक ‘घाट-घाट घूमे’ में अल्‍हड़ जी लिखते हैं, ”नई कविता के इस युग में भी छंद का मोह मैं नहीं छोड़ पाया हूं, छंद के बिना कविता की गति, मेरे विचार से ऐसी ही है, जैसे घुंघरुओं के बिना किसी नृत्‍यांगना का नृत्‍य….. ” वे अपनी हर कविता को छंद में लिखते थे और कवि सम्‍मेलनों के मंचों पर उसे गाकर प्रस्‍तुत करते थे. यही नहीं गज़ल लिखने वाले कवियों और शायरों के लिए उन्‍होंने गज़ल का पिंगल शास्‍त्र भी लिखा, जो उनकी पुस्‍तक ‘ठाठ गज़ल के’ में प्रकाशित हुआ। 

अल्‍हड़ जी की प्रतिभा और लगन का ही करिश्‍मा था कि सन् 1970 आते-आते वे देश में एक लोकप्रिय हास्‍य कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। काव्‍य गुरू श्री गोपाल प्रसाद व्‍यास जी के मार्गदर्शन में अल्‍हड़ जी ने अनूठी हास्‍य कवितायें लिख कर उनकी अपेक्षाओं पर अपने को खरा साबित किया। अल्‍हड़ जी ने हिन्‍दी हास्‍य कविता के क्षेत्र में जो विशिष्‍ट उपलब्धियां प्राप्‍त कीं, उनमें ‘साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान’ के सम्‍पादक श्री मनोहर श्‍याम जोशी, ‘धर्मयुग’ के सम्‍पादक श्री धर्मवीर भारती और ‘कादम्बिनी’ के संपादक श्री राजेन्‍द्र अवस्‍थी की विशेष भूमिका रही। अल्‍हड़ जी अपनी हास्‍य कविताओं में सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों पर तीखा प्रहार किया। अपनी बात को कविता के माध्‍यम से वे बहुत ही सहज रूप से अभिव्‍यक्‍त करते थे।  अल्‍हड़ बीकानेरी ने हास्‍य- व्‍यंग्‍य कवितायें न सिर्फ हिन्‍दी बल्कि ऊर्दू, हरियाणवी संस्कृत भाषाओं में भी लिखीं और ये रचनायें कवि-सम्‍मेलनों में अत्‍यंत लोकप्रिय हुईं। उनके पास कमाल का बिंब विधान था। इसी तरह महंगाई पर पौराणिक संदर्भों का सहारा लेकर वे खूबसूरती से अपनी बात कहते हैं :

     ”बूढ़े विश्‍वामित्रों की हो सफल तपस्‍या कैसे

     चपल मेनका-सी महंगाई फिरे फुदकती ऐसे

माणिक वर्मा का जन्म मध्यप्रदेश के खंडवा में हुआ था। वे हास्य व्यंग्य की गद्य कविता के लिए जाने जाते हैं।

सब्जी वाला हमें मास्टर समझता है
चाहे जब ताने कसता है
‘आप और खरीदोगे सब्जियां!
अपनी औकात देखी है मियां!
ओम प्रकाश आदित्य की गजल है ….
छंद को बिगाड़ो मत, गंध को उजाड़ो मत
कविता-लता के ये सुमन झर जाएंगे।
शब्द को उघाड़ो मत, अर्थ को पछाड़ो मत,
भाषण-सा झाड़ो मत गीत मर जाएंगे।

शब्द को उघाड़ो मत, अर्थ को पछाड़ो मत,

भाषण-सा झाड़ो मत गीत मर जाएंगे।

शैल चतुर्वेदी की अनेक किताबें छपीं . वे अपने डील डौल से ही मंचो पर हास्य का माहौल बना देते हैं. अशोक चक्रधर की हास्य कवितायें कई फ्रेम में कसी गई हैं , पर अधिकांश मुक्त छंद ही हैं . पद्मश्री  सुरेंद्र शर्मा हिंदी की मंचीय कविता में स्वनाम धन्य हैं , वे हरियाणवी बोली में चार लाईणा सुनाकर और अधिकांशतः अपनी पत्नी को व्यंग्य का माध्यम बनाकर कविता करते हैं .

मण्डला के प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध जी की पहचान मूलतः संस्कृत ग्रंथो के हिन्दी काव्यअनुवाद तथा समसामयिक विषयो पर देश प्रेम की भावना वाली कविताओ को लेकर है ,

किसी भी कवि लेखक या व्यंग्यकार की रचनाओ में उसके अनुभवो की अभिव्यक्ति होती ही है .  रचनाकार का अनुभव संसार जितना विशद होता है , उसकी रचनाओ में उतनी अधिक विविधता और परिपक्वता देखने को मिलती है . जितने ज्यादा संघर्ष रचनाकार ने जीवन में किये होते हैं उतनी व्यापक करुणा उसकी कविता में परिलक्षित होती है ।

वर्तमान सामाजिक परिदृश्य ऐसा है कि मंचों पर जो कविताएं होती है उन्हें सुनने वाले जीवन की आपाधापी को भूलकर क्षणिक परिहास की मांग करते हैं शायद इसलिए आर्थिक प्रलोभन से मंचीय कवि का लेखन भी उस दिशा में मुड़ गया है और व्यंग्यों की जगह हास्य से मंचो पर लोकप्रिय होकर धनार्जन के साथ शोभायमान होने लगा है ।

यदि धीरे धीरे परिमाजन हो , व्यंग्य आधारित काव्य मंचो की विषय वस्तु बने तो जमाना वापस आ सकता है , यह जिम्मेदारी हमारी व्यंग्य पीढ़ी के लिए चेलेंज है – विवेकरंजन श्रीवास्तव